शिक्षा का पहला सिद्धांत है कि जो सही हो वही पढ़ाया जाए, पर इसमें काफी घालमेल होता है।
टीपू सुलतान की जयंती मनाई जाए या नहीं, कर्नाटक में इन दिनों यही चर्चा
का मुद्दा है। सामाजिक-राजनीतिक स्तरों पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या टीपू
का अवदान ऐसा है कि उत्सव के रूप में मनाया जाए? यहां मेरा आशय इस बहस में
जाना नहीं है, बल्कि स्कूल के दिनों के बहाने इससे संबंधित कुछ बातें आपसे
बांटना जरूरी समझता हूं।टीपू नाम से पहला परिचय स्कूल में हुआ था। टीपू को
मैसूर के ऐसे हीरो और शेर के रूप में जाना जाता था, जो ब्रिटिश
साम्राज्यवाद का कट्टर विरोधी था और जिसके साहस, कूटनीति और तकनीकी सूझबूझ
के सामने अंग्रेजों के हौसले फीके पड़ गए थे। टीपू की एक और खूबी पढ़ी थी
कि वह एक विवेकशील शासक था, जिसने कभी धार्मिक भेदभाव नहीं किया। बाद में
जब बेंगलुरु शिफ्ट हुआ, तो धीरे-धीरे टीपू सुल्तान के बारे में ज्यादा
जानने का अवसर मिला। यह भी जानने को मिला कि अन्य शासकों की तरह इस सुल्तान
के खाते में भी कुछ स्याह पन्ने थे। अब तक टीपू के प्रति एक नई और मुकम्मल
तस्वीर बनने लगी थी। सच यह है कि इस नई उभरती तस्वीर के आधार पर आप न तो
उसे सीधे-सीधे ‘हीरो’ बना सकते हैं, और न ‘विलेन’। कहने का आशय यह है कि
टीपू सुल्तान के जीवन के तमाम संदर्भ ऐसे हैं, जिनके आधार पर ही वर्तमान
संदर्भो में अच्छे या बुरे की बात की जानी चाहिए। यानी कि इस
जश्न को मनाया जाए या नहीं, इसके बारे में सोचा जाना चाहिए। दरअसल, स्कूली
शिक्षा टीपू के व्यक्तित्व या जीवन के बारे में मुकम्मल तस्वीर बनाने के
लिए पर्याप्त नहीं थी। स्कूली पढ़ाई के लिए अतीत की किसी कहानी की
पुनर्रचना तो संभव नहीं है, लेकिन टीपू के जीवन के कुछ पन्नों को लेकर कुछ
चूक हुई है। मुङो लगता है कि यह चूक शायद जान-बूझकर की गई होगी। कुछ भी
हो, सच यही है कि टीपू के बारे में हमारे पास अपर्याप्त और एकतरफा जानकारी
है और जो जानकारी नहीं है, वह भी कोई कम महत्वपूर्ण और अप्रासंगिक नहीं है।
शिक्षा का पहला सिद्धांत है कि जो पढ़ाया जाए, वह सही हो। अब यह इतनी मूलभूत बात है कि कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन शिक्षा के मामले में ऐसा घालमेल नया नहीं है। अतीत का महिमामंडन हमारी परंपरा है। भगवान राम के दौर में ‘एयरप्लेन’ उड़ाने का उदाहरण हो या वैदिक काल में ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ का, क्या इनके पीछे कोई तार्किक वैज्ञानिक आधार है? लेकिन उदाहरण तो बिखरे पड़े हैं। ऐसे में,क्या यह जरूरी नहीं कि हमारी शिक्षा प्रणाली में विषय के हर पहलू को प्रस्तुत करने पर जोर दिया जाना चाहिए, न कि उसके एक हिस्से पर।
अब यह सब स्कूली शिक्षा के संदर्भ में भले ही जटिल
लगे, लेकिन ऐसा चलन किसी भी रूप में ठीक नहीं है। एक अच्छे पाठ्यक्रम से ही
सही शैक्षणिक माहौल बन सकता है, और बिना इसके तर्कपूर्ण शिक्षा संभव नहीं
है।
लेखक
अनुराग बेहर
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Post a Comment