रात को सोने से ठीक पहले आम शहरी परिवार के लोगों में सबसे बड़ी चिंता रहती है कि कल सुबह बच्चों को स्कूल जाना है, जल्दी उठना है, टिफिन बनाना है। थके मांदे मां-बाप भी ठीक से नहीं सो पाते और देर रात तक पढ़ाई, होमवर्क, एसयूपीडब्लू का अनावश्यक काम, टीवी, विडियो गेम्स के बाद बच्चे भी पूरी नींद नहीं ले पाते। कैसे लेंगे भी। इसलिए बदलती हुई परिस्थितियों में सुबह शुरू होने वाले स्कूल के समय पर फिर से विचार करना बहुत जरूरी है। मां-बाप चाहे नौकरीपेशे में हों या व्यापार में, शहरों में शायद ही कोई परिवार होगा, जो रात 11-12 बजे से पहले सोने के लिए तैयार हो पाता हो। दुर्भाग्य से भारतीय परिवारों में देर रात खाए जाने वाले डिनर का बहुत महत्व होता है और वही दिन का सबसे भारी और गरिष्ठ भोजन होता है। भोजन के साथ टीवी भी चलता है, और नहीं तो लोग अपने-अपने मोबाइल्स पर व्यस्त रहते हैं। कुल मिलाकर भारी भोजन, देर तक जागना और फिर सुबह जल्दी उठना...यह सब कुछ बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास पर बहुत ही बुरा असर डालता है, पर इसका अहसास उसे तीस वर्ष की उम्र के बाद ही हो पाता है। अचानक रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियां उसे धर दबोचती हैं, पर इन व्याधियों की नींव बचपन में ही पड़ जाती है। इस तरह की जीवन शैली में जंक फूड की उपस्थिति रही-सही कसर पूरी कर डालती है। 

किसी विचारक ने सही ही कहा है कि स्कूल जाने से पहले तक ही हम मानव होते हैं और उसके बाद एक मशीन बन जाते हैं। मानव का मशीन होना त्रासद है और वास्तव में वह कभी भी पूरी तरह एक यंत्र बन ही नहीं सकता और इसलिए वह लगातार एक आतंरिक क्लेश से गुजरता रहता है। अपने भीतर के इंसान और उसे मशीन बनाने पर तुले समूचे समाज के बीच होने वाले कलह के बीच वह फंस जाता है। कोई ऐसी रुग्णता जरूर है हमारे भीतर, जिसने अच्छे खासे जीवन को एक युद्ध में परिणत कर दिया है, और एक गुत्थी के बाद दूसरी गुत्थी पैदा करना और उसे उलझाना जैसे मन की फितरत बन चुकी है। सभ्यता के विकास के साथ हम ज्यादा सरल नहीं, बल्कि जटिल जीवन की तरह बढ़ रहे हैं। 

 चिकित्सा विज्ञान के जानकार बताते हैं कि सुबह का नाश्ता सबसे महत्वपूर्ण भोजन होता है। रात भर का उपवास यानी फास्ट उससे टूटता है, ब्रेक होता है और इसीलिए इसे ब्रेकफास्ट कहा जाता है। देर रात में सोकर, किसी तरह सुबह उठने वाला बच्चे स्कूल जाने की जल्दी में चैन से बैठ कर नाश्ता नहीं कर पाता और फिर उसे स्कूल में 11 बजे के आसपास लगभग 15 मिनट का अवकाश मिलता है। अपने दोस्तों के साथ बात-चीत करने का और खेलने का भी यही दुर्लभ समय होता है उसके पास। ऐसे में बच्चे अक्सर अपना टिफिन खाना या तो भूल जाते हैं, या उनका दिल ही नहीं करता। जब खेलकूद, दोस्तों और भोजन के बीच चुनाव करना हो तो वे स्वाभाविक रूप से दोस्तों को चुनते हैं। अब आप बच्चे के स्वास्थ्य पर इसका असर देखें। देर रात को भारी भोजन करने के बाद उसके अगले दिन करीब 2 से 3 बजे तक बच्चा कुछ नहीं खाता। इस दौरान वह मानसिक और शारीरिक श्रम भी करता है। जब वह खासकर गर्मी के दिनों में, घर वापस लौटता है तो उसे भूख नहीं, चिड़चिड़ाहट महसूस होती है। उसके रक्त में शुगर का स्तर भी कम हो जाता है और फिर दिन में जब वह बेमन खाता है तो यह स्तर अचानक बढ़ता है। दो भोजन के बीच इतना बड़ा फासला बिलकुल नहीं होना चाहिए। अचानक घटते और बढ़ते शर्करा के स्तर से शरीर और मस्तिष्क पर भी बुरा असर पड़ता है और कोई साधारण सा डॉक्टर भी इस बारे में विस्तार से जानकारी दे सकता है। दूसरी बड़ी समस्या नींद को लेकर है। बच्चे जब बड़े होते हैं तो उनके शरीर में मेलाटोनिन नाम के हार्मोन का स्राव देर में शुरू होता है, यानी देर रात के आसपास। इसकी वजह से उन्हें जल्दी सोने में दिक्कत होती है। जब वे देर से सोते हैं तो स्कूल जाने तक उनकी आठ या नौ घंटे की नींद पूरी नहीं हो पाती और यह नींद की कमी उनकी एकाग्रता, भूख और समूचे स्वास्थ्य पर ही असर डालती है। सुबह-सुबह ये जो स्कूल मुंह बाए खड़े हो जाते हैं, वे बच्चों के सबसे बड़े शत्रुओं में हैं। यह समय तभी निर्धारित हुआ था, जब सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां अलग थीं, कुदरत की घड़ी के साथ रोजमर्रा के जीवन में थोडा तालमेल था, अब तो बत्तियां जला लें तो कभी रात होगी ही नहीं, कभी आपके काम और मनोरंजन का चरखा बंद ही नहीं हो सकता। ऐसे में जरूरी है कि स्कूल के समय को कम से कम आधे घंटे के लिए ही सही, बढ़ा दिया जाए। इससे भी बहुत अधिक असर पड़ेगा। स्कूल कम से कम साढ़े आठ बजे शुरू होने चाहिए और दो बजे तक बिलकुल बंद कर दिए जाने चाहिए। यह समय सर्दियों और गर्मियों दोनों ऋतुओं के लिए सही साबित होगा। गर्मी में हो सके तो स्कूल को एक बजे तक ही चलने दिया जाए, पर खुलने का समय वही बना रहे। नींद को लेकर एक और अजीब घटना होती है। बच्चों को उठने के लिए इतनी बार कहा जाता है कि सोने को लेकर उनके भीतर एक अपराध बोध पैदा हो जाता है। जब वे सोते हैं, तो उन्हें लगता है वे कोई गलत काम कर रहे हैं। स्कूलों में होने वाली असेंबली भी एक अहमकाना रस्म की तरह मनाई जाती है। शहर में मुख्यधार के किसी स्कूल में हजारों बच्चे होते हैं। इतने बच्चों और शिक्षकों के लिए एक विराट हॉल बनाना न ही स्कूल जरूरी समझता है और न ही उसके लिए शायद मुमकिन हो। ऐसे में बच्चों को चिलचिलाती धूप में भी बाहर खुले मैदान में खड़ा कर दिया जाता है और कोई न कोई प्रार्थना करवाई जाती है। बेहतर है उनसे अलग-अलग कवियों और गीतकारों के गीत गवाएं जाएं, साथ में शिक्षक भी गाएं। उन्हें खुद ही बड़े होने पर चुनने दिया जाए कि उन्हें किस ईश्वर की पूजा-आराधना करनी है और करनी है भी या नहीं। संगीत और दो पल के मौन के साथ दिन की शुरुआत करना बेहतर है। वैज्ञानिक सोच विकसित करना ज्यादा जरूरी है, न कि किसी परंपरा को बगैर किसी सवाल के लगातार दोहराते जाना। बचपन से ही यह आदत डाल दी जाए तो आगे चल कर बच्चों के तर्कशील और रैशनल होने की संभावना बढ़ेगी। ये बहुत बड़े परिवर्तन नहीं, न ही इनके लिए बहुत ज्यादा धन खर्च करने की जरूरत है। बस थोड़ी बहुत सोच बदलने की आवश्यकता है। एक तरफ सभ्यता के क्षेत्र में हम कहां से कहां पहुंच गए हैं और बच्चों की परवरिश के बारे में हम हाथियों से भी नहीं सीख पाए! इसके बारे में ज्यादा जानकारी के लिए आप पढ़ें कि हथिनियां मिल-जुलकर अपने बच्चों को कैसे बड़ा करती हैं। शिक्षा और स्कूल के बीच भी एक खाई पैदा हो गई है। अमेरिकी व्यंगकार मार्क ट्वेन याद आते हैं, जिन्होंने कहा था- मैंने स्कूल को अपनी शिक्षा में कभी दखल नहीं देने दिया!

लेखक
चैतन्य नागर
chaitanyanagar@gmail.com
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