क्या सरकार शिक्षा के अधिकार (आरटीई) को समाप्त करने का मन बना रही है/ नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार करने के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में गठित समिति की अनुशंसाओं में इस तरह के संकेत मौजूद हैं कि आने वाले दिनों में इस अधिकार को औपचारिक रूप से समाप्त भले न किया जाए, लेकिन इसमें कुछ ऐसी कतरब्योंत जरूर की जाएगी कि कमजोर तबकों के लिए यह बेमानी होकर रह जाएगा। कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में शिक्षा के अधिकार को तीन साल की उम्र से ही लागू करने की जरूरत बताई है। इसके मुताबिक बच्चों के सीखने की उम्र तीन साल के बाद से ही शुरू हो जाती है, इसलिए प्राइवेट स्कूलों की तरह सरकारी विद्यालयों में भी प्री-स्कूलिंग की व्यवस्था करके इसको भी शिक्षा के अधिकार के दायरे में लाना चाहिए। दिलचस्प बात है कि शिक्षा के अधिकार का दायरा नीचे की तरफ बढ़ाने की बात करने वाली इस रिपोर्ट में ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ यानी बच्चों को फेल न करने की नीति को पांचवीं क्लास यानी 11 साल की उम्र तक ही सीमित करने का सुझाव दिया गया है। 

अभी आरटीई के तहत बच्चों को आठवीं क्लास यानी 14 साल की उम्र तक फेल न करने का नियम है। इस व्यवस्था को न्यूनतम शिक्षा के अधिकार की व्यावहारिक गारंटी समझा जाता है। इसके पीछे तर्क यह रहा है कि प्रतिकूल स्थितियों में पल रहे बच्चे अगर किसी क्लास में फेल हो जाते हैं तो उनके लिए आगे की पढ़ाई और ज्यादा मुश्किल हो जाती है। आठवीं तक की शिक्षा सभी बच्चों को बिना शर्त देना भी इसीलिए जरूरी माना गया था, क्योंकि मानव समाज की मौजूदा अवस्था में इस स्तर की जानकारी किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व की बुनियादी शर्त बन गई है।

 इसमें कोई शक नहीं कि यह व्यवस्था स्कूलों में पढ़ाई की क्वॉलिटी को लेकर कई तरह की जटिलताएं पैदा कर रही है, लेकिन जरूरत उन जटिलताओं का हल खोजने की है। जैसे, आठवीं से पहले किसी क्लास में फेल हो जाने वाले बच्चों को छुट्टियों में पढ़ाकर उन्हें एक बार और इम्तहान देने को कहा जा सकता है। इसके बजाय उन्हें पिछली क्लास में ही रोक देने से उनके अनपढ़ बने रहने का रास्ता दोबारा खुल जाएगा।

साभार ‍~ सम्पादकीय नवभारत

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