शिक्षा के नाम पर राजनीति
मनीषा प्रियम

उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में तैनात शिक्षामित्रों की नियुक्ति रद्द करने संबंधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से देश में बच्चों की शिक्षा को लेकर राजनेताओं की मंशा पर सवाल पैदा हुआ है। मुद्दा उत्तर प्रदेश में यह था कि मायावती की सरकार ने 1999 में शिक्षकों की नियुक्ति संविदा के आधार पर की। ये शिक्षक पंचायत शिक्षामित्र कहलाए। इनके लिए वांछित न्यूनतम योग्यता पूर्णकालिक शिक्षकों के लिए निर्धारित योग्यता से कहीं कम रखी गई थी। हालांकि सच्चाई यह भी थी कि उत्तर प्रदेश के स्कूलों में बच्चों की बढ़ती आबादी के लिए पूर्णकालिक शिक्षकों की बहाली कर सकना सरकार की आर्थिक क्षमता से कहीं बाहर था, और बेरोजगारी का आलम ऐसा था कि शिक्षित बेरोजगार किसी भी कीमत पर कोई भी नौकरी करने के लिए तैयार थे। रोजगार की उनकी मजबूरी ही गरीब बच्चों के लिए शिक्षा का एकमात्र अवसर बन पाई। वर्ष 2012 में राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार अनुबंध नियुक्तियों को नियमित करने का भरपूर वायदा दिलाती हुई आई। लिहाजा 2014 में शिक्षा विभाग के कुछ नियमों को बदलकर एक सरकारी फरमान के जरिये अनुबंध पर नियुक्त पंचायत शिक्षामित्रों को सहायक शिक्षक का दर्जा दे दिया गया। यानी दोयम दर्जे की नियुक्तियों को पिछले दरवाजे से पदोन्नति दे दी गई।




उल्लेखनीय है कि पूर्णकालिक शिक्षकों के लिए केंद्र सरकार ने स्पष्ट मापदंड तय किए हुए हैं। मगर पंचायत शिक्षामित्र यानी संविदा नियुक्ति शिक्षा की पूरी व्यवस्था पर एक काला साया बनकर मंडरा रही है। और यह सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। अर्द्ध-शिक्षकों या शिक्षकों में संविदा नियुक्ति का यदि इतिहास देखा जाए, तो 1990 में संस्थागत समायोजन की नीतियों के आने के बाद से ही संविदा नियुक्ति पर बल दिया जाने लगा। बीमारू राज्यों (बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश) में, जहां शैक्षणिक संकट गहरा माना जाता था, मध्य प्रदेश ने सर्वप्रथम संविदा नियुक्ति का मार्ग अपनाया। जबकि दक्षिण के किसी भी राज्य ने ऐसा नहीं किया। यहां तक कि आंध्र प्रदेश ने भी नहीं, जहां विश्व बैंक की नीतियों और सुझावों का चंद्रबाबू नायडू के दौर में खूब बोलबाला रहा। आंध्र प्रदेश में विद्या वॉलंटियर्स की नियुक्ति केवल खानापूर्ति के लिए की गई। वहां नियमित रूप से शिक्षकों की नियुक्ति विधि में स्थापित नियमों के अनुसार की जाती रही।


ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति को बीमारू राज्यों ने ही तरजीह दी। दक्षिण के किसी राज्य ने ऐसा नहीं किया, उस आंध्र प्रदेश ने भी नहीं, जहां चंद्रबाबू नायडू के दौर में विश्व बैंक की नीतियों का बोलबाला रहा। 


सवाल यहां यह है कि आखिर उत्तर के राज्यों में ही संविदा नियुक्तियों का बोलबाला क्यों रहा। इसकी कुछ वजहें हो सकती हैं। मसलन, बिहार और उत्तर प्रदेश में बच्चों की जनसंख्या का दबाव बहुत रहा, मगर उससे भी महत्वपूर्ण कारक यह रहा कि इन राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उद्योग और रोजगार के बढ़ने के आसार नहीं दिखते थे। यानी बीमारू राज्यों की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं थी। ऐसे में बेरोजगारी के आतंक का दुरुपयोग करने की राजनीतिक मंशा बन गई। यहां तक कि बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने 2007-08 में जब नियुक्तियों का द्वार खोला, तो ढाई लाख संविदा नियुक्तियों के लिए आठ लाख के करीब आवेदन आए, और उन नियुक्तियों में जमकर घोटाला हुआ। नतीजतन उस राज्य में भी संविदा नियुक्ति के नाम पर ऐसी फर्जी नियुक्तियां हुई हैं कि शिक्षक ककहरा के आगे कुछ नहीं जानते।
ठीक ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश का रहा। संविदा के नाम पर शिक्षण की योग्यता न रखने वाले लोगों को भी शिक्षा व्यवस्था में ठूंस दिया गया। और नौकरियों का नियमितिकरण एक राजनीतिक मांग बनकर उभर आया। स्पष्ट है कि बच्चों के नाम पर राजनेता अपने राजनीतिक हित साधने में ज्यादा लगे हुए हैं। उत्तर प्रदेश में एक बार बसपा ने दोयम दर्जे की इन नियुक्तियों की फसल काटी, तो दूसरी बार सपा ने उसी फसल पर अपनी भी किस्मत आजमाई। इस तरह चुनाव में जो जीता अथवा जो हारा, सभी ने फसल इन्हीं शिक्षकों के नाम पर काटी। मगर यह देखने की किसी ने चेष्टा नहीं की कि आखिर संविदा के आधार पर नियुक्त शिक्षकों का स्तर क्या था। अगर उनमें जरूरी योग्यता नहीं थी, तो क्या उन्हें प्रशिक्षण देकर योग्य बनाया जा सकता था? या फिर शैक्षणिक निपुणता हासिल करने के लिए संविदा नियुक्ति के दौरान ही शिक्षकों को अवसर मुहैया नहीं कराया जाना चाहिए था? ऐसा करने के बजाय इन शिक्षकों को सहायक शिक्षक का दर्जा दे दिया गया। यानी इनके साथ भी खूब राजनीति की गई।
दुखद है कि शिक्षा जैसी व्यवस्था में भी, जिसमें सरकार का निर्धारित कार्य लोकहित का निष्पादन करना है, ऐसी गंदी राजनीति अपने देश में होती है, जहां लोकतंत्र अपेक्षाकृत जीवंत है। यह राजनीति उन बच्चों के साथ हो रही है, जो अपने हित की बात नहीं कर सकते। एक तरफ गरीब घरों के मासूम बच्चे, जिनके लिए सरकारी स्कूल शिक्षा पाने का इकलौता अवसर है, सरकार और उसकी नीतियों की गिरफ्त में हैं, तो दूसरी तरफ संविदा पर नियुक्त अधिकांश शिक्षक वास्तव में शिक्षित बेरोजगार हैं। गरीब इलाकों के इन शिक्षित बेरोजगारों से कमजोर तबका शायद ही देश का कोई श्रमिक वर्ग होगा। जबकि राजनेता उन्हें अपनी गिरफ्त में करके अपनी सियासी रोटियां सेंक रहे हैं।

यह सुशासन का आखिर कौन-सा मॉडल है? देश के चिंतक और लेखक इन मुद्दों पर मौन क्यों हैं? स्कूली शिक्षा के अधिकार की रट लगाने वाले एनजीओ या सिविल सोसाइटी के दल राजनेताओं को इन मुद्दों पर धिक्कारते क्यों नहीं? हमें समझना होगा कि न्यायालय कहीं-न-कहीं नियमों के परिपालन का सिर्फ आदेश ही देगा, समाज रचना का कार्य, खासकर बच्चों का भविष्य बनाने का कार्य, समाज का ही है। और अगर इसमें राजनेता और राजनीतिक दल भी चूकते हैं, तो टिप्पणी करते हुए हमें चूकना नहीं चाहिए। भारतीय लोकतंत्र की यदि सबसे बड़ी चूक देखी जाए, तो वह बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी शिक्षा की अनदेखी करना है। ऐसे में एक स्पष्ट नजरिये की जरूरत है, नीतियां तो बन ही जाएंगी।




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