एक प्रशिक्षक के रूप में सैद्धान्तिक बातों को बताना जितना आसान होता है उन पर अमल करना उतना ही कठिन। "निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009" में कहा गया है कि क्लास में बच्चों के लिये दंड व भय का कोई स्थान नहीं है। मैं इस बात से सहमत नहीं थी। भला बिना दण्ड दिये कक्षा में अनुशासन कैसे बनाया जा सकता है? बच्चे डाँट और मार के डर से ही सीखते हैं।
मैंने वर्ष 1999 में गॉव के एक प्राइमरी विद्यालय में अध्यापक पद पर नौकरी प्रारम्भ की। मैं अपने स्कूल की कठोर व अनुशासनप्रिय अध्यापकों में जानी जाती थी। मेरा मानना था कि बच्चे स्वच्छंद होते हैं, उन्हें डरा कर नियंत्रण में रखा जा सकता है। मैने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा में शिक्षकों से भिन्न-भिन्न प्रकार के दंड पाये थे। मुझे याद है गणित के अध्यापक बिना दंड उपकरण (छड़ी) के कक्षा में प्रवेश नहीं करते थे।
     वो स्मृतियाँ पूर्वाग्रह के रूप में मन में बैठ गयी थीं। कक्षा हो या प्रार्थना सभा मेरी उपस्थिति मात्र से वहाँ शांति और भय का वातावरण उत्पन्न हो जाता था। बच्चे एकदम कतारबद्ध होकर खड़े रहते और मेरी आँख के इशारे पर चल पड़ते।
       मेरी कक्षा के तीन -चार बच्चे बहुत ही उद्दंड थे।मेरी इतनी सख्ती के बाद भी वे शरारत करने से नहीं चूकते। कभी मैदान में लगे पेड़ पर चढ़ जाते, तो कभी दीवार पर। कभी स्कूल की चारदीवारी पार कर पड़ोस के बाग में घुस कर फल तोड़ कर खाते। पता चलने पर मैं उन्हें जम कर पीटती। परंतु उन पर चिकने घडे़ के समान कोई असर नहीं होता।
      एक बार मध्यावकाश के समय उन्हीं में से एक बच्चा दीवार पर चढ़ा और जोर की आवाज के साथ नीचे गिर पड़ा। हम सभी अध्यापक दौड़ कर उसके पास गये तो देखा उसके मुख से खून निकल रहा था। मैंने प्राथमिक उपचार के बाद उसके पिता को बुलाकर पास के चिकित्सालय भिजवाया। दो-तीन दिन बाद जब वह शरारती छात्र स्कूल आया तो मैंने उसे क्रोध से फटकारा",तुम्हारे जैसे शरारती बच्चे को ऐसा ही सबक मिलना चाहिए।"उसके लिये मेरे मन में जरा भी सहानुभूति का भाव नहीं था।
         इसी बीच में मेरा स्वास्थ्य खराब हो गया ठंड लग जाने के कारण गला बैठ गया और दो दिन अवकाश लेना पड़ा। तीसरे दिन जब स्कूल पहुँची तो पढ़ाते समय आवाज घरघरा रही थी। बच्चों ने पूछा,"लगता है मैडमजी आपकी तबियत खराब है इसीलिये आप स्कूल नहीं आयीं। हमें आपके बिना बिलकुल अच्छा नहीं लगा।"तभी वह शरारती बच्चा जो चोट खाया था बोला,"मैडमजी शायद आपका गला खराब है? मैं आपको एक बहुत अच्छा इलाज बताऊँ?"मुझे उसकी भोली बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा। मैंने आत्मीयता से कहा,"भला बताओ तो? उसने कहा,"एक गिलास में गर्म पानी लेकर नमक मिलाकर गरारा करें तो आप बिलकुल ठीक हो जायेंगी। मैने अनजान बनते हुए कहा ,"क्या सच में मै ठीक हो जाऊँगी। वह बोला,"हाँ सच में मेरी माँ गला खराब होने पर यही इलाज करती हैं।"साथ ही उसने गाँव में प्रचलित कुछ टोने-टोटके भी ठीक होने के लिए बताए।
    उस बच्चे की बात हृदय को छू गयी। कुछ समय मैं किसी अपराधिनी की भाँति बैठी रही। बच्चे भावनात्मक रूप से मुझसे इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं और मैं इतनी कठोर बनी रही इसका एहसास मुझे आज हो पाया। साथ ही मेरी धारणा बदली, 
यदि बच्चों को भयमुक्त वातावरण व सकारात्मक, स्वतंत्र चिंतन व क्रियाकलाप करने का अवसर मिले तो उनका सर्वांगीण विकास संभव है। मुझे ज्ञान हो गया कि बच्चों के सर्वांगीण विकास में भावनाओं का कितना महत्व है। किसी भी प्रकार का मानसिक या शारीरिक दंड बच्चे की भावनाओं और क्रोध, भय, घृणा, प्रेम जैसे संवेगों का संतुलित विकास नहीं कर सकता। संवेग बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। मानसिक दंड जैसे व्यंगात्मक टिप्पणी, दूसरे बच्चों से तुलना करना, अपशब्दों का प्रयोग भावनाओं को उद्वेलित करते हैँ। जिससे बच्चे का अपने संवेगों पर नियंत्रण नहीं रहता। 
महान वैज्ञानिक एडीसन जब स्कूल में शिक्षक से अपमानित किये गये तब उनकी माँ ने उन्हें भावनात्मक संबल प्रदान किया जिसने उन्हें अनगिनत असफलताओं के बाद भी लक्ष्य तक पहुँचाया। वहीं असंतुलित संवेग बच्चे में विध्वंसक एवं विनाशकारी प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं।
उसी समय मैंने स्वयं में बदलाव करने का संकल्प लिया और बच्चों के सामने आत्मीयता से प्रस्तुत होने लगी।   

लेखक
कविता तिवारी
 प्र0अ0, प्रा0वि0 गाजीपुर(प्रथम) 
 वि0ख0 बहुआ।
 जनपद फतेहपुर।

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