प्रतिवर्ष हम बाल दिवस मनाते हैं, किंतु इस आयोजन के साथ हमें बाल विकास के प्रति गंभीर होने की जरूरत है। हमें उन तमाम पहलुओं पर चिंतन करने की जरूरत है, जो बालकों के विकास को अवरुद्ध करते हैं। आज हमारे सामने बालकों के लिए जो सबसे बड़ी समस्या है, वह बाल श्रम है। तमाम कानूनों और कल्याणकारी नीतियों के बावजूद भारत विश्व में बाल श्रम और इन श्रमिकों की गंभीर स्थितियों के मामले में काफी आगे है। यह स्थिति तब है, जबकि भारत संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार घोषणा पत्र का प्रबल समर्थक है। भारत ने 1974 में ही राष्ट्रीय बाल नीति स्वीकार की थी। भारत बच्चों की उत्तरजीविता, संरक्षण और विकास से संबंध विश्व घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर भी कर चुका है। परंतु विडंबना ऐसी कि यहां बच्चों को उनके अधिकार दिलाना तो दूर की बात बाल श्रम पर भी पुरी तरह से प्रतिबंध नहीं लगाया जा सका है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया भर में करीब 21.5 करोड़ बाल श्रमिक हैं, जिनमंे सर्वाधिक संख्या अकेले भारत में है। भारत अपनी 8.9 फीसदी आर्थिक विकास दर के साथ बढ़ता हुआ दुनिया की दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्था बन चुका है। इस बीच बाल बाल श्रमिकों की बढ़ती संख्या सामाजिक क्षेत्र में इसके प्रगति की निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करता है।भारत में बाल श्रमिकों की स्थितियों में सुधार करने और बालकों के अधिकारों की रक्षा के लिए तमाम उपाय किए गए हैं। 

भारतीय संविधान में ही बालकों के अधिकारों की रक्षा और उनको शोषण से बचाने के लिए अनुच्छेद 24 में उन सभी बच्चों को जोखिम वाले काम में नहीं लगाने का निर्देश दिया गया है, जिनकी उम्र 14 वर्ष से कम है। किंतु यह प्रावधान बहुत व्यापक प्रभाव का नहीं है, क्योंकि इस अनुच्छेद में कहा गया है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को खतरनाक कामों में नहीं लगाया जाएगा। किंतु इसमें अस्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि गैर-खतरनाक कामों में उनका लगाया जाना कानून सम्मत होगा। साथ ही खतरनाक कामों के अलावा अन्य कई ऐसे काम हैं, जहां ऐसे बच्चों का मानसिक और शारीरिक शोषण संभव है। 

दूसरी तरफ , हमारे देश में बालकों के प्रति एक समग्र कानून का अभाव है, जिसकी वजह से ही कई तरह के बाल शोषण के मामले जाने अनजाने में होते रहते हैं। हमारे संविधान के अंतर्गत शामिल अनुच्छेद 24, हालांकि मूल अधिकारों के अंतर्गत है, जिसका तात्पर्य है कि इस प्रावधान के उल्लंघन पर कानूनी प्रतिबंध है और जिसके भी अधिकार का हनन हुआ है, वह कानून की शरण में जा सकता है और इसका उपचार प्राप्त कर सकता है। परंतु हमें व्यापक स्तर पर इस अनुच्छेद की अवहेलना करते हुए बाल श्रमिक मिल जाएंगे, यहां तक कि सरकारी दफ्तरों में भी चाय-पानी पहुंचाते बाल श्रमिकों को देखा जा सकता है, जिन्हें आमतौर पर छोटू नाम दे दिया गया होता है। 

संयुक्त राष्ट्र की एक सहायक एजेंसी यूनिसेफ को जिस बाल अधिकारों और बच्चों का संरक्षक माना जाता है, उसी के कार्यक्रम में छोटे बच्चों को लगाया गया है। मैं उस समय यह देख चकित रह गया था, जब 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे पोलियो दवा पिला रहे थे। ये बच्चे राजमार्ग के किनारे कड़ी धूप में हाथों में पोलियो किट उठा कर आने जाने वाली गाड़ियों में बच्चे ढूंढ़ रहे थे, जिन्हें पोलियो की दवा पिलाई जा सके। पूछने पर पता चला कि वे सातवीं कक्षा के छात्र थे, जिन्हें 75 रुपए दैनिक मजदूरी पर इस काम के लिए रखा गया है। इसके लिए उन्हें चिकित्सा पदाधिकारी के हस्ताक्षर से पहचानपत्र भी निर्गत किया गया था। ये सातवीं कक्षा के छात्र, जो 14 वर्ष से कम उम्र के थे, किसी जोखिम वाले काम में तो नहीं थे, परंतु जिस तरीके से उन्हें सरकारी योजना के क्रियान्वयन के लिए उपयोग किया जा रहा था, शर्मिंदा करने के लिए काफी था।

भारत की आबादी 121 करोड़ से ज्यादा हो चुकी है, जहां उससे जुड़ी कई तरह की समस्याएं पैदा हुई हैं। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी का ग्राफ नित नई उचाईयां छू रहा है। परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थता जताते हुए लोग अपने बच्चों को कुछ लालच में किसी न किसी काम में लगा देते हैं। इस तरह की प्रवृत्ति विशाल विघटन का संकेत देती है। आज दिल्ली जैसे महानगर में छोटे-छोटे बच्चे भीख मांगते हुए या कारों के शीशे पोंछते हुए दिख जाते हैं। बड़े होने पर यही बच्चे अपराधी प्रवृत्ति की ओर उन्मुख हो जाते हैं। इन स्थितियों से सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। ऐसी स्थिति न तो सभ्य समाज के लिए सहायक है, न ही स्वस्थ लोकतंत्र के लिए। शिक्षा का स्तर और साक्षरता दोनों से ये बाल श्रमिक दूर हैं। जबतक उनको समुचित शिक्षा और संरक्षा नहीं मिलती है, तब तक समाज में इस प्रकार की विघटनकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता रहेगा। यह वास्तविकता है कि प्रारंभिक फैक्ट्री व्यवस्था बालश्रम पर काफी हद तक निर्भर थी, उसमें छोटे-छोटे बच्चों से अत्यल्प मजदूरी दर पर अधिक काम कराया जाता था। आधुनिक समय में भी इसमें सुधार नहीं हुआ है, उनकी मजदूरी दर भी तय नहीं की जाती है। कहीं-कहीं तो केवल खाना देकर काम कराया जाता है, वह भी पेटभर नहीं।भारत सहित संयुक्त राष्ट्र संघ बच्चों के सवांर्गीण विकास सुनिश्चित करने के लिए कई तरह की योजनाएं प्रस्तावित कर अमल में ला चुके हैं। बच्चों को शिक्षा का अधिकार, शोषण के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार, स्वास्थ्य और देखभाल का अधिकार, विकास का अधिकार आदि दिए गए हैं, परंतु इनका जमीनी स्तर पर कितना प्रयोग होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी पूरे विश्व के 21 करोड़ (जिसमें सर्वाधिक संख्या भारत में है) बाल श्रमिकों की मुक्ति संभव नहीं हो पा रही है। इसके पीछे हमारे समाज की गलत सोच और अकर्मण्यता जिम्मेदार है। सिर्फ गरीबी, अशिक्षा को दोष देना समस्या का हल नहीं है। इस समस्या का स्थाई हल आम जनता की जागरूकता में है। हम केवल सरकारी योजनाओं पर निर्भरता के आदी होते जा रहे हैं।बाल श्रमिक को स्वच्छ सामाजिक परिवेश में समुचित विकास के साथ जोड़ने के लिए एक ठोस दीर्घकालीन नीति बनानी होगी। जिसमें जन भागीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। 

आमजन के बीच सरकारी परिभाषा के अनुरूप शिक्षा देने के बजाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाए, यदि यह भी संभव नहीं हो पाए तो केवल वैसी शिक्षा दी जाए, जिससे केवल व्यक्ति अपने अधिकार व कर्तव्यों को जान पाए। ऐसा होते ही हम बहुत तरह की सामाजिक बुराइयों से निजात पा लेंगे। बालश्रम के विरुद्ध कार्य कर रहे एक व्यक्तित्व को विश्व का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिए जाने से यह संकेत मिला है कि वैश्विक स्तर पर इस बुराई से निजात पाने के प्रति गंभीर वैश्विक पहल आरंभ हो रही है। सरकारी प्रयासों के अलावा हमारे समाज को भी इस वैश्विक सामाजिक बुराई और श्रम के प्रति गंभीर रुख अपनाने की जरूरत है। 

लेखक
गौरव कुमार 
gauravkumarsss1@gmail.com


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