गणित शिक्षण की समझ



हमारे मन में प्रायः जिज्ञासा होती है कि गणित विषय का अध्ययन-अध्यापन तो हम सभी करते रहते हैं किन्त वास्तविकता में गणित है क्या? वास्तव में गणित एक सटीक विज्ञान है, जो नियमों व सूत्रों की सहायता से गणनाएँ कर किसी तथ्य के संदर्भ में हमें निष्कर्ष तक पहुँचाता है। यह सफल जीवन हेतु आवश्यक चिन्तन, तर्क व अनुमान जैसे कौशलों का विकास करता है।

क्या आप अपनी दिनचर्या में से कोई ऐसा पल ढ़ूँढ़ सकते हैं, जिसमें गणित की दखल न हो?

जब हम अपने परिवेश व दिनचर्या को देखते हैं तो पाते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण और आस-पास गणित ही गणित है। घड़ी का समय, भोजन की मात्रा, रोटियों की संख्या, पानी का आयतन, गिलास या लोटे की धारिता, थाली या प्लेट का व्यास व परिधि, कमरे की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई, वस्तुओं की तौल, दाल में पानी का अनुपात, खेेत व मैदान का क्षेत्रफल, आदि सभी गणित की ही विषयवस्तु है। अतः हम कह सकते हैं कि गणित हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।

किन्तु प्रश्न उठता है कि जब गणित हमारे जीवन में इस तरह समाहित है और उसके अभाव में जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है तो उसके शिक्षण की आवश्यकता क्यों है? यद्यपि हम बचपन से ही जाने-अनजाने विभिन्न गणितीय संक्रियाओं से जुड़े रहते हैं, जैसे मिलाना, जोड़ना, निकालना घटाना, बाँटना, क्रमागत संख्याएँ जानना, विभिन्न आकारों को देखना, रुपए-पैसों की जानकारी, लेन-देन आदि, फिर भी हम यह नहीं समझ पाते कि हम किन गणितीय अवधारणाओं का प्रयोग कर रहे हैं? जिस कारण व्यावहारिक जीवन की अनेक समस्याओं को हल करने में परेशानी आती है। अतः हमे भावी जीवन में सफल होने हेतु लाभप्रद क्षमताओं का विकास करना आवश्यक है, विशेषकर अंक-ज्ञान, संख्या से जुड़ी क्षमताएँ, सांख्यिक संक्रियाएँ, माप, दशमलव, प्रतिशत, क्षेत्रफल, आयतन, ब्याज, नाप-तौल, लाभ-हानि, क्रय-विक्रय, अनुपात आदि। इनके विकास के साथ-साथ गणितीय ढ़ंग से सोचना, तर्क करना, मान्यताओं के तार्किक परिणाम निकालना और अमूर्त को समझने हेतु गणित शिक्षण अनिवार्य है।

गणित शिक्षण के प्रति भी हमारी समझ होना आवश्यक है क्योंकि सामान्यता लोगों में धारणा बनी हुई है कि गणित एक कठिन एवं बोझिल विषय है। इसमें अमूर्तता है तथा प्रतीकों, सूत्रों व परिभाषाओं का विषय होने के कारण बच्चों के सीखने में बाधक है। किन्तु यह धारणा सत्य नहीं है। वास्तव में गणित एक रोचक एवं अवधारणात्मक विषय है। इसके शिक्षण व सीखने में समस्या तभी आती है, जब इसे चॉक, डस्टर के माध्यम से या रटाकर सिखाने का प्रयास किया जाता है।



इसके विपरीत जब हम प्राथमिक स्तर पर मूर्त (ठोस) वस्तुओं का प्रयोग कर बच्चों के अनुभवों और उनके दैनिक जीवन की आवश्यकताओं से उसे जोड़ते हुए किसी अवधारणा के प्रति उनकी समझ बनाने का प्रयास करते हैं तो गणित विषय का सीखना सरल व रुचिकर हो जाता है। जैसे यदि बच्चे में आयत के आकार की समझ बनानी है तो कागज या कार्ड के बने आयताकार टुकड़े, दरवाजों के पल्ले दिखाकर आयत का आकार स्पष्ट किया जा सकता है। तत्पश्चात् जब बच्चों से उनके परिवेश की आयताकार वस्तुओं की सूची बनवाई जाती है तो वह बड़ी रुचि व तत्परता से सूची बनाने लगते हैं, जैसे- माचिस, साबुन, किताब, कॉपी आदि और यहीं से आयत के प्रति उनकी समझ विकसित होना प्रारम्भ हो जाती है। एन0 सी0 एफ0 2005 भी ज्ञान को बच्चों के परिवेश व उनके जीवन से जोड़ने की तथा रटने की प्रक्रिया से दूर रहने की बात करता है।

गणित की अवधारणाओं की समझ बनाते समय जब हम बच्चों को सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करने का अवसर देते हैं, तो वह उसमें अपने अनुभव, कल्पनाएँ व तर्क शामिल करते हुए इन कार्यों को करने के बारे में स्वयं व अपने पियर समूह के साथ मिलकर निर्णय लेते हैं। इस प्रक्रिया में बच्चों के साथ बातचीत का महत्वपूर्ण स्थान है। गणित के संदर्भ में बच्चों से बातचीत करते समय, कहानी या कविता सुनाते समय, दूर-पास, छोटा-बड़ा, कम-अधिक, मोटा-पतला, हल्का-भारी, मिलाने से सामग्री का बढ़ना, हटाने से सामग्री का घटना, आदि का अनुभव कराना विषय के प्रति समझ को विकसित करने की प्रक्रिया को सरल बनाता है।

(... क्रमशः जारी)

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