जुलाई की खास पहचान कम से कम अपने देश में दो रूपों
में देखने को मिलती है- एक तो मानसून की मेहरबानी से हर तरफ हरियाली और
खेतों में खरीफ की बुवाई-रोपाई, दूसरे स्कूल-कालेजों में शिक्षा सत्र की
शुरुआत के साथ बच्चों से गुलजार माहौल। यह पूरा परिदृश्य सचमुच तबीयत खुश
कर देता है। लेकिन हमें बच्चों की आंखों में भी झांकना चाहिए और देखना
चाहिए कि उनके सपनों के मुताबिक हम उन्हें क्या सब कुछ दे पा रहे हैं? अभी
पिछले 8 जून को ही यूनिसेफ ने 195 देशों पर आधारित स्टेट ऑफ द वर्ल्ड
चिल्ड्रेन रिपोर्ट जारी की थी, जिसकी थीम है- सभी बच्चों के लिए समान अवसर।
सवाल यह है कि क्या सचमुच सभी बच्चों को हम समान अवसर दे पा रहे हैं? इस
रिपोर्ट में दुनिया भर में बच्चों की हालत और गैरबराबरी के कारण उनके जीवन
पर पड़ने वाले प्रभाव के विश्लेषण के साथ इस बात पर जोर दिया गया है कि
दुनिया को पिछले 25 वर्षों में हुई प्रगति को आगे बढ़ाने के लिए सर्वाधिक
गरीब बच्चों की मदद करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। रिपोर्ट बताती है
कि किसिम-किसिम की असमानताओं के कारण बच्चों का जीवन संकट में है। आज भी
पूरी दुनिया में करीब 12.4 करोड़ बच्चे घनघोर गरीबी और अभाव के चले शिक्षा
से वंचित हैं। यही नहीं, 1990 के मुकाबले मौजूदा दौर में पांच साल से कम
उम्र के गरीब बच्चों की मृत्यु का आंकड़ा दोगुना हो गया है और इसकी मुख्य
वजह कुछ और नहीं, कुपोषण ही है। रिपोर्ट कहती है कि अफ्रीका के उप सहारा
क्षेत्र और दक्षिण एशिया में बच्चों की हालत सबसे बुरी है। अगर सुधार की
यही रफ्तार जारी रही तो एसजीडी लक्ष्यों के तहत वर्ष 2030 तक शिशु मृत्युदर
को प्रति हजार जीवित बच्चों पर कम से कम 12 तक लाने का जो लक्ष्य रखा गया
था, उसे पूरा करने में दक्षिण एशियाई देश वर्ष 2049 यानी और 19 साल आगे तक
खींच ले जाएंगे।
अपने देश भारत के लिहाज से इस रिपोर्ट में प्री-स्कूलिंग की समस्या पर ध्यान दिलाया गया है। अगर बच्चों को प्री-स्कूल की औपचारिक शिक्षा न मिले तो स्कूल में उनके सीखने की क्षमता पर असर पड़ता है। जबकि अपने देश में तीन साल से छह साल की उम्र के कुल 7.4 करोड़ बच्चों में से करीब दो करोड़ बच्चे औपचारिक पढ़ाई शुरू करने से पहले प्री-स्कूल नहीं जा पाते। कहना नहीं होगा कि ये बच्चे गरीब और समाज के कमजोर वर्गों के हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा तादाद मुस्लिम समुदाय की है, जिसके 34 फीसदी बच्चों को प्री-स्कूल में दी जानेवाली शिक्षा नहीं मिल पाती। यह भी बताया गया है कि स्कूल शुरू होने से पहले की औपचारिक शिक्षा के बिना ही जो बच्चे प्राथमिक स्कूल जाते हैं, उनके बीच में ही पढ़ाई छोड़ने के आसार ज्यादा होते हैं।
रिपोर्ट में अपने देश को चेताया गया है कि यदि सरकार बच्चों की
वर्तमान मृत्युदर को कम करने में नाकाम रही तो 2030 तक भारत सर्वाधिक बाल
मृत्युदर वाले शीर्ष पांच देशों में शुमार हो जाएगा और तब दुनिया भर में
पांच साल तक के बच्चों की होनेवाली कुल मौतों में 17 फीसदी बच्चे भारतीय
होंगे। हालांकि शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव भी देखने को मिल रहा
है। रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में स्कूलों में नामांकन दर तकरीबन सौ
फीसदी तक पहुंच गई है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। बेशक इसका श्रेय शिक्षा का
अधिकार कानून को जाता है। फिर भी अभी देश में 61 लाख बच्चे शिक्षा की पहुंच
से दूर हैं।
जुलाई की खास पहचान कम से कम
अपने देश में दो रूपों में देखने को मिलती है- एक तो मानसून की मेहरबानी से
हर तरफ हरियाली और खेतों में खरीफ की बुवाई-रोपाई, दूसरे स्कूल-कालेजों
में शिक्षा सत्र की शुरुआत के साथ बच्चों से गुलजार माहौल। यह पूरा
परिदृश्य सचमुच तबीयत खुश कर देता है। लेकिन हमें बच्चों की आंखों में भी
झांकना चाहिए और देखना चाहिए कि उनके सपनों के मुताबिक हम उन्हें क्या
सबकुछ दे पा रहे हैं? सवाल यह है कि क्या सचमुच सभी बच्चों को हम समान अवसर
दे पा रहे हैं?
साभार : डेली न्यूज नेटवर्क
चित्र : साभार गूगल
Post a Comment