बच्चों का स्कूल जाना बढ़ रहा है, लेकिन उनके स्कूल आवागमन को सुरक्षित बनाने के लिए कुछ नहीं हो रहा।
बीते कुछ साल के दौरान आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है, स्कूलों
में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है। साथ ही स्कूल में ब्लैक बोर्ड, शौचालय,
बिजली, पुस्तकालय जैसे मसलों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं। लेकिन जो सबसे
गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें, इस पर न तो सरकारी
और न ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो रहा है। आए दिन देश भर से स्कूल
आ-जा रहे बच्चों की जान जोखिम में पड़ने के दर्दनाक वाकये सुनाई देते हैं।
परिवहन को अक्सर पुलिस की ही तरह खाकी वर्दी पहनने वाले परिवहन विभाग का
मसला मानकर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। पटना, लखनऊ जैसे राजधानी वाले शहर
ही नहीं, मेरठ, भागलपुर या इंदौर जैसे हजारों शहरों से लेकर कस्बों तक
स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के
सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद
है।राजधानी के धुर पूर्व में उत्तर प्रदेश को छूती एक कॉलोनी है- दिलशाद
गार्डन। दिलशाद गार्डन निम्न और मध्यम लोगों की बड़ी बस्ती है और उसके साथ
ही सीमापुरी, ताहिरपुर, उत्तर प्रदेश के शालीमार गार्डन, राजेंद्र नगर जैसे
इलाके भी हैं। इसके तीन किलोमीटर के क्षेत्रफल में 90 से ज्यादा स्कूल
हैं। अधिकांश निजी हैं। कई 12वीं तक हैं। यहां लगभग 35 हजार बच्चे पढ़ते
हैं। इन स्कूलों की अपनी बसों की संख्या बमुश्किल 20 है, यानी 1,000-1,500
बच्चे इनसे स्कूल आते-जाते हैं। शेष का क्या होता है? यह देखना रोंगटे खड़े
कर देने वाला अनुभव है। सभी स्कूलों में पहुंचने का समय लगभग एक है- सुबह
साढ़े सात से आठ बजे के बीच। यहां की सड़कें हर सुबह वैन, निजी दुपहिया
वाहनों और रिक्शों से भरी होती हैं और महीने में तीन-चार बार यहां घंटों
जाम लगता है। पांच लोगों के बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाइसेंस पाए वैन
में 12 से 15 बच्चे ठुंसे होते हैं। अधिकतम तीन लोगों के बैठने लायक साइकिल
रिक्शे पर लकड़ी की लंबी-सी बेंच लगाकर दो दर्जन बच्चों को बैठाया हुआ
होता है। अब तो पुराने स्कूटर के पीछे तीन पहिये लगाकर नए किस्म के
‘जुगाड़’ सड़क पर देखने को मिल जाते हैं, जिनमें 15 तक बच्चे लादे गए होते
हैं। हालांकि इस किस्म का वाहन गैरकानूनी है, लेकिन न तो अभिभावक इसकी
चिंता करते हैं और न स्कूल।ऐसा नहीं है कि स्कूल की बसें निरापद हैं। 52
सीट वाली बसों में 80 तक बच्चे बैठा लिए जाते हैं। यहां यह भी गौर करना
जरूरी है कि अधिकांश स्कूलों के लिए निजी बसों को किराये पर लेकर बच्चों की
ढुलाई करवाना एक अच्छा मुनाफे का सौदा है। ऐसी बसें स्कूल करने के बाद
किसी रूट पर चार्टेड की तरह चलती हैं। तभी बच्चों को उतारना और फिर
जल्दी-जल्दी अपनी अगली ट्रिप करने की फिराक में ये बसवाले यह ध्यान ही नहीं
रखते हैं कि बच्चों का परिवहन कितना संवेदनशील मसला होता है। और तो और,
ऐसे स्कूल कड़ाके की ठंड में भी अपना समय नहीं बदलते हैं, क्योंकि इससे
उनकी बसों को देर होगी और इन हालात में वे अपने अगले अनुबंध पर नहीं पहुंच
सकेंगे।यह किसी एक इलाके की कहानी नहीं, देश के हर उस शहर की है, जिसकी
आबादी एक लाख के आसपास है।
शहरी संस्कृति में लाख बुराइयों के बावजूद यह अच्छाई तो रही है कि यहां बच्चों को स्कूल भेजना, अच्छे से अच्छे स्कूल में उन्हें पढ़ाना सम्मान की बात मानी जाती है। छोटे शहरों में भी वाहनों की बेतहाशा वृद्धि हुई है।जब सरकार स्कूलों में पंजीयन, शिक्षा की गुणवत्ता, स्कूल परिसर को मनोरंजक और आधुनिक बनाने जैसे कार्य कर रही है, तो बच्चों के स्कूल तक पहुंचने की प्रक्रिया को निरापद बनाना भी प्राथमिकता की सूची में होना चाहिए। इस दिशा में बच्चों के आवागमन के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना, स्कूली बच्चों के लिए प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलाने पर कड़ी सजा का प्रावधान करना जैसे जरूरी काम तो होने ही चाहिए, साथ ही साइकिल रिक्शा जैसे असुरक्षित साधनों पर या तो रोक लगाने या उसके लिए कड़े मानदंड तय किए जाने चाहिए। जितना ध्यान वीआईपी आवागमन पर दिया जाता है, काश, उसका थोड़ा-सा भी बच्चों के आवागमन पर दिया जाए, तो तस्वीर बदल सकती है।
लेखक
पंकज चतुर्वेदी
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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