बच्चों की पढ़ाई के समय शिक्षकों से चुनाव संबंधी ड्यूटी न लेने का निर्देश देकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों पर भी उपकार किया है। हां, अदालती निर्देशों में कहा गया है कि अवकाश के दिनों में या उस समय जब टीचर पढ़ाई न करा रहे हों, उन्हें चुनावी ड्यूटी में लगाया जा सकता है। उस समय शिक्षक मना भी नहीं कर सकते क्योंकि चुनाव राष्ट्रीय कार्य है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्देश सर्वथा स्वागतयोग्य है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। चुनाव ड्यूटी निसंदेह राष्ट्रीय कार्य से जुड़ा मसला है किंतु बच्चों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करके यह किसी भी दिशा में उचित नहीं ठहराया जा सकता है। अनिवार्य शिक्षा कानून-2009 के अन्तर्गत प्रत्येक बच्चे को शिक्षा ग्रहण का अधिकार है। यह अधिकार तभी फलीभूत होगा जब शिक्षक नियमित रूप से स्कूल जाएं और बच्चों को पढ़ाएं। राज्य सरकार को चाहिए कि चुनाव की तारीखें घोषित करने से पहले वह इस बारे में निश्चिंत हो ले कि कहीं चुनाव के दौरान बच्चों की पढ़ाई का हर्जा तो नहीं हो रहा है। हाल के दिनों में उच्च न्यायालय ने बच्चों की पढ़ाई को लेकर जिस प्रकार की कड़ाई दिखाई है, उससे हर वर्ग में आशा का संचार हुआ है। बच्चों को उनकी पसंद के अनुरूप स्कूलों में पढ़ाने की बात हो और फिर चाहे विशेष बच्चों के साथ सामान्य बच्चों की पढ़ाई का मामला, उच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों से नजीर प्रस्तुत की है। 
चुनावी तारीखों में स्कूल बंदी करके बच्चों के मूल अधिकार से वंचित करना खिलवाड़ ही कहा जाएगा। इसके अलावा कुछ और भी मुद्दे हैं जिन पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। अदालत के इस आदेश के आलोक में सरकार को उसकी भावना समझनी चाहिए। उसे शिक्षकों के बीच एक सर्वे कराना चाहिए कि क्या वे अपने अध्यापन कार्य की शर्तों से संतुष्ट हैं। मिड डे मील वितरण, स्कूल भवन का निर्माण, प्रधान का दखल, शिक्षा अधिकारियों का दबाव और क्षेत्रीय राजनीति जैसे कई विषय हैं जो पढ़ाई को प्रभावित करते हैं। 
एक और पहलू है कि कुछ शिक्षकों ने शिकमी शिक्षक रख छोड़े हैं जो उनकी जगह अध्यापन करने जाते हैं। इन सब बातों की तरफ सरकार का ध्यान जाना चाहिए लेकिन, इसके लिए लीक से हटकर सोचना होगा। सबसे पहले तो यह समझना होगा कि बच्चों की पढ़ाई से महत्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता।

साभार:- जागरण सम्पादकीय

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