क पार्टी में गई थी, वहां अन्य मेहमान भी आए हुए थे। उस पार्टी में आए सभी लोगों ने दंगल फिल्म देखी थी, वैसे यह काफी विचित्र बात थी क्योंकि प्राय: इतने सारे और अलग-अलग उम्र के सभी लोगों ने एक ही फिल्म देखी हो। यह फिल्म आज भी मेरे शहर में अपने आठवें सप्ताह में सफलतापूर्वक चल रही है। आजकल फिल्में पुराने जमाने की तरह महीनों नहीं चलतीं। यदि एक महीना भी कोई फिल्म चल गई तो वह सफल फिल्म मानी जाने लगती है। इस फिल्म में सभी कलाकारों का उच्चकोटि का अभिनय प्रशंसनीय था। इस फिल्म ने वैसे कुछ लोगों को बहस का एक विषय भी दे दिया। अत: कई बार लोगों के बीच बहसों के दंगल भी हो जाते हैं। बहस का कारण एक ही है कि क्या माता-पिता को अपने बच्चों के साथ इतनी सख्ती और दबाव का व्यवहार करना चाहिए। मैंने इसी के ऊपर कुछ लेख भी पढ़े, जिसमें फिल्म की प्रशंसा के साथ इस व्यवहार पर प्रश्नचिन्ह लगा था।पार्टी में फिल्म की चर्चा चलते ही एक स्वयंसेवी संस्था की महिला बोल उठीं-फिल्म अच्छी थी किंतु बच्चों पर इतना दबाव डालना अनुचित है। अब हमारा देश स्केडनेवियन देश तो है ही नहीं, जहां बच्चों को डांटने-फटकारने पर भी प्रतिबंध है। पाठकों ने यह समाचार जरूर पढ़ा होगा कि किस प्रकार वहां भारतीय माता-पिता के बच्चों को सोशल केयर पर भेज दिया गया क्योंकि पड़ोसियों का मानना था कि वे बच्चे के साथ उचित व्यवहार नहीं करते। हमारा देश उन देशों की तरह सुविधा संपन्न नहीं है, अत: माता-पिता में सदैव एक भय व्याप्त रहता है कि उनकी संतानें पता नहीं कैसी निकलेंगी। आधे माता-पिता इस चिंता में ही फंसे रहते हैं। इन महिला का कथन था कि फिल्म में पिता ने अपनी बेटियों पर अनावश्यक तथा अत्यधिक दबाव डालकर उस रास्ते पर चलने को बाध्य किया जिस पर वह चलना नहीं चाहती थीं। मैं बड़े ध्यान से सुन रही थी और सोच रही थी कि वास्तविक जीवन में हर माता-पिता अपने बच्चों को सफल देखने के लिए कड़ाई का सहारा लेते हैं।वैसे यह हमारे देश में ही नहीं होता वरन संपूर्ण विश्व के माता-पिता की यह सोच होती है। अनेक विकसित देशों में माता-पिता हमारे देश के अभिभावकों की तरह बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति चिंतित रहते हैं। यह बात दूसरी है कि हमारे देश में अभी भी अनेक अभिभावक इंजीनियर-डॉक्टर-आईएएस के माइंडसेट से बाहर निकल नहीं पाए हैं। फलस्वरूप उन्हें वे सब विषय पढ़ने हैं, जिनमें उनकी रुचि ही नहीं होती और यही कारण है कि जब उन्हें उनकी रुचि के अनुरूप वातावरण नहीं मिलता तो बच्चों में मानसिक दबाव व असफल होने का भय इतना ज्यादा व्याप्त हो जाता है कि वेे नितांत उत्कट कदम उठा लेते हैं और कई बार वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। इधर कई बार कोटा के कोचिंग स्कूल के अनेक विद्यार्थियों ने यह भयावह कदम उठाया। इसका मुख्य कारण है कि माता-पिता अपने बच्चों के रुझान और उनकी सामर्थ्य को समझ ही नहीं पाते। आधुनिक माता-पिता अब इस बात को समझ रहे हैं। मैं बारह वर्ष की एक लड़की से मिली जो ऐसे रोज केक पेस्ट्री बनाती है कि बड़े-बड़े बेकरी भी उसके समक्ष फीके पड़ जाएं, क्योंकि लड़की में स्वाभाविक गुण है। जबकि कई बेकर्स हो सकता है कि मात्र रोजी-रोटी के लिए इस प्रोफेशन में आए हों। उसकी मां ने अपने मोबाइल पर उसके बनाए केक के चित्र दिखाए, मैं अवाक रह गई। उसके माता-पिता अब उसे इसी की पढ़ाई के लिए विदेश भेजने की सोच रहे हैं। पूर्व आकर्षित करने वाली पढ़ाई प्रोफेशन के जाल से लोग बाहर निकल रहे हैं और यह एक अच्छा परिवर्तन है। दंगल फिल्म में यही हुआ। दंगल में पिता ने अपनी दो बड़ी बेटियों को शुरू से ही कुश्ती में नहीं डाला, वह उनके जन्म पर दुखी नहीं हुआ परंतु उसे लगा कि बेटी होने से वह स्वयं तो देश के लिए मेडल नहीं जीत सका, यदि उसके पुत्र होता तो उसे कुश्ती सिखाकर देश के लिए मेडल लाने का स्वप्न पूर्ण कर सकता। पिता की सोच में परिवर्तन तब आया, जब उनकी दोनों बेटियों ने गाली देने के अपराध में एक लड़के को पीट डाला। उन्हें लगा कि गांव में रहकर भी उनमें यदि इतना धाकड़पन तथा शक्ति है तो निश्चित रूप से वे कुश्ती के काबिल हैं। कई बार बच्चों के क्रियाकलापों को, उनकी रूझान-अभिरुचि को देखकर अभिभावक उनके भविष्य के प्रोफेशन का निर्णय करते हैं। आज गीता व बबिता जिस मुकाम पर पहुंची हैं, यदि समय रहते उनके पिता ने उसे न पहचाना होता तो बहुत संभव है कि हरियाणा की ये लड़कियां अन्य लड़कियों की तरह कम उम्र में ही विवाह बंधन में बांध दी जातीं और जिन ऊंचाइयों को ये छू सकीं, वह संभव ही नहीं होता। अब वे साधारण से असाधारण बन चुकी हैं। इन दोनों के मैंने अनेक इंटरव्यू पढ़े और देखे हैं, उन्होंने यह स्वीकार किया कि प्रारंभ में उन्हें यह अच्छा नहीं लगता था। उन्हें लगता था कि वे अन्य ग्रामीण लड़कियों की तरह जिंदगी को जी नहीं पा रही हैं- यानी मनमाना खाना, घूमना, सामाजिक कार्यक्रमों में जाना इत्यादि। लेकिन जैसे वे सफलता की सीढ़ी चढ़ती हुई ऊपर बढ़ने लगीं, उन्हें इस बात का एहसाह ही नहीं रहा कि उनके पिता ने उन्हें कुश्ती में लाकर अनुचित किया। अब उन्हें पहले के अनुशासन को सोचकर हंसी आती है, क्योंकि कुछ भी पाने के लिए अनुशासन प्रथम सोपान है। यही नहीं, उनकी सोच है कि वे अपने पिता की ऋणी हैं, जिनकी लगन, आत्मत्याग के कारण उन्हें वह सब प्राप्त है, जो उनकी उम्र तथा वातावरण की लड़कियों के स्वप्न हैं।दंगल फिल्म बनने से पहले भी वे अपनी पहचान बना चुकी थीं, किंतु वह मात्र खेलकूद की दुनिया तक ही सीमित थी। इस फिल्म ने उन्हें संपूर्ण देश में पहचान दे दी। जगह-जगह उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। लोग उनका आटोग्राफ लेना चाहते हैं। प्राय: कार्यक्रमों में उनसे आग्रह किया जाता है कि वे अपनी सफलता तथा परिवार के सहयोग की कहानी बताएं, जिससे अन्य लड़कियां भी प्रेरित हों। इस संदर्भ में साक्षी मलिक को याद कीजिए, जिन्होंने रियो ओलंपिक में कास्य पदक जीतकर पूरे देश को जश्न मनाने का मौका दिया। उनकी रुचि को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें सुअवसर प्रदान किया, जबकि उनकी बड़ी बहन का विवाह हो चुका था। जिस राजसी ठाठ से हीरों और आभूषणों से सजी साक्षी मलिक अपने विवाह में दिखी, क्या वह सब पहले संभव हो पाता। दीपा करमाकर के पिता ने जिम्नास्टिक की ट्रेनिंग के लिए मात्र छह वर्ष की उम्र में उसे डाल दिया। जो ख्याति उन्हें मिली, वह कभी नहीं मिलती यदि उनके पिता ने उन्हें इस ओर धकेला न होता। बचपन में उन्हें भी अच्छा नहीं लगा, लेकिन धीरे-धीरे वे ऐसी प्रसिद्घ हुईं कि उन्हें हर हिंदुस्तानी जानता है। क्या इन सबके लिए यह माना जाए कि इनके माता-पिता ने इनके साथ अत्याचार किया, ज्यादती की और अंतत: अपने अहम की तुष्टि की। नहीं! क्योंकि हर माता-पिता अपने बच्चों को सुयोग्य बनाना चाहते हैं। अभी हाल ही में भारतीय तबला वादक संदीप दास को ग्रेमी अवार्ड से नवाजा गया। हर भारतीय के लिए यह बड़ा गर्व का विषय है। लेकिन वे कैसे इस मुकाम पर पहुँचे? बचपन से ही स्कूल में टीचर के पढ़ाते समय भी वे डेस्क पर हाथ से बजाते रहते थे और पैर से भी ताल देते रहते थे। टीचर ने इनके पिता को सलाह दी कि वे अपने बेटे को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाएं, क्योंकि पूरी कक्षा को यह डिस्टर्ब करता रहता है। इतनी चंचलता भी एक तरह की बीमारी है। पिता डॉक्टर के पास न जाकर उन्हें एक तबला वादक के पास ले गए। बाद में वे उन्हें तत्कालीन संगीत के गढ़ बनारस ले गए। जहां उनके पिता ने पंडित किशन महराज से अनुरोध किया कि वे उनके पुत्र को तबला की तालीम दें। पंडित जी ने उन्हें अपने संरक्षण में लिया, लेकिन संदीप रहते पटना में थे। अत: उनके पिता उन्हें लगातार चार वर्ष तक प्रत्येक शुक्रवार को शाम की गाड़ी में बिठा देते और वेे बनारस पहुंच जाते। वहां तबले की तालीम मिलती तथा पूर्णत: गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन करते हुए उन्होंने घर के भी काम किए और सोमवार को पटना पहुंचकर अपने स्कूल पढ़ने पहुंच जाते थे। जरा सोचिए कि कितनी मेहनत उन्होंने की होगी। यह जबरदस्ती नहीं थी, बल्कि उनके पिता ने समय रहते उनकी प्रतिभा को पहचान लिया और आज भी विश्व प्रसिद्ध ग्रेमी अवार्ड की सूची में दर्ज हो गए। दूसरी ओर, एक अद्भुत प्रतिभा का कैसे दमन कर दिया गया, यह बुधिया से ज्यादा कौन अनुभव कर सकता है। बुधिया पर भी फिल्म बनी, उसमें लांग रन के लिए असाधारण क्षमता थी। उसके कोच का सपना और विश्वास था कि वह उसे ओलंपिक में भेजे और वह निश्चित रूप से भारत का नाम रोशन करेगा, किंतु उसकी अल्पायु को देखते हुए न जाने कितनी सामाजिक संस्थाओं व बाल कल्याण वालों ने इसे अत्याचार बताया और उसे अंतत: सरकारी संरक्षण में भेज दिया गया। बुधिया मात्र भूली-बिसरी कहानी बनकर रह गया। अब उसे कितने लोग जानते हैं? यदि फिल्म न बनती तो उसे लोग भूल ही गए थे। उससे थोड़ा लोगों ने जाना। बुधिया आज भी गुमनाम जीवन जी रहा है। हमारे देश में हम चाहते हैं कि खिलाड़ी देश के लिए मेडल जीत कर लाएं, लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या होते हुए भी मात्र चंद मेडल ही आ पाते हैं, क्यों? क्योंकि हमारे देश में उस तरह की ट्रेनिंग दी ही नहीं जाती है। रूस, चीन, कोरिया या पूर्वी यूरोपीय देशों की जनसंख्या कम है, लेकिन वे मेडल जीतने में कहीं आगे हैं। इसका कारण है कि उन देशों में बच्चों को पांच-छह वर्ष की उम्र से ही इन स्पोर्टस फैसिलिटीज में माता-पिता डाल देते हैं, जहां वे परिवार से दूर रहकर पढ़ते-लिखते हैं तथा योग्यता के अनुसार उन्हें खेलों की ट्रेनिंग दी जाती है। हमारे देश में यदि इतनी छोटी उम्र से उन्हें इतने अनुशासन में रखा जाए तो न जाने कितने एनजीओ धरना-प्रदर्शन पर बैठ जाएं। कोर्ट में केस दर्ज हो जाएंगे कि उनके बालपन की हत्या की जा रही है। यह सब बच्चों के साथ नहीं होता। उनकी प्रतिभा को ही देखकर वहां लिया है।यह तर्क निराधार है कि फिल्म अच्छी थी, किंतु पिता ने अपनी विफलता के कारण अपनी बेटियों पर अत्यधिक दबाव डालकर उनके बचपने को छीनकर कुश्ती के मैदान में उतार दिया। मेरे विचार से हर माता-पिता को बच्चों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए यदि थोड़ी-बहुत कड़ाई करनी पड़ी तो कोई बुराई नहीं है। 

सच तो यह है कि कोई भी बच्चा एक अनुशासन पूर्ण दिनचर्या पसंद नहीं करता। प्रारंभ में बहुत से बच्चे स्कूल जाने में ही कितनी आनाकानी करते हैं, किंतु माता-पिता फिर भी भेजते हैं। इसी तरह खेलकूद को पढ़ाई की तरह गंभीरता से लेना चाहिए। मैंने बहुत बार अनेक माताओं को कहते हुए सुना है कि वे अपने बच्चों से बड़ी सख्ती से पेश आती थीं। मेरे विचार से इस ग्लानि से माता-पिता और अभिभावकों को नहीं जीना चाहिए, क्योंकि सोना तभी चमकता है जब वह तपाया जाता है। लेकिन याद रखना होगा कि यह सब मार-पीटकर कभी नहीं करना चाहिए। नहीं तो बच्चों में हमेशा के लिए विद्रोह व्याप्त हो जाता है। अति वर्जित होता है।

लेखिका
सविता चौधरी
s161311@gmail.com

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