मैं पुरानी पेंशन, जीवनपर्यंत एक सामाजिक प्राणी की पूर्ण निष्ठा , ईमानदारी से की गयी सेवा के उपरान्त अंत में उसकी आजीविका को चलाने हेतु प्रोत्साहन स्वरूप दी जाने वाली छोटी सी राशि, जो उस प्राणी को वर्तमान समय के बदलते परिवेश, विचारधारा व संस्कृति जोकि वृद्धाश्रम की और बढ़ते कदमों को न केवल सामाजिक अपितु आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान करती थी ।
वर्ष 2004 में कुछ नेताओं ने एक वर्ग विशेष को लाभान्वित करने हेतु मुझे समाप्त कर एक बाजारू उत्पाद को समस्त सरकारी कर्मचारियों पर जबरदस्ती थोप दिया ।
ऐसा करना काफी कठिन था, किन्तु मेरे समाज के चंद ठेकेदारों, सफेदपोश नेताओ, व अपनी ही आगामी पीढ़ी से विश्वासघात करने वाले उक्त समय के समस्त संघो के प्रतिनिधियों ने मेरा, आने वाली पीढ़ी के बुढापे की लाठी का सौदा कर दिया ।
मुझे हताशा हुई की कैसे ये चन्द लोग अपने ही बच्चो, रिश्तेदारों, आगामी पीढ़ी के भविष्य का सौदा भारतीय संसद में मेज को थप-थपाकर कर सकते थे । उनकी छाती उस समय क्यों फट नही गयी, कैसे उनके वो हाथ मेज को पीट कर सहमति प्रदान कर रहे थे ।
मेरे हृदय से बस आह निकल रही थी, मैं न चाह कर भी अपनी भीगी पलकों से उन हृदयहीन सफेदपोशों के ठहाकों को सुन रही थी । ओह, मेरे देश के कर्णधारो, तुम सभी ने मिलकर तुम पर पूर्ण विश्वास करने वाले कर्मचारियों के भविष्य का सौदा कैसे कर दिया ? यह वैसे ही प्रतीत हुआ जैसे किसी जिस्म के सौदागर ने खुद के घर की इज्जत को बाजार मे सरेआम नीलाम कर दिया हो ।
वाह रे, मेरे भारत देश क्या ऐसे नेतृत्वकर्ताओं के भरोसे तुझे महानतम देश की संज्ञा दी जा सकती है ?
जिस देश में ऐसे नेतृत्वकर्ता होंगे वो भला कैसे विकास की और अग्रसर हो सकता है ?
उक्त समयाकालीन सरकार द्वारा मुझे बन्द करने के पीछे आर्थिक बोझ रूपी झूठी भ्रामक दलील पेश की गयी ।

मैं सोचती हूं यदि मैं घाटे का सौदा हूँ तो ये संसद या विधानसभा में जीवन मे मात्र एक दिन पहुचने मात्र पर मेरे रूप में एक मोटी राशि हर क्यों पाते है ???
क्या भारतीय संविधान के किसी अनुच्छेद में असमानता का ऐसा उल्लेख किसी ने देखा है ?
एक ही देश के नागरिकों के लिए  अलग-अलग नियम, ये कैसा न्याय है ?

पुनः यदि मैं घाटे का सौदा हूँ तो देश की सेवा कर रहे मेरे सेना के वीर जवानों को ही क्यों मुझसे लाभान्वित किया जा रहा है ???

क्या उन लोगो को भी इस नए बाजारू, अधिक उत्पादन वाले सौदे से आच्छादित नही किया जाना चाहिए था ?

क्यों देश की रक्षा कर रहे मेरे कर्णधारो को इस सौदे से वंचित है ?

यदि नया बाजारू सौदा इतना अच्छा था तो मेरे देश के नीति निर्धारक ये सफेदपोश क्यों उस सौदे से वंचित है?  उनको भी उसी बाजारू सौदे से लाभान्वित होना चाहिए था ।

सभी जानते है कि उस समयाकालीन  सरकार ने सफ़ेद कपड़ो की भांति सभी के समक्ष सफ़ेद झूठ कहा था जबकि प्रतेय्क माह अपनी मजदूरी से एक अंश को एक कर्मचारी 30 से 35 वर्ष की लंबी अवधि तक कटौती स्वरुप सरकारी खाते में एक मोटी कमाई को देता है ।
जबकि वर्तमान बाजारू प्लान (NPS) में सरकार को एक फूटी कौड़ी भी सरकारी खाते में प्राप्त नही होती है, उस राशि से ये लाभान्वित बाजारू कम्पनियां अपना बचत खाता व अपनी जेब को और अधिक मजबूत करेंगी ।

वाह रे मेरे नीति निर्धारकों..... शर्म आती है देश के सम्मानित पदों पर बैठे सफेदपोश लोगो पर...... जिन्होंने लोकतंत्र की हत्या कर भोले भाले कर्मचारियों के सपनों से खिलवाड़ किया ।

कभी-कभी मैं एकांत में सोचने पर मजबूर होती हूँ कि सभी संघो के सर्वोच्च पद पर आसीन उन नेतृत्वकर्ताओ की क्या गन्दी मंशा रही होगी ?

शायद उन्होंने सोचा होगा कि अरे हमे तो पुरानी पेंशन मिल रही है, बाकी जिसका नुकसान हो वो जाने ?

क्या उन्होंने सरकारी दस्तावेजो पर मोहर लगाने से पहले खुद के जमीर को बेच दिया था ?

क्या कागज के चंद नोटों के सामने उन्हें अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य धूमित होता नजर नही आया ?

ऐसे बहुत से प्रश्न मेरे मन में बिजली की भांति कौंधते रहते है, जिनका शायद अब कोई हल ही नही है...... बस मेरे मन मे ये टीस शायद यूँ ही बनी रहेगी ।

क्या अब मेरा नाम इतिहास के पन्नो में ही लिखा दिखाई देगा.........और मेरे हृदय में बस आह निकलती रहेगी ।
लेखक
ड़ा0 अनुज कुमार राठी
(कलम का सच्चा सिपाही)
आप जनपद शामली के प्राथमिक विद्यालय में कार्यरत है और अपनी लेखन क्षमता से नीरस मुद्दे में जान फूंकने का कार्य कर रहे है ।

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