प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश विचार के स्तर पर भी और वास्तविक धरातल पर भी करते  है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद कानपुर देहात के साथी  श्री विमल कुमार जी से!  स्वभाव से सौम्य, अपनी बात कहने में सु-स्पष्ट और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षक  श्री विमल कुमार जी  का 'आपकी बात' में स्वागत है।

इस आलेख में उन्होने प्राथमिक शिक्षा के दो स्तरों  और अभिभावकों की आर्थिक स्थिति के आधार पर विभिन्नताओं की ओर इशारा किया है और  नीति को लागू करने वाले तंत्र को कटघरे में खड़ा किया है। हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श  की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष   श्री विमल कुमार जी  का आलेख प्रस्तुत है।



मित्रों हम सब जानते हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा संचालित और राज्य सरकारों द्वारा पोषित शिक्षा की दो योजनाएं पहली आर टी ई और दूसरी मिड डे मील है, जो 6 से 14 वर्ष के समस्त भारतीय बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा दोपहर में ताजा और गर्म पौष्टिक भोजन देने के लिए हैं।

फिर ऐसे कौन से कारण हैं जो परिषदीय शिक्षा और प्राइवेट शिक्षा के लिए मानक अलग कर देते हैं। क्या प्राइवेट और परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे अलग अलग देश के अभिभावकों के बच्चे हैं  या हमारे संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है, जो भारत में पैदा हुए बच्चों पर शिक्षा के लिए अलग अलग नियम और मानकों की अनुशंसा करते हों?

शायद ऐसा नहीं है, और हमें पता न हो जिससे ये उलझन----

यदि आप में किसी को ऐसा बच्चों में भेद करने वाली संवैधानिक व्यवस्था का पता हो तो हम आम जन की शंका समाधान करने की कृपा करें। क्योंकि जब भेद दिखाई देता है तो मन में शंका होना भी सम्भव है। क्योंकि- 

1 - परिषदीय विद्यालयों में मिड डे मील लागू है लेकिन सीबीएसई बोर्ड जिसकी हमें नकल करनी है। वहाँ बच्चे अलग है वहाँ के बच्चे पैकिट बन्द और माँ के हाथ का खाना खायेंगे। वहाँ मिड डे मील क्यों नहीं है ?

2- परिषदीय विद्यालयों के बच्चों को पाँच रुपए में गुणवत्ता युक्त पौष्टिक भोजन खिलाना ही है चाहे अभिभावक इच्छुक हो या न हो। अन्य स्कूल के बच्चे वही खायेंगे जो उनके अभिभावक चाहेंगे।

3- आर टी ई के अनुसार 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए, तो सीबीएसई , मान्यता प्राप्त अथवा प्राइवेट विद्यालय फीस क्यों ले रहे हैं?


कुछ न कुछ भेद तो माना जा रहा है। जबकि बच्चे किसी भी सभ्य देश की धरोहर होते है जिनमें अभिभावक के अनुसार भेद भाव करना बहुत ही अनैतिक लगता है।  बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं जिनके हाथ राष्ट्र के भविष्य की कुंजी है। बच्चे गरीब और अमीर नहीं होते हैं वरन अभिभावक गरीब और अमीर होते हैं।
क्या आजाद भारत इतनी उन्नति सोच विकसित नहीं कर सका जिसमें बच्चों को केवल बच्चा माना जाय। बच्चों की सोच को दूषित होने से बचाया जाना ज़रूरी है। जिसका वर्तमान समय में बीजारोपण हमारे शिक्षण व्यवस्था से ही हो जा रहा है। इस भेदभाव की प्रवृत्ति पर नियंत्रण आवश्यक है। हमारी शिक्षा समतामूलक होनी चाहिए। शिक्षा के नाम पर इतना बजट और खर्च का रोना होता है तो क्या सरकार 6 से 14 वर्ष के समस्त बच्चों को अपने अनुसार नहीं पढ़ा सकती। जिसमें सिर्फ सरकारी विद्यालय ही शिक्षा दें। जहाँ कृष्ण और सुदामा एक ही परिवेश में शिक्षा ले सके। जो भविष्य में एक दूसरे को मित्र कह कर गले लगा सके। जिसके लिए सम्पन्न अभिभावकों से फीस ले और गरीब अभिभावकों की फीस प्रतिपूर्ति सरकार करे।

जिससे बच्चों में जन्म जात भेद तो न बढ़े। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था तो भविष्य में भयानक सामाजिक विषमता को जन्म देने वाली होती जा रही है। जिसे जान कर भी हम सब किसी न किसी कारण से अनजान बनें हैं क्योंकि जिस वर्ग के बच्चे इस बिषमता के शिकार हो रहे हैं। वे गरीब और लाचारी की बजह से सोचने में असमर्थ हैं।
जिस देश का बच्चा विषमता का शिकार होगा उस देश का भविष्य कभी भी समानता के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। फिर चाहे हम सब कितनी भी समतावादी और समाजवादी महापुरुषों की जयन्तियाँ और छुट्टियाँ मना लें। महापुरुषों को सच्ची श्रद्धान्जलि तभी होगी जब हम उनके विचारों का भारत निर्माण कर समतावादी, समाजवादी, मानवतावादी और राष्ट्र भक्त समाज बना सकें। किसी समस्या के कारण उत्पन्न विचार ही समस्या निवारण हेतु भविष्य में मूर्ति रूप लेते हैं।

सत्यमेव जयते।  जय हिन्द!


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  1. मुझे गर्व है अपने विचारवान ऊर्जावान साथियों पर

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