प्राथमिक शिक्षा की कक्षाओं में शिक्षकों के स्तर पर महिलाओं की बहुतायत ने क्या एक अलग प्रकार की जेंडर असमानता को जन्म दिया है?

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नेशनल यूनिवर्सिटी आफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (NUEPA) ने भारत में प्राथमिक शिक्षा नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है जोकि सभी  राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर है। इसके देखने से ही यह बात समझ आती है कि प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर महिला शिक्षिकाओं का दबदबा बढ़ा है।

यदि कुल रोजगार में स्त्री पुरुष की भागीदारी का आकलन किया जाए तो अब भी महिलाएं काफी पीछे हैं यानी श्रमशक्ति में अभी वे बराबर की भागीदार बनने के लक्ष्य से बहुत दूर हैं। लेकिन क्या वजह है कि प्राथमिक स्तर की शिक्षा व्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी बढ़ गयी है? इस चलन को स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में तथा समाज में जेंडर बराबरी लाने की दिशा में क्या समझा जाए? क्या स्वयं महिलाओं के लिए यह अच्छा है कि वे कहीं तो आगे जा पायी हैं? या फिर यह उनकी सीमाओं को ही उजागर करता है? रिपोर्ट के नतीजों के अनुसार चंडीगढ़ में महिला शिक्षिकाओं की संख्या जहां 81 फीसद तक पहुंच गयी है, वहीं तमिलनाडु, गोवा, केरल, पंजाब और दिल्ली में यह भागीदारी 70 फीसद से ऊपर हो गयी है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर औसत फीसद 47.2 फीसद ही है। हालांकि एक हद तक प्राथमिक शिक्षकों के कुछ बड़े राज्यों मे पचास प्रतिशत तक स्थान महिला शिक्षकों के सुरक्षित रखे जाने की वजह से भी ऐसा हुआ है।


Primary education - teachers (% female) in India

Female teachers as a percentage of total primary education teachers includes full-time and part-time teachers.This page has the latest values, historical data, forecasts, charts, statistics, an economic calendar and news for Primary education - teachers (% female) in India.


मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एजेंसी नीपा के इससे पहले के सव्रेक्षण पर गौर करें तो दिखता है कि वही ट्रेंड या प्रवृत्ति बरकरार है। उक्त अध्ययन के मुताबिक देश में पहली से आठवीं तक के लगभग 58 लाख शिक्षकों में 45% महिलाएं थीं। कुल जनसंख्या में भी महिलाओं की हिस्सेदारी 48% नजर आयी थी. सव्रेक्षण के मुताबिक 12 राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों में महिला शिक्षकों का प्रतिशत आधे से अधिक रहा। सबसे अधिक 83% चंडीगढ़ में, 78% गोवा में, 77% तमिलनाडु में, 74% दिल्ली में, 65% पंजाब में और 55% कर्नाटक में. उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में इनका प्रतिशत आधे से कम नजर आया।

सबसे बड़ी बात यह है कि यह चलन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई अन्य देशों में भी परिलक्षित हो रहा है। प्राथमिक शिक्षा में महिलाओं की बढ़त वैश्विक स्तर पर देखी गयी है। यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट "वर्ल्ड एटलस आफ जेंडर इक्वालिटी इन एजुकेशन" में बताया है कि पिछले दो दशक में शिक्षा जगत में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है।  1990 में अगर यह 56% थी तो 2009 तक आते-आते यह 62% हो गयी है. इसमें यह आंकड़ा भी दिया गया है कि 171 देशों में प्राइमरी शिक्षा में 71% हिस्सा महिलाओं का है जबकि 9% देशों में 95% तक का हिस्सा महिला शिक्षिकाओं का है।

इस सन्दर्भ में एक बात तो यह कही जा सकती है कि वजह चाहे जो हो लेकिन कम से कम प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र ने महिलाओं को सार्वजनिक दायरे में तथा परिवार में कमाने वाले सदस्य का स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आज भी शिक्षिका बनने के लिए घर-परिवार तथा समाज से ज्यादा प्रतिरोध का सामना भी नहीं करना पड़ता है।

हमारे समाज में प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र एक तरह से परिवार का ही विस्तार माना जाता है।  चूंकि घर के अन्दर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी औरत की मानी जाती है और दाखिले के समय भी बच्चे छोटे ही होते हैं, लिहाजा यह स्वाभाविक मान लिया गया कि महिला शिक्षिकाओं के रूप में इस दायित्व को बेहतर निभा सकती हैं। कम उम्र के बच्चों की पढ़ाई में ज्ञान कम और भावनात्मक रूप से बच्चों की देखरेख करने की जरूरत सभी बखूबी समझते हैं। हालांकि यह सोच भी जेंडर स्टीरियोटाइप सोच के तहत माना गया कि महिलाएं अच्छा करेंगी। इसमें कहीं दो राय नहीं कि वाकई महिलाएं अपना दायित्व अच्छी तरह से निभाती होंगी लेकिन उसका कारण यह नहीं कि सिर्फ वहीं अच्छा कर सकती हैं और पुरुष नहीं कर सकते। बल्कि यह काम वहीं करती आयी हैं और पुरुष ने इसे अपना काम समझा ही नहीं।

यद्यपि अपने आप में इसमें कोई कमी नजर नहीं आती है कि यदि कोई (पुरुष) स्वेच्छा से किसी क्षेत्र विशेष की नौकरी न करना चाहे या स्वेच्छा से (महिलाएं) किसी क्षेत्र विशेष की नौकरी लेना चाहे, लेकिन यह फर्क किन कारणों से हो सकता है, इसका विचार जरूर होना चाहिए। आखिर पुरुष प्राइमरी स्तर की शिक्षा में अध्यापक क्यों नहीं बनना चाहते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है प्राइवेट स्कूलों का प्रबन्धन तथा अभिभावक दोनों ही महिला शिक्षक को प्राथमिकता देते हैं।


इसकी एक बड़ी वजह यह भी मानी जा सकती है कि आम तौर पर प्राइवेट स्कूलों का वेतनमान कम होता है। प्रबंधन द्वारा अक्सर जितने पर दस्तखत करवाये जाते हैं, उससे कम पैसे हाथ में पकड़ाते हैं तथा काम के घंटों में भी कई बार अधिक काम करवाया जाता है। महिलाएं क्योंकि कम वेतन की नौकरी स्वीकार लेती हैं या वह काम की स्थितियों के बारे में भी अधिक मुखर नहीं होती जबकि पुरुषों के पास दूसरे अच्छे आय वाले विकल्प मौजूद होते हैं। सुरक्षा भी एक बड़ी वजह हो सकती है जो उन्हें इस पेशे की तरफ झुकने के लिए प्रेरित करती हो।

अन्त में सवाल यह है कि यदि प्राथमिक स्तर पर वे इस जिम्मेदारी को संभाल रही हैं और आगे हैं तो उच्च स्तर की शिक्षा में क्यों पीछे है? क्या उच्चस्तरीय ज्ञान हासिल करने और फिर यह सेवा देने में वे अक्षम साबित हुई है? ऐसी कोई भी अध्ययन रिपोर्ट नहीं आयी है। यही माना जाता है कि समाज में उनके लिये अवसर उपलब्ध नहीं कराया गया है। हाल में विज्ञान के क्षेत्र में महिला वैज्ञानिकों की कम होती संख्या पर चिन्ता व्यक्त की गयी है। सव्रेक्षण में यह स्थिति रोजगार के दूसरे क्षेत्रों में भी है जहां स्त्री-पुरुष अनुपात में अभी भी भारी अन्तर है। उच्च पदों पर महिलाओं की नियुक्तियों में क्या अवरोध आ रहा है, इसे समझने तथा दूर करने के लिए गंभीर प्रयासों की जरूरत भी नहीं समझी जा रही है।

सेना जैसे क्षेत्र में तो उन्हें नियुक्ति के बराबर नियम के लिये कानूनी जंग लड़नी पड़ती है। स्थायी कमीशन का विकल्प अभी भी सेना में हर स्तर पर महिलाओं को नहीं मिला है। निश्चित ही यह एक बड़ी चुनौती हमारे समक्ष खड़ी है। स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक बराबरी तभी संभव है जब अवसर भी बराबर का उपलब्ध हो। इसके लिए जरूरी है कि एक तो सरकार द्वारा कानूनन हर क्षेत्र में बराबर का अवसर दिया जाय तथा दूसरे सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रयास हो तथा अभियान चले कि महिलाएं अधिक से अधिक सार्वजनिक दायरे में प्रवेश कर कुशल कामगार का दर्जा हासिल करें।

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