प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे अपने घर-परिवार में बोली जाने वाली भाषा बोलते हैं। यह भाषा हिन्दी के स्वीकृत मानक खड़ी बोली से अलग होती है। हमारे प्रदेश में बोली जानेवाली ऐसी भाषाओं में अवधी, ब्रज, भोजपुरी, बुन्देली, कुमाऊँनी, गढ़वाली आदि मुख्य हैं। स्कूलों में शुरुआत से ही बच्चों को मानक भाषा सिखाने पर जोर दिया जाने लगता है जिससे बच्चे भाषा सीखने से कतराते हैं। बच्चे घर पर बोली जाने वाली भाषा के असर के कारण मानक भाषा के प्रयोग में "अशुद्धियाँ " करते हैं - "उसने कही", "हम लोगों ने जाना है" आदि। इस पर उन्हें डांट पड़ती है, जबकि शुरु में ही शुद्धता पर जोर देने से भाषा सीखने में एक बड़ी रुकावट खड़ी हो जाती है। 

शिक्षकों की बार-बार टोका-टाकी और चुप कराने से बच्चों में घरेलू भाषा के प्रति हीनभावना भी पैदा हो जाती है और वे आत्मविश्वास के साथ खुलकर अपनी बात नहीं कह पाते। कक्षा में सार्थक / अर्थपूर्ण बातचीत के पर्याप्त अवसर नहीं उपलब्ध हैं। इस तरह का दबाव या अनुशासन रहता है कि बच्चे चुपचाप कार्य करें। भाषा सिखाने में मौखिक पक्ष की अक्सर उपेक्षा की जाती है। इससे बच्चे आगे की कक्षाओं में अपनी बात कहने में हिचकते हैं। इससे मौखिक अभिव्यक्ति जैसे सशक्त माध्यम का प्रयोग और विकास नहीं हो पाता। जबकि यह भाषा शिक्षण का जरूरी पहलू है।


भाषा सीखने से पहले उस अवधि की ‘सहायक तैयारियों’ पर तो ध्यान दिया ही नहीं जाता। भाषा सीखने-सिखाने के प्रचलित तौर-तरीके बहुत उबाऊ, नीरस और मशीनी किस्म के हैं। बच्चों को इनमें मजा नहीं आता। इसके अलावा कक्षा में कुछ ही बच्चों को बार-बार बोलने का मौका दिया जाता है जिससे ज्यादातर बच्चे भाषा सीखने में पिछड़ते चले जाते हैं ।




बच्चे अपने घर-परिवेश में हो रही बातों को सुनते रहते हैं तथा उनके साथ हो रहे हाव-भावों को देखते-समझते हैं। शुरु में बच्चे संकेतों के आधार पर बात को पकड़ने का प्रयास करते हैं। स्वयं भी वे हाव-भावों एवं संकेतों का माध्यम के रूप में प्रयोग करते हैं। धीरे-धीरे वे कहने की कोशिशों और उनके परिणामों को जानने लगते हैं। फिर वे अपने आस-पास तैर रहे शब्दों को पकड़ना शुरु कर देते हैं। शब्द गूंजते समय वे उस दौरान आस-पास हो रहे व्यवहारों को भी देखते हैं। एक दौर ऐसा आता है जब वे सुनना-समझना तेज कर देते हैं। इस प्रकार वे सुनकर, समझने की ओर बढ़ते हैं। जब उन्हें यह समझ आती है कि वे शब्दों को बोलकर कुछ हासिल कर सकते हैं तो वे उनका उपयोग करने लगते हैं। क्रमश: उनका काम चलाऊ शब्दभंडार बढ़ता जाता है।
 
बच्चे अपने कथनों और उनके प्रभाव से अपनी भाषा विकसित करते हैं। स्कूल आने से पहले बच्चे काफी कुछ बोल सकते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि बच्चा भाषा ऐसे समय सन्दर्भ से सीखता है, जहां उसका ध्यान भाषा केंद्रित नहीं है। भाषा सीखने में सुनने बोलने, पढ़ने-लिखने का क्रम तो है, लेकिन दरअसल हमेशा ऐसा ही नहीं होता है। क्या जब ‘सुनना’ होता है तो ‘बोलना’ रुका रहता है या ‘बोलने’ के समय ‘सुनना’ स्थगित रहता है ? यह सब साथ-साथ भी चलता रहता है - सुनना, बोलना, पढ़ना। 
 
क्या स्कूल में बच्चों को शुरु में सुनने-बोलने के पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं? बच्चा जब विद्यालय में पहली बार आता है तो परम्परागत शिक्षण में शिक्षक उससे सीधे लिखने-पढ़ने का कार्य कराने लगते हैं। वह समझ ही नहीं पाता कि क्यों कुछ आकृतियां जबरन उसे दिखाई पढ़ाई और लिखाई जा रही हैं। वह घर जैसा वातावरण चाहता है। स्कूल नामक इस जगह पर उसके अपने अनुभवों को सुनने वाला कोई नहीं है, उसकी ‘अपनी भाषा’ के लिये कोई जगह नहीं होती।

अध्यापक के लिये जरूरी है कि पहले वह बच्चे की भाषा को स्वीकार करे, तब उसे अपनी मानक भाषा की ओर ले जाये। स्कूल में बच्चों को मानक भाषा सुनने, समझने, बोलने के अधिक मौके देनाचाहिये। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बच्चों की घरेलू भाषा को छोटा माना जाय या उपेक्षित किया जाय।

शिक्षकों द्वारा यह क्रम अपनाने से बच्चों को शायद अधिक मजा आयेगा और भाषा सीखने की गति तेज होगी। कक्षा में ऐसे वास्तविक और रोचक संधर्भ बनाये जायें जिनमें तरह-तरह से भाषा का उपयोग करना हो। बच्चों के अनुभव सुनना, उनमें आपस में ‘गपशप’ करवाना, उन्हें कहानियां-कविताएं सुनाना, कहानियां-कविताएं कहलवाना ऐसी ही गतिविधियां है। इनके जरिये उन्हें मौखिक अभिव्यक्ति के लिये उकसाया जा सकता है। मौखिक अभिव्यक्ति के साथ उन्हें अभिनय या अंगसंचालन के मौके देना भी जरूरी है। बच्चों के पंसद के विषयों पर छोटे-छोटे भाषण देने के मौके भी मिलने चाहिये। जब उन्हें लगेगा कि विद्यालय भी घर जैसा है, यहाँ बहुत मजेदार बातें सिखाई / कराई जाती हैं, तो हमारा विश्वास है कि वे स्वाभाविक रूप से बोलेंगे। बच्चों को स्कूल व कक्षा में बातचीत के पर्याप्त मौके दिये जायें। यह कार्य उनकी भाषा के विकास में मददगार होगा। बातचीत भाषा सिखाने का जादुई माध्यम है। मौखिक अभिव्यक्ति के पर्याप्त अभ्यास के बाद ही लिखित कार्य की ओर कदम बढ़ाना ठीक रहेगा।

भाषा तो भाषा ही रहेगी, क्यों ना इसे इसे बच्चों को बच्चों की भाषा में ही पढाएं?

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