मित्रों आपको ज्ञात होगा कि एक समय था जब मिड डे मील की बेसिक शिक्षा के स्कूलों में आवश्यकता महसूस की गई थी, क्योंकि तब यह महसूस किया गया था कि बेसिक शिक्षा  में बच्चों की कमी, उनका विद्यालय में ठहराव और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षण शायद इसलिए नहीं हो पा रहा है कि बच्चे विद्यालय में भूखे आते हैं सुबह बच्चों को भोजन उनकी माँ या तो गरीबी के कारण नहीं बना पाती अथवा वह सुबह से ही काम पर चली जाती है।

📌 लेकिन मिड डे मील के सम्पूर्ण कारणों और उसके निवारणों पर विचार किया जाए तो यह प्रतीत होता है कि मर्ज और दवा दोनों बच्चों के हित के लिए अलग अलग साबित हुई हैं। इसलिए न तो बच्चों के हालातों पर आवश्यक सुधार हुआ नजर आता है और न ही बेसिक शिक्षा की गुणवत्ता में मिड डे मील उपयोगी साबित हुआ।

हाँ इससे कुछ लोगों को बहुत फायदा हुआ है और हो भी रहा है। कई बार फर्जी उपस्थिति को लेकर झगड़े और दबाव सुनाई दिये और भोजन की गुणवत्ता तो कुछ प्रतिशत विद्यालयों को छोड़ दें तो लाभार्थी बच्चे ही बता सकते हैं। जो शायद ही किसी से छिपा हो।  अब सभी हालातों को देखते हुए यह प्रश्न उठते हैं कि-

👉 क्या इस योजना का पूरा लाभ बच्चों को मिल रहा है?

👉 क्या इस योजना के लाभ- हानि पर बच्चों की माँ से विचार कर उनकी राय जानने की कोशिश की गई? या यह मान लिया गया है कि गरीब व्यक्ति विचार शून्य होते हैं?

👉 क्या कभी उन शिक्षकों से इसके सुधार और उपयोगिता पर भौतिक परिस्थितियों के सत्यापन की जरूरत महसूस की गई? जिनको मिड डे मील संचालन की समस्त कमियों का दोषी ठहराया जाता है।

👉 क्या बच्चों की माँ और अभिभावकों से अधिक बच्चों की आवश्यकतानुसार अच्छी गुणवत्ता का भोजन कोई और खिला सकता है? यदि ऐसा नहीं है तो अन्य विद्यालयों में यह योजना क्यों नहीं है? वहाँ बच्चे अपनी माँ के हाथ का बना घर से टिफिन क्यों लाते हैं? या यह मान लिया जाए कि गरीब बच्चों को अपनी माँ के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता है।

🔴  यदि इन प्रश्नों के उत्तर नहीं में हैं तो फिर क्यों नहीं इसकी सही प्रक्रिया और उपयोग पर विचार करना चाहिए???

यदि वास्तव में सरकारें गाँव, गरीब और बेसिक शिक्षा की हित चिंतक हैं तो बच्चों को और उनके अभिभावकों को जिम्मेदार बनाना होगा तथा जिम्मेदारी का एहसास कराना होगा। इस समाज में एक कलंक और लापरवाही का द्योतक निःशुल्क शब्द को हटाना होगा।

हाँ मदद अवश्य होनी चाहिए। जिम्मेदार और जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए। जिससे बच्चों और अभिभावकों को भी लगे कि हमें यह जो निःशुल्क मदद मिल रही है यह हमारी शिक्षा के लिए सहायता के रूप में मिल रही है। इसके लिये बच्चों की माँ को बच्चों की उपस्थिति पर आधारित दैनिक भोजन भत्ता मिलना चाहिए। वार्षिक पुस्तकों, स्टेशनरी और यूनीफॉर्म भत्ता मिलना चाहिए। जिससे एक माँ और बच्चों के बीच का प्रेम भी प्रगाढ़ बना रहे। बच्चों को लगे कि हमारी माँ हमें खाना बना कर देती है और काॅपी किताबें और कपड़े। क्योंकि एक माँ से अधिक बच्चों की सेहत और भविष्य का ख्याल कोई नही रख सकता है।

जब मिड डे मील शुरू हुआ था तब आज जैसी हाइटेक स्थितियाँ और शिक्षित माताएँ नहीं थी। आज जब सभी प्रकार की सहायतायें लाभार्थी के खातों में सीधे आधार कार्ड आधारित व्यवस्था से भेजने की हो चुकी है। और अभी कुछ दिन पहले सभी को रसोई गैस कनेक्शन की उज्जवला योजना की घोषणा हो ही चुकी है। तब इन माताओं को इनके अनिवार्य कर्तव्य बच्चों के पालन पोषण से दूर कर गरीबी, अकर्मण्य और बेबसी का एहसास क्यों कराया जाए। इन्हें भी पड़ोस की माँ के समान अपने बच्चों का टिफिन बनाकर और शिक्षा के सम्बन्ध में सोचकर गौरवान्वित महसूस होने का अवसर दिया जाए।

तो फिर क्यों और किस बात की देर हालात ए मिड डे मील पर शासन तंत्र को विचार कर सरकारों को अतिशीघ्र  सुझाव देने चाहिए।

समानता का एक आधार

समान शिक्षा, समान व्यवहार।।


'विमल कुमार'
शिक्षक
कानपुर देहात 

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