र शैक्षिक संस्था का एक अनुशासन होता है साथ ही एक मजबूत प्रबंध तंत्र होता है विद्यालय का प्रधानाचार्य ही तय करता है कि विद्यालय को कुशलता से संचालित करने के लिए कौन से कदम उठाये जाने हितकर हैं। किसी भी क्षेत्र में जब हम शैक्षिक संस्थानों की बात करते हैं तो उस क्षेत्र के लोग सहज ही किसी एक संस्था का नाम लेना गौरव समझते हैं साथ ही उस संस्था को बुलंदी तक पहुँचाने के लिए किसी एक व्यक्ति के कार्यकाल की प्रशंसा करते नजर आते है। वास्तव में यही वह व्यक्ति होता है जिसके समर्पण निष्ठा ईमानदारी और कुशल नेतृत्व की बजह से वह संस्था पूरे क्षेत्र में अग्रणी बन जाती है।
         अच्छा प्रबंधन किसी भी संस्था की उन्नति का मूल कारण होता है इसी को ध्यान में रखकर पिछले 2 दशक से प्रबंधन से सम्बंधित पाठ्यक्रमों में काफी इजाफा हुआ है बाबजूद इसके शोध साबित करते हैं कि प्रबंधन एक नैसर्गिक प्रतिभा ही है जो किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत क्षमता मानी जा सकती है। शिक्षा क्षेत्र में भी प्रबंधन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी किसी व्यावसायिक संस्था को। आज के दौर में बेसिक शिक्षा के पतन के कुछ कारणों में से एक प्रबंधन की कमी भी माना जा सकता है।
          प्राथमिक शिक्षा में प्रबंधन का दायित्व अन्य शैक्षिक संस्थाओं की तरह ही प्रधानाध्यापक के जिम्मे होता है पर बेसिक शिक्षा के लाखों विद्यालयों में अभी तक एक पूर्णकालिक प्रधानाध्यापक तक नहीं है किसी तरह इंचार्ज या अल्पकालिक अध्यापक ही इन विद्यालयों में जिम्मेदारी का निर्वहन करने को मजबूर है एक माध्यमिक विद्यालय से इतर प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध न्यूनतम स्टाफ में कई कक्षाओं के शिक्षण,मध्यान्ह भोजन, सूचना सम्प्रेषण आदि कार्यों को निपटाता प्रधानध्यापक केवल नाम का ही प्रधानाध्यापक कहलाता है। ऐसे में किसी प्राइमरी विद्यालय में उसको पद के अनुरूप कभी भी सम्मान नहीं मिल सकता है। 

प्रधानाध्यापक को लिपिक चपरासी रसोइया शिक्षक डाकिया आदि के काम स्वयं ही निपटाने होते हैं जिससे उसके मूल पद की गरिमा विद्यालय के अन्दर ही ख़त्म हो जाती है। चूँकि बेसिक शिक्षा के विद्यालयों में विद्यालय सञ्चालन के 90 प्रतिशत से अधिक आदेश बी आर सी और एन पी आर सी द्वारा ही नियंत्रित किये जाते हैं इसलिए विद्यालय प्रबंधन की योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन गैर प्रासंगिक ही लगता है।

         निजी या मान्यता प्राप्त विद्यालयों से इतर सरकारी विद्यालयों में प्रधानाध्यापक कोई भी निर्णय लेने को स्वतंत्र नहीं होता है विद्यालय की रंगाई पुताई ,मध्यान्ह भोजन का मीनू , भौतिक संसाधन जुटाने की व्यवस्था, परीक्षा सञ्चालन आदि दिए गए निर्देशों के अनुरूप कराने की बाध्यता के कारण प्रधानाध्यापक की मौलिक चिंतन क्षमता लगभग ख़त्म ही हो जाती है। वह ऐसे में उससे स्कूल के रचनात्मक सञ्चालन की उम्मीद करना व्यर्थ ही लगता है। इसके विपरीत निजी विद्यालय अपनी आवश्यकता और इच्छाओं के साथ स्वयं की योजनाओं को बनाने और उन्हें लागू करने के लिए स्वतंत्र होते हैं भौतिक संसाधन जुटाने के लिए उन्हें स्वतंत्रता होती है इसलिए वहां परिवर्तन शीघ्र ही दिखाई देने लगते हैं जिसका साफ असर छात्र क्षमता की ब्रद्धि के साथ दिखाई देना शुरू हो जाता है।
     कोई भी सिस्टम एक साथ हजारों विद्यालयों को एक साथ नियंत्रित नहीं कर सकता हैं पर बेसिक शिक्षा विभाग लगातार कई दशकों तक ऐसा करने की कोशिश कर रहा है। एक तरफ शासन अधिकारों को विकेन्द्रित करने की कोशिश में लगा है वही शिक्षा विभाग लगातार अधिकारों को केन्द्रित करने की कोशिश कर रहा है। आवश्यकता है कि विद्यालयों में गुणवत्ता की जबाबदेही के साथ विद्यालय में प्रबंधन की स्वायत्ता भी हो। न्यूनतम सुविधाओं के साथ अधिकतम संप्राप्ति की कल्पना तभी सार्थक हो सकती है जब विद्यालय में पर्याप्त मानव संसाधन के साथ प्रधानाध्यापक के रूप में स्वतंत्र और सशक्त प्रबंधन भी हो।
लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन
सहायक अध्यापक
महामंत्री टीचर्स क्लब उत्तर प्रदेश
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