हम और हमारे स्कूल बच्चों से संवाद करके उनका विश्वास जीतने की कोशिश कभी नहीं करते

वे दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। एक आठ साल का और दूसरा छह साल का। आठ साल का बच्च छह साल वाले को खूब तंग करता, चिढ़ाता। छोटा बच्च रोता, परेशान होता। एक दिन उसने भी गुस्से में बड़े बच्चे को गाली दी। बस आठ साल का बच्च छह साल के बच्चे पर टूट पड़ा। उसने उसे खूब मारा। घर जाकर बच्चे पेट दर्द और शरीर के बाकी हिस्सों में तेज दर्द की शिकायत करने लगा। उसे अस्पताल ले जाया गया। इलाज करने वाले डॉक्टरों ने कहा कि उसे शरीर के अंदरूनी हिस्सों में चोट लगी है और खून बह रहा है। इलाज के बावजूद उसे बचाया न जा सका। स्कूल की एक कर्मचारी ने कहा कि बच्चे तो रोज ही ऐसे लड़ते हैं, मगर उस बच्चे के साथ ऐसा होगा, पता न था। स्कूल के अधिकारी बोले कि सीसीटीवी फुटेज में ऐसी कोई घटना दिखाई नहीं देती। जब पुलिस उस आठ साल के बच्चे के पास पहुंची और उससे पूछा कि तुमने उसे इतना मारा कि वह मर गया, तो पता चला कि उस बच्चे को मरने का मतलब ही नहीं पता था। बच्चे की बात सुनकर पुलिस भी सकते में थी। उसकी उम्र को देखते हुए पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया, न अपने साथ ले गई, मगर उसे अदालत में पेश किया। वहां आखिर इतने छोटे बच्चे को हत्या के जुर्म में सजा भी क्या दी जाएगी? उस बच्चे को, जिसे मारने और यहां तक कि मरने का मतलब तक पता नहीं, उसे क्या सजा दी जाए? बच्चों के जीवन में इतनी हिंसा कहां से आ गई? विशेषज्ञ कहते हैं कि जिन बच्चों के जीवन में प्यार का अभाव होता है, वे अधिक हिंसक हो जाते हैं। 

यही नहीं, टीवी पर आने वाले कार्यक्रम, फिल्में, तरह-तरह के कार्टूनों में हर तरह की हिंसा भरी होती है। जो पात्र जितना क्रूर होता है, वह उतना ही लोकप्रिय होता है। अक्सर बड़े और बच्चे इनके संवाद बोलते, इनकी हरकतों की नकल करते दिख जाते हैं। बच्चों को बहुत जल्दी ही इतनी क्रूरता और हिंसा एक तरह से घुट्टी में पिला दी जाती है कि वे इसमें गलत व सही का भेद करना भूल जाते हैं। 

एक तरह से ‘इम्यून’ हो जाते हैं। घर और स्कूल में भी देखा गया है कि अब अक्सर बच्चों से संवाद नहीं किया जाता। कभी भी उनका विश्वास जीतने की कोई कोशिश नहीं की जाती। बच्चों के बर्ताव में बढ़ती हिंसा हमें यह भी बताती है कि आज की दुनिया में वे कितने अकेले हैं? उन्हें इस तरह के संकट से कैसे निकाला जाए, इस पर चर्चा, बहस-मुबाहिसे कई बार सुनाई पड़ते हैं, पर सचमुच के प्रयत्न बहुत कम दिखाई देते हैं। स्कूलों में बच्चों के बीच न केवल मारपीट, बल्कि हत्या जैसी घटनाएं भी अक्सर सुनाई दे जाती हैं। बच्चों को अपराधी बनने से कैसे रोका जाए, कैसे उन्हें यह बताया जाए कि वे अकेले नहीं हैं, वे परिवार और समाज की बढ़ोतरी के लिए बेहद जरूरी हैं, उन्हें सभी लोग प्यार करते हैं, चाहते हैं, उन्हें इन सब बातों का एहसास कराना जरूरी है। 

लेखिका
क्षमा शर्मा
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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