प्राइमरी का मास्टर डॉट कॉम के फैलाव के साथ कई ऐसे साथी इस कड़ी में जुड़े जो विचारवान भी हैं और लगातार कई दुश्वारियों के बावजूद बेहतर विद्यालय कैसे चलें, इस पर लगातार कोशिश विचार के स्तर पर भी और वास्तविक धरातल पर भी करते  है। चिंतन मनन करने वाले ऐसे शिक्षक साथियों की कड़ी में आज आप सबको अवगत कराया जा रहा है जनपद फ़तेहपुर की सक्रिय शिक्षिका साथी  श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव से!  स्वभाव से सौम्य, अपनी बात कहने में सु-स्पष्ट और मेहनत करने में सबसे आगे ऐसे विचार धनी शिक्षिका श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव जी  का 'आपकी बात' में स्वागत है।

इस आलेख में उन्होने सरकारी प्राथमिक शिक्षा में हिस्सेदारी कर रहे बच्चों के पारिवारिक आर्थिक उपार्जन की ओर ध्यान दिया है कि आर्थिक क्रियाकलाप में संलग्नता के चलते जब तक विद्यालय में बच्चा नियमित ना हो पाएगा, वास्तविकता के धरातल पर  को भी परिवर्तन  सफल नहीं हो सकता है। हो सकता है कि आप उनकी बातों से शत प्रतिशत सहमत ना हो फिर भी विचार विमर्श  की यह कड़ी कुछ ना कुछ सकारात्मक प्रतिफल तो देगी ही, इस आशा के साथ आपके समक्ष श्रीमती रश्मि श्रीवास्तव  जी  का आलेख प्रस्तुत है।


हम परिषदीय विद्यालयों के शिक्षकों के पास एक बहुत बड़ी समस्या है कि कैसे हम अपनी शिक्षा के स्तर को कान्वेट स्कूलो के मुकाबले पर ला कर खड़ा कर दें ?

बराबरी करने के लिए सिर्फ शिक्षक के समर्पण की जरुरत नही है बल्कि ये समर्पण परिवार से ही शुरू होना चाहिए। दुर्भाग्यवश हमारे विद्यालय के बच्चे, ऐसे परिवेश से आते है जहाँ शिक्षा का कोई माहौल है ही नही!  कहते है कि माँ किसी भी बच्चे की प्रथम शिक्षिका होती है, और परिवार प्रथम पाठशाला। परिवार से मिले हुए संस्कार और शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व को अत्यधिक प्रभावित करते है। ग्रामीण परिवेश मे पलने वाले बहुतायत बच्चों को, प्रथम संस्कार 'चार पैसे कमाने' का दिया जाता है और यह उनकी परिस्थितिजन्य मजबूरी के कारण ही होता है। ऐसे मे अभिभावक के लिये गाँव का स्कूल और पढ़ाई, प्रथम प्राथमिकता के विषय नही होते। कभी-कभी तो संपन्नता के बावजूद भी जागरुकता की कमी आड़े आ जाती है। अगर शिक्षा प्राप्ति के दूरगामी प्रभावों की जागरुकता ही लोगों मे आ जाये तो समस्या का कुछ हद तक इलाज हो सकता है।


कान्वेन्ट स्कूल के बच्चों की माँ अपने बच्चे के सुयाभ के नाश्ते से लेकर शाम के भोजन तक का मीनू बनाती है। बच्चों के जागने से लेकर सोने तक का भी टाइम टेबल हर क्षण सामने होता है। बच्चो की सुबह की शुरुआत के दो घण्टे पहले से ही, माँ अपने बच्चों का टिफ़िन तैयार करने लग जाती है, और प्रतिदिन की कोशिश यही होती है कि बच्चे को पर्याप्त मात्रा मे पोषक तत्व भी मिलें और उनके पसंद का स्वाद भी। कानंवेंट के पढ़ने वाले ये बच्चे किसी 'मिड-डे-मील' व्यवस्था से पोषित नही होते और न ही उनका ध्यान मध्यावकाश  की घंटी पर ही टिका होता है। कान्वेंट स्कूलों के अधिकांश बच्चें ऐसे घरो से संबंधित होते है जहाँ का आर्थिक स्तर सिर्फ समृद्ध ही नही होता बल्कि अभिभावक अपना भविष्य भी बच्चों में ही देखता है। सारी सुविधाओं से परिपूर्ण बच्चो की दिनचर्या होती है, अभिभावक ख़ुद ही बच्चे की पढ़ाई के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है। अभिभावक, बच्चों की परीक्षा के समय पर अपने अत्यंत जरूरी कार्यों, यहाँ तक की घरेलू शादियों को भी, अपनी प्राथमिकताओं से बाहर कर देता है और बच्चे और उसकी परीक्षा को ही प्रथम स्थान पर रखता है। ये विडम्बना ही है कि प्राथमिक स्कूल के अधिकांश बच्चे, परीक्षा के समय पर ही अपने रिश्तेदारों की शादियों मे अपने अभिभावकों के साथ 'लम्बा गोला ' मारते हैं।

हमारें परिषदीय विद्यालय के बच्चों के दिन की शुरुआत, महुआ बीनने, आलू खोदने या गेहूँ काटने आदि से होती है। गरीबी तो ऐसे मकड़जाल की तरह फैली है कि बच्चे मजदूरी ना करें तो शायद परिवार का भरण-पोषण ही मुश्किल हो जाये। ऐसा कोई भी बच्चा नही मिलता जो साल भर उपस्थित रहा हो। मजदूरी तो उसको करनी ही पड़ती है। अगर लड़कियाँ है तो अम्मा के खेत में मजदूरी जाने के बाद घर का चूल्हा चौका करना है और छोटे भाई बहन को देखना है।

मेरे विद्यालय की एक बच्ची जिसे पढ़ने का शौक था नियमित रुप से स्कूल में आना उसकी आदत बनती जा रही थी लेकिन वह एक ही शर्त में आ पाती थी कि साथ में अपने दो साल के छोटे भाई को भी ले जाये और कभी -कभी तो घर से उसकी माँ या पिता चिल्लाते हुए आ जाते थे कि  "जा .....जल्दी हारे जा! भवानिन के जाये तोर पढ़ाई........  काम को करी ? छोड़वाईत है अबहीं तुम्हार स्कूल, चलौ सीधे।"  ऐसे बच्चो का भविष्य सिर्फ अध्यापकों के हाथों से नही संवर सकता बल्कि उनका परिवार उनके गाँव का माहौल सभी उत्तरदायी होते है।

कुल मिलाकर गाँव की परिस्थितियाँ और घरेलू कामकाज, सब मिलाकर परिषदीय विद्यालयों की स्थिति  को कमजोर ही कर रहे है साथ में परिषदीय विद्यालय के अध्यापकों को दिये जाने वाले गैर शैक्षणिक कार्य ने भी स्तर को कमजोर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। एमडीएम, तरह तरह की तमाम गणनाए, निर्माण कार्य, बी.एल.ओ. ड्यूटी आदि गैर शैक्षणिक कार्यों के अलावा स्कूल मे छात्रों के उचित अनुपात मे शिक्षकों का न होना भी इन सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को और भी अधिक समस्याप्रद बना देता है।

जब हम अभिभावकों से आदर्शवादी बातें करते हैं तब उनका बड़ा ही व्यावहारिक उत्तर आता है - "मैडम जी अगर हम गेहूँ काटे मा इनका न लगइबे तो फिर खइबे का? का सरकार 8 पास करे के बाद हमका नौकरी दइ देई? पढ़े के बादौ हमका और हमरे लरिकन का यही करे का है।" इस बात में सच्चाई भी है। .इनके जीवन व्यापन में बच्चो की महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका है।

बहुत सी बातों में केवल एक बात ये है कि अगर ये माता -पिता जागरुक होते और शिक्षको को गैर शैक्षणिक कार्यो का विरोध ये अभिभावक ख़ुद भी करते, तो शायद आज समाज में शिक्षकों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह न लगा होता! सारे काम तो शिक्षक ने पूर्ण निष्ठा से किये, लेकिन उसका मूल कार्य उससे दूर हो गया जिसके प्रति  उसे  वास्तव में जवाबदेह होना चाहिये।  अगर अभिभावक वास्तव में जागरुक हो जाते तो स्वयं ही अपने गाँव के विद्यालयो में जाने वाले किसी भी शिक्षक को नियमित कर देते। किसी औचक निरीक्षण की जरुरत ही ना पड़ती।
तमाम दोषों के बावजूद सरकारी नीतियाँ काफी हद तक शिक्षकों की स्थितयाँ गिराने में जिम्मेदार है, - गैर जिलों में नियुक्ति करना, दूरस्थ ब्लाकों में भेजना आदि,  इन सबसे शिक्षक का निजी जीवन प्रभावित होता है।  फलतः सुविधाशुल्क के प्रयोग की विधा ने जन्म लिया और धीरे-धीरे उसका प्रभाव परिषदीय विद्यालयों में अत्यधिक पड़ने लगा। पहले अक्सर शिक्षक जिस गाँव में पढ़ाता था उसी के पास या फिर अपने ही गाँव में नियुक्त रहता था, जहाँ के लोगो से उसे अपनेपन का एहसास रहता था। बच्चो से वास्तविक रुप से हमदर्दी रहती थी। घर आने जाने की चिन्ता नही रहती थी। वर्तमान की बदलती परिस्थितियों मे अब तो महिला शिक्षिकायेँ  अनजान व दूरस्थ गाँवो में नियुक्त हो जाने पर सुरक्षा को लेकर भी भयभीत रहती है,  और यह भय वास्तविक भी है।

मुझे लगता है कि सरकारी प्राथमिक शिक्षा के मामलों में इस दिशा में  भी काम करते हुये तदनुसार नीतियों में परिवर्तन किया जाये तो माहौल बदलने में देर नहीं लगेगी।

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  1. उपर्युक्त पोस्ट से पूर्णतः सहमत, लेकिन क्या निकट भविष्य में कोई इलाज संभव है? कभी कभी तो रिजाइन करना का मन करता है। क्या करूँ? दिल कहता है जिस काम के पैसे लेता हूँ उस काम से कभी संतुष्टि नहीं मिली। क्योकि क्या पढ़ाउ किसे पढ़ाउं?

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  2. जब शिक्षा से नौकरी की गारंटी ना मिले और अशिक्षित होकर आदमी मजदूरी करके चार पैसे कमा कर घर चलाने की स्थिति में ना हो तो उसके हालात को उसके परिवार के आलावा कोई नहीं समझ सकता है ।

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  3. Whatever circumstances are here but our motto is to inculcate the practical knowledge into the students rather than filling their notebooks my own view is that if way is interesting changes can be brought to some extent

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