शिक्षा का उद्देश्य तार्किक दृष्टिकोण
में सामाजिक न्याय और समानता के मूल्य पर आधारित एक ऐसी लोकत्रांतिक व्यवस्था से है
जिसमें विचार और कर्म के प्रति स्वतंत्रता, दूसरो
के प्रति संवेदनशीलता, नई परिस्थितियों में समायोजित होना
तथा आर्थिक एवं सामाजिक बदलावों में अपनी क्षमता को विकसित कर अपने
को प्रतिस्थापित करना है। वर्तमान शिक्षा के व्यवसायिककरण के कारण जहाँ एक ओर निजी स्कूलों
की बाढ़ आ गई है वहीं दूसरी ओर सरकारी शालाओं मे आज “बच्चों को
क्या पढ़ाया जाय” और “कैसे पढ़ाया जाय”
पर सरकारी नीतियाँ मंथन करती दिखाई देती है। यहाँ विचारणीय है कि
हमारे देश की शिक्षा नीतियाँ निर्धारित करने वाले महानुभावों का अनुभव उच्च स्तर
का अवश्य हो सकता है किन्तु जमीनी हकीकत से उनका नाता नहीं दिखायी देता। रेलमपेल
भरे कमरे, बरामदे की चिल्ल पों, हाँफते घर
घर पंखे, सीलन से भरी दीवारें, कमरों
में भरता हुआ धुँआ, गंदे पहने हुए कपडों के दृश्य शालाओं की
सरकारी व्यवस्था का जीता जागता नमूना है। इस व्यवस्था को सही करने के लिए न तो
विभाग के पास पर्याप्त बज़ट है और न ही शिक्षक के पास मनोदशा।
पंचवर्षीय योजनाओ मे शिक्षा के बढ़ावे के लिए सरकारों द्वारा सामुदायिक सहयोग का नारा बुलंद किया गया फलस्वरूप शालाओं में प्रबन्ध समितियाँ वृहद स्तर मे स्थापित की गयीं और उन्हें नए अधिकारों के साथ सुसज्जित किया गया लेकिन हुआ क्या वही ढाक के तीन पात। इन प्रबन्ध समितियों के सदस्यों के पास न तो समय है और न ही कार्य करने की इच्छा। इस दौर मे गाँव वाले भूखे रहकर समाज की सेवा कैसे कर सकते है? हमें पहले गाँवों को मजबूत एवं सशक्त बनाना होगा। कोई भूखा न रहे, सभी मजबूत हो तभी व्यक्ति समाजसेवा कर सकता है।
डिज़िटल इंडिया का इस्तेमाल व्यवसायिककरण पद्धति के स्कूलों ने
बाखूबी किया। सत्र के प्रारंभ में कुशल एडवर्टाइजिंग कम्पनी की तरह गली, नुक्कड़, दुकानों, बाजारों और
दीवारों को विज्ञापनों से पाट कर अपनी विशेषता को बताते हैं और सरकारी शालायें इस
दौर मे “स्कूल चलो अभियान” से ही
इतिश्री कर लेती है। निजी स्कूल जानते हैं कि जितना अच्छा विज्ञापन होगा दाम उतना
ही ऊँचा होगा। दुनिया की यही चकाचौंध अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। उनके
पास महंगी फीस है और उच्च व्यवस्था। सरकारी शालाओं में साल भर की व्यवस्था के लिए
मात्र ५००० हज़ार रुपये है उनमे वह क्या विज्ञापन निकलवाएगा और क्या प्रचार करेगा,
यही साल दर साल की व्यवस्था है। सरकारी शालाओं में बच्चों के लिए मुफ्त
की किताबें, ड्रेस, बस्ता, भोजन तो है लेकिन गरीबी और अशिक्षा के कारण न तो कॉपी है न ही पेंसिल। ऐसी
दशा मे शिक्षक उन्हें क्या दे सकता है। गरीबी ग्रामीण शिक्षा के लिए अभिशाप है।
इसी गरीबी के कारण अभिभावक प्रतिदिन स्कूल भेजने में असमर्थ है। वह दो वक्त की
रोटी की जुगाड़ के लिए ईट भट्टों और शहरों मे काम की तलाश में पलायन कर जाता है और
ऐसे ४० प्रतिशत परिवार अप्रैल के आस पास पुनः वापिस आते है। इस अवधि में बच्चे उनके
सहयोगी के रूप में काम करते हैं और उनका किताबों से कोई नाता नहीं रहता। ऐसे बच्चों को कैसे पढ़ना, लिखना और बोलना सिखाया
जाए...................यह सरकारी शाला की महत्वपूर्ण समस्या है। प्रायः सभी लोगों के पढने व सुनने में आता है कि फलां स्कूल मे निरीक्षण करने गये सरकारी अमलों के
नुमाईंदों को बच्चे किताब पढ़ कर नहीं सुना पाए, स्कूल की सफाई
व्यवस्था खराब है, गुणवत्ता विहीन शिक्षण है, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होना ..................आदि आदि। यद्यपि समाज के इन
नुमाईंदों/मीडियाकर्मियों को इस बात की चिंता कतई नहीं है की शिक्षा के गुणवत्ता
विहीन होने के मूल कारण क्या है, क्या समस्या है । सरकारी
शिक्षा शालाओं में सुधार तब तक हो पाना संभव नहीं हो सकता जब तक हम उनकी मूल
समस्यायाओं पर विचार नही करेंगे । सरकारी अमलों ने विकास खंड और न्याय पंचायत स्तर पर
शिक्षा संवर्द्धन हेतु लंबी फौजें बना रखी है लेकिन वास्तव मे इनका शिक्षा संवर्द्धन से कोई नाता देखने को नहीं मिलता अब यह मात्र आर्थिक संवर्द्धन और निरीक्षण के
केंद्र बन कर रह गए है। अब इन्हें न तो शालाओं की शिक्षा व्यवस्था से मतलब है ।
मतलब है तो नक्शा, मीटिंग और सलाम से । वास्तव में हमें
शिक्षा के द्वारा लोकत्रांतिक व्यवस्था में बच्चे के सर्वांगीण विकास को
प्रतिस्थापित करना एवं शिक्षा से इस व्यवस्था से आगे ले जाना है तो शिक्षा की निर्धारित करने हेतु स्थानीय स्तर पर शिक्षक को स्वतंत्र करना होगा । वह
स्वयं निश्चित करे कि हमारी शाला का माहौल शिक्षा और शिक्षण लायक कैसे बनेगा?
आर्थिक रूप से शालाओं को मजबूत करने के लिए वह स्वयं सुनिश्चित करे
कि स्थानीय स्तर पर क्या किया जा सकता है? यदि सरकारी
नुमाईंदे अपनी शिक्षा नीतियों पर पुनः विचार नहीं कर पाते तो वास्तव में सरकारी
शिक्षा व्यवस्था धनी लोगों के हाथों में होगी और समाज का एक तबका अनिवार्य एवं बाल
शिक्षा से कोसों दूर होता जायेगा और समाजिक न्याय, समानता
तथा नई परिस्थितियों में समायोजित मूल्यों का विचार स्वत: समाप्त हो जायेगा ।
लेखक
राकेश कुमार
प्रा०वि० परौसा क्षेत्र कदौरा
जिला जालौन
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