अलग-अलग बोर्ड के दसवीं-बारहवीं के इम्तेहान सर पर आ गए हैं। 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने की चिंता करने वालों का खून आहिस्ता-आहिस्ता उबल रहा है, वे व्यग्र हुए जा रहे हैं। बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों और कई जगह तो शिक्षकों का तनाव भी बढ़ता जा रहा है। 90 फीसदी की जादुई सीमा तक पहुंचने या उससे भी ऊपर अंक लाने के पीछे बच्चे दिन-रात एक किए हुए हैं। मां-बाप प्यार की झूठी और मीठी गोलियां खिलाए जा रहे हैं और तरह-तरह के प्रलोभन दिए जा रहे हैं। उनके खाने-पीने पर इन दिनों खास ध्यान रखा जा रहा है। मोबाइल, लैपटॉप, स्कूटी, मोटरसाइकिल वगैरह के सपने दिखाए जा रहे हैं और पढ़ाई की मेज पर रखे बच्चे रटंत पुराण को साधने में लगे हुए हैं। जब नतीजे आएंगे तो हरेक 90 परसेंट वाले के पीछे लाखों 60 और 70 परसेंट वालों के मां-बाप भीतर से बुक्का फाड़कर और बाहर से चुपचाप सिसकते दिखाई देंगे। सफल बच्चों के मां-बाप गर्व से धायं-धायं अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर चेपेंगे, लोगों को गर्व से अपने बच्चों की सफलता की गाथा सुनाएंगे, असफल बच्चों को अकेले में चीख-चीखकर और लोगों के सामने दांत पीस-पीसकर कोसा जाएगा। कई बच्चे घर के कोनों में सहमे, दुबके खड़े दिखाई देंगे। पैर के अंगूठों से जमीन खोदते और मन ही मन अपने काल्पनिक देवताओं-देवियों से प्रार्थनाएं करते। यह शिक्षा है या एक क्रूर, निर्मम युद्ध! एक ओर हम समाज में चलने-फिरने, जीने, बोलने में भी खौफ खाते हैं, सच बोलने पर छोटी बच्चियों तक को गालियों से पाट देते हैं और दूसरी ओर उसी समाज में सफल होने पर बल्लियों उछलने लगते हैं। जो असफल बच्चे हैं, उन्हें तो जैसे जीने का हक ही नहीं! हमारे सामाजिक मूल्यों में कितने गहरे विरोधाभास हैं! सफल होने का दबाव किसी विषय को पढ़ने के आनंद को ही छीन ले रहा है। इस समूचे खेल के बीच शिक्षा किस तरह से व्यापार बन गई है, यह भी देखने लायक है। गणित जैसे विषय को लेकर बच्चों में किस तरह से शिक्षकों, कोचिंग संस्थानों और स्कूलों ने मिलजुल कर एक झूठा भय पैदा किया है, इसपर गौर कीजिए जरा। 

गणित बच्चों को समझ नहीं आती और उसे समझना बहुत जरूरी है, यह बात बच्चों के दिमाग में बैठा दी जाती है। कठिन भी है और जरूरी भी, इसके अलावा कोई विषय ही नहीं बचता, किसी विषय को भी लो, कहीं न कहीं गणित का प्रेत सर उठाए मिलेगा....ये बातें बच्चों के मन में ठूंस दी गई हैं। बच्चों को अगर गणित समझ नहीं आती तो दोष किसका है? सिर्फ और सिर्फ शिक्षक का। गौरतलब है कि बच्चा विषय को शिक्षक से अलग करके नहीं देखा पाता। उसके मस्तिष्क का रास्ता उसके दिल से होकर गुजरता है। जो शिक्षक उसके दिल को छूता है, उसका विषय अधिक समझ में आता है! मैंने आठ साल के एक बच्चे के मुंह से एक दिन सुना- मैं हिंदी कभी नहीं पढूंगा। क्यों बेटा? क्योंकि मेरी हिंदी की टीचर बहुत ही निर्दयी है और मैं भी हिंदी पढ़ने पर वैसा ही बन जाऊंगा! यह जवाब था उस बच्चे का। कलेजा बिंध देनेवाली बात है यह। इसी तरह गणित को लेकर एक तो पहले से ही हौव्वा बनाया गया है, उसपर से शिक्षक की अक्षमता उसे और कठिन और भयावह बना देती है।

 बाजार अपने लिए एक बढि़या अवसर देखते हुए इस स्थिति पर टूट पड़ता है और फिर स्कूली पढ़ाई के अलावा कोचिंग का एक व्यवसाय जड़ें जमाने लगता है। अक्सर कई स्कूल अपनी ही कोचिंग भी चलाते हैं। स्कूल में अपर्याप्त और अकुशल शिक्षक नियुक्त किए जाते हैं और फिर अपनी ही कोचिंग में भेजकर बच्चों को बेहतर ढंग से पढ़ाने की व्यवस्था की जाती है। वही शिक्षक जब कोचिंग में पढ़ाता है तो बच्चे को समझा ले जाता है और वही स्कूल में विषय को जटिल बना देता है! हकबकाया-सा अभिभावक जाने-अनजाने में इस साजिश में शामिल हो जाता है। वह साजिश रचता भी है और उसका शिकार भी होता है, पर इससे सबसे अधिक तकलीफ होती है बच्चों को। कई लोग यह मानते हैं कि कोचिंग और प्राइवेट ट्यूशन के जरिए शिक्षा के कारोबार को चलाने के लिए गणित, भौतिकी और रसायन शास्त्र को जानबूझ कर कठिन और जटिल ढंग से पढ़ाया जाता है। गणित ही सबकुछ है, उसपर अपने प्राण लुटाने की भी जरूरत पड़ सकती है, यह बात भी लगातार मिथ्या प्रचार के जरिए एक साजिश के तहत बच्चों के मन में बैठा दी गई है। मार्क्स या अंकों के आधार पर बच्चों की काबिलियत और प्रज्ञा का आकलन कितना क्रूर है, इसकी पीड़ा वही असफल बच्चा समझ सकता है जिसकी तुलना सफल बच्चों के साथ की जाती है। स्कूल, शिक्षक, मां-बाप, कोचिंग संस्थान- सब मिलकर इसमें शामिल हैं। इसी प्रतिस्पर्धा की भावना को लेकर बच्चा जीवन के किसी क्षेत्र में भी जाएगा तो लगातार अपना और दूसरे लोगों का जीवन दूभर बना देगा। हमेशा किसी न किसी के साथ अपनी तुलना करेगा, सफलता की उपासना करेगा, असफलता से कुंठित होगा और अपने बच्चों को भी आखिरकार इसी दुष्चक्र में डाल देगा। 

दूसरों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ जाने की रुग्ण प्रवित्ति में इस मार्क्स-पूजा का बहुत बड़ा योगदान है।कितने मां-बाप बच्चे में भ्रष्टाचार की नींव अच्छे मार्क्स के नाम पर डालते हैं! बच्चे के अवचेतन में यह बात बैठ जाती है कि कुछ करने के लिए अलग से कोई इनाम मिलना जरूरी है। यही तो रिश्वत है! वही बच्चा बड़ा होकर सरकार में जब नौकरी बजाता है तो यही उम्मीद आम जनता से करता है। कुछ करेंगे पर ऊपर से कुछ मिल जाए तो काम जल्दी होगा! इसकी जड़ में अतिरिक्त इनाम देने की आदत है। बच्चे विषय के प्रति प्रेम नहीं रखते, वे भय और लोभ की वजह से पढ़ते हैं और इसलिए उन्हें कोई विषय कभी ठीक से पूरी गहराई के साथ समझ ही नहीं आता।मार्क्स-पूजा इंसानियत के मूल्यों के भी विपरीत है। किसी भी संवेदनशील कोमल हृदय इंसान को दूसरों को पिछाड़ कर खुशी नहीं मिल सकती। 

दूसरा गंभीर मुद्दा है कि यह प्रवृत्ति अंकों या मार्क्स के आधार पर किसी इंसान की कीमत आंकती है। कम मार्क्स पानेवाले बच्चे इंसान के तौर पर बहुत अधिक अच्छे हो सकते हैं, जबकि किसी भी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के जरिए आगे निकलने वाला बहुत ही क्रूर, असहिष्णु और असंवेदनशील हो सकता है। जैसा समाज हमने बनाया है, उसमें निष्ठुर और लोभी हुए बगैर कोई बहुत सफल हो ही नहीं सकता। बच्चे में ये सारी बातें शुरुआत में खुलकर नहीं आतीं, पर इसके बीज मां-बाप और शिक्षक डाल देते हैं। जो असफल है, वह किस चीज में असफल है? पैसे कमाने और शोहरत कमाने में ही न? पर वह अच्छा इंसान तो हो सकता है। अच्छे इंसान से ज्यादा और किसकी जरूरत है समाज को? बच्चा स्वस्थ है, खेल रहा है, हंस रहा है, जीवित है तो और क्या चाहिए! अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बचपन के कलेजे पर चढ़कर पत्थर क्यों कूट रहे हैं हम! कोशिश हम यह करें कि बच्चा अपनी छिपी हुई प्रतिभा को ढूंढ़ निकाले। इम्तेहान में बढि़या अंक इस स्वाभाविक रुचि और प्रेम का सह उत्पाद होंगें। इस असामान्य समाज के मूल्यों पर बच्चा जितने सवाल उठाएगा, जितना इनसे दूर रहेगा, उतना ही खुश, स्वस्थ और सामान्य होगा। सूचनाएं ठूंसकर इम्तेहान में उत्तर पुस्तिका पर उलट देना ही शिक्षा नहीं। जो स्मृति में जितना ज्यादा ठूंसने की क्षमता रखे, वो उतना ज्यादा प्रज्ञावान और बुद्धिमान है, यह सोच अपने आप में ही मूढ़ और कुंठा पैदा करने वाली है। बच्चे ने अच्छा किया तो हल्के में लें और नहीं किया तो कोई आसमान तो नहीं गिर गया! बच्चा स्टॉक मार्केट का शेयर नहीं कि हमने निवेश किया और शेयर डूब गया तो पांचवी मंजिल से छलांग लगा ली! इस संसार में सबसे सृजनशील, प्यारे, प्रतिभाशाली और प्रज्ञावान बहुतेरे ऐसे लोग भी हुए जो स्कूल तक नहीं गए। ऐसे लोग हर क्षेत्र में मिलेंगे। कुछ तो बहुत ही बड़े काम कर गए और कई लोग भले ही गुमनाम रह गए पर बहुत ही खुश हैं, बहुत ही समझदारी और संतुलन के साथ जीवन बिता रहे हैं।

लेखक
चैतन्य नागर  
chaitanyanagar@gmail.com

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