मित्रों, हम सब का देश आज स्वतंत्र गणतन्त्र है जहाँ एक संवैधानिक लिखित व्यवस्था के तहत सबको जीवन जीने के समान और सम्मान के सम्मानित अधिकार प्राप्त हैं। संविधान में शायद ही ऐसी कहीं कोई पंक्ति, किसी को लिखी मिले, जो किसी वर्ग या समाज का संरक्षण न करती हो। फिर ऐसा कौन सा कारण है? कौन हैं ऐसे लोग? जो स्वतंत्र भारत में पैदा हुए बच्चों के मन में यह हीनता का भाव कि तुम कमजोर हो, दलित हो, गरीब हो, सामान्य जाति हो, पिछड़ी जाति हो, अनुसूचित जाति हो आदि को भरकर संघर्ष, सम्मान और सकारात्मक सोच की जगह, हताशा, निराशा और जीवन समाप्त तक पहुँचाने की नकारात्मक उर्जा को कूट-कूट कर भर देते हैं। जहाँ से वह निकल ही नहीं पाता और वह अवसाद के  दु:खद अन्त का रास्ता चुनता है। क्या देश में कोई दूसरा संविधान लागू है? जो बेबस कर देता है यहाँ तक पहुँचने के लिए। यदि है तो घटना घटित होने से पहले उसका खुलासा, उसका समाधान क्यों नहीं??? जो आज चिल्ला रहे, वह कल कहाँ थे???

शायद यहाँ तक पहुँचाने वाले वह हम सब जिम्मेदार हैं फिर चाहें वह किसी जाति के हों या धर्म के अथवा उसके परिवार के लोग, सामाजिक परिवेश के लोग या सामाजिक विघटन, जाति-धर्म पर आम आदमी को बांटकर स्वार्थ और सत्ता की राजनीति करने वाले तथाकथित राजनेता और बुद्धिजीवी शिक्षक और मित्र भी हो सकते हैं, न कि देश और स्वतंत्र भारत का भारतीय संविधान या अन्य केवल वह नाम या संज्ञाएं जिन पर घटना के बाद उँगली उठती। क्योंकि यही वह लोग हैं जो बच्चे को जन्म के बाद बताते हैं कि तुम क्या हो? तुम कौन हो? तुम्हारा इतिहास क्या है? तुम चार पीढ़ी पहले क्या थे? अथवा तुम्हें यही बनना होगा तुम्हारा हक अमुक लोग के कारण नहीं मिल पाता आदि-आदि अनेकों आकांक्षाओं और उपेक्षाओं के साथ भूत और भविष्य की अनिश्चिताओं और द्वन्दात्मक परिस्थितियों के बीच फंसा कर अदृश्य और अनावश्यक भय और डिप्रेशन पैदा कर देना।

जिनमें सबसे अधिक और पहला दोष हम बच्चों के परिवार व समाज को देते हैं जिन्होंने बच्चों को कभी यह नहीं बताया सिखाया कि तुम जाति नहीं हो, धर्म नहीं हो, दलित नहीं हो, दबे नहीं हो, कुचले नहीं हो, तुम्हारा हक कर्तव्य और मेहनत में ही निहित है। तुम भारतीय समाज के सर्वोच्च नागरिक हो, जहाँ जीवन जीने का सभी को समान शक्ति और अधिकार प्राप्त हैं। यहाँ तुम अपने स्वप्न का जीवन स्वतंत्रता पूर्वक जीने के अधिकारी हो।

दूसरा दोषी है बच्चे का सामाजिक परिवेश जो आजादी के पहले के परिवेश को अपने क्षणिक राजनैतिक स्वार्थ के लिए वीरता, मानवता और समानता का अहसास कराने की जगह गढ़े मुर्दों के भूतकाल का काल्पनिक भय का इतिहास बता- बता कर नफरत और नकारात्मकता की ओर जीवन जीने की दिशा में पहुँचा देते हैं। जबकि वर्तमान और आने वाले भविष्य में उसका मनुष्य के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है, जिस बच्चे के जीवन में संघर्ष और सकारात्मकता की शक्ति होनी चाहिए थी। वहाँ असमानता और असहजता की जड़ें इतनी गहरी जमा दीं कि वह बड़ा, वयस्क और समझदार होने तक भी वहाँ से नहीं निकल पाता है जिससे उसे दुनिया काली, कलंकित और बहुत छोटी सीमित दायरे में नजर आने लगती है जबकि सच्चाई इसके विपरीत होती है।

पूरे देश का खुला आकाश उसका है उसके स्वतंत्र उड़ान भरने का आकाश है। वह उड़ने का प्रयास तो करे, संघर्ष तो करे, अपनी मेहनत और कर्तव्य की शक्ति को तो पहचाने उसे कोई रोक नहीं सकता है। वह निश्चित रूप से एक दिन उड़ कर दिखायेगा आदि-आदि अनेकों प्रेरित और प्रोत्साहित करने के काम हो सकते हैं अथवा उसको क्यों नहीं सिखाया बताया गया कि तुम स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च नागरिक हो, यह देश तुम्हारा है तुम इसे अपने सपनों का देश बना सकते हो, जहांँ प्रेम और प्रोत्साहन से सभी भारतीय एक साथ राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक हैं। इसके बाद हम बच्चों के मित्रों और शिक्षकों को भी कुछ अंश तक दोषी मानते हैं जिन्होंने परिवार और सामाजिक परिवेश से प्राप्त नकारात्मक सोच की विभेदकारी मानसिकता को, महापुरुषों की कहानियों, प्रेरक प्रसंगों, प्रेम और प्रोत्साहन से सफाई करने में सहयोग नहीं किया। 

यदि प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक के शिक्षक और बच्चे के मित्र इस बात का दृढ़ संकल्प कर लें कि बच्चों में सम्मान, समानता, सकारात्मक सोच की शक्ति को इतना भर देगें कि हमारा विद्यार्थी प्रत्येक विषम परिस्थितियों में संघर्ष कर जीवन जीने का नया रास्ता बनाने की शक्ति रखेगा। लेकिन किसी को दोषी मानकर आत्महत्या जैसा दुखद रास्ता नहीं चुनेगा।
इसलिए हम उन तथाकथित बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों, राजनीतिज्ञों और अभिभावकों से निवेदन करते हैं, जो ढोल आप किसी दुखद घटना के घटित होने पर पीटते हैं वह अगर बच्चों के जीवन निर्माण में पीट लें, जिससे उनके अन्दर संकीर्ण सोच की जगह, जीवन जीने की विस्तृत विचारों की सकारात्मक सोच पैदा हो जाये। तथा उसमें जीवन- जीने की शक्ति पैदा हो जाये। और उसे विश्वास हो समानता के सिद्धान्त के नायक डॉ० भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित भारतीय संविधान पर जिसे उन्होंने रात दिन की तपती तपस्या से लिखा है। और सिखाया है कि-- “शिक्षा मनुष्य को सम्मान से जीना सिखाती है न कि मरना।„

नोट:- जब इस देश के किसी विद्यार्थी के साथ इस तरह की घटना घटित होती है मन बहुत दुखी हो जाता है, जो सोचने और न चाहते हुए भी कुछ कहने और करने को मजबूर कर देता है कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, लेकिन हमने सभी के साथ भेद रहित जीवन जीते हुए, जो अनुभव किया उसे लिखा।फिर भी यदि हमारे लिखे शब्द किसी को कष्टप्रद लगें। तो हम क्षमा चाहेंगे। क्योंकि हमारा उद्देश्य कष्ट पहुँचाना नहीं बल्कि भेद रहित शिक्षित समाज का निर्माण करना हैं।

जय हिन्द!
जय शिक्षक!
लेखक
विमल कुमार
कानपुर देहात
मिशन शिक्षण संवाद उ० प्र०



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  1. जिम्मेदारी भरा लेख। चिंतन करने योग्य

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