ए सत्र की शुरुआत ही वह समय है, जब शिक्षक, शिक्षार्थी और सरकार तीनों के सामने अपनी पृथक-पृथक चुनौती होती है। शिक्षक को जहां न्यूनतम कक्षा में नए छात्र मिलते हैं, वही उच्च कक्षा के छात्रों की याद भी आती है। शिक्षार्थी के सामने नए पाठ्यक्रम को समझना तो शासन के पास नई योजनाओं के क्रियान्वयन की चुनौती होती है। विगत वर्षों में शिक्षा की अहमियत को समझते हुए नींव को मजबूत करने के क्रम में प्राथमिक शिक्षा के सुधार के लिए बहुत से महत्वपूर्ण कार्य शासन और समुदाय दोनों की तरफ से किए गए हैं, परंतु सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी देश में प्राथमिक शिक्षा के स्तर में सुधार के कोई लक्षण नजर नहीं आ रहे हैं। शिक्षा की इस स्थिति की पुष्टि समय-समय पर होने वाले विभिन्न अध्ययनों से होती भी रही है। ज्यादातर रिपोर्ट बताती हैं कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से स्कूली बच्चों के नामांकन में खासी वृद्धि हुई है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। यह माना जा सकता है कि वर्तमान में देश में 6 से 14 वर्ष की उम्र के 96 फीसदी से भी अधिक बच्चों के नामांकन हो चुके हैं, परंतु सरकारी स्कूलों की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में बच्चों का नामांकन प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी विद्यालयों की स्थिति ऐसी है कि वह अपना विश्वास खोते जा रहे हैं। आज देखा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के भी अभिभावक सरकारी की जगह निजी स्कूलों को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई अच्छी होती है। दरअसल, हकीकत तो यह है कि कहीं न कहीं राजनीतिक प्रभुत्व के दबाव में वर्तमान में जिस तरह से शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दिया जाता रहा है, उससे सरकारी शिक्षा व्यवस्था को किनारे होना ही है। सरकारी शिक्षा को लेकर आमजन के मन में जो छवि बनी हुई है, उससे कोई भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहता और जो भेजते भी हैं, वे ट्यूशन का सहारा ले रहे हैं। 
भारत उदारीकरण का एक दौर पूरा कर चुका है और अब इसमें आगे बढ़ने की गुंजाइश तभी होगी, जब हम ज्ञान और समझ आधारित समाज की तरफ आगे बढ़ेंगे। यह किसी हद तक सही है कि शिक्षा के ढांचे को सुधारने की जिम्मेदारी राज्यों की ही है, परंतु शिक्षा के अधिकार कानून के प्रभावी होने के कई वर्षों के बाद भी राज्य सरकारें गंभीर नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो हालात और भी ज्यादा बुरे है, यहां सपा सरकार द्वारा लाखों की संख्या में पूर्ण योग्यताधारी होने के बाद भी महज इंटरमीडिएट पास शिक्षामित्रों को समायोजन का तोहफा दिया गया। ऐसे में देश की प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता का अनुमान स्वत: ही लगाया जा सकता है।पहले तो राज्यों में केवल सरकारी स्कूल ही हुआ करते थे और उनमें से निकले बच्चे प्रत्येक क्षेत्रों में सफलता का परचम लहराते थे, इसलिए यह कहना गलत होगा कि पढ़ाई का स्तर केवल प्राइवेट स्कूलों में ही अच्छा है। यदि सरकार ध्यान दे और शिक्षकों का सही ढंग से और जरूरत के अनुरूप चयन करे तो वर्तमान स्थिति को सुधारा जा सकता है। 
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यान्ह भोजन, निशुल्क यूनिफार्म, साइकिल व छात्रवृत्ति इत्यादि के लालच से सरकारी स्कूलों में प्रवेश बढ़े हैं, परंतु सवाल यह उठता है कि क्या प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य मात्र स्कूलों में प्रवेश वृद्धि तक ही सीमित रहना चाहिए। बहरहाल, देश के प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में योग्य व प्रतिबद्ध शिक्षकों और इसके बुनियादी तंत्र को श्रेष्ठता के आधार पर विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा सड़ी-गली सरकारी बुनियादी शिक्षा में नवीनता के साथ में बड़े परिवर्तन लाने की भी खासी आवश्यकता है। प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है, माध्यमिक शिक्षा उस विकास की रीढ़ को स्तंभित करने का माध्यम है और उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास को उत्कृष्टता की ओर ले जाने का जरिया है। आज उच्च शिक्षा के स्तर में भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिसका कहीं न कहीं कारण यह भी है कि उस शिक्षा का आधार ही मजबूत नहीं है तो उस कमजोर आधार पर मजबूत और ऊंची मीनार कैसे खड़ी हो सके। आखिर प्राथमिक शिक्षा के सुधरे बगैर उच्च शिक्षा की स्थिति अच्छी कैसे हो सकती है। देश के सरकारी स्कूलों से पब्लिक स्कूलों में बच्चों का लगातार बढ़ता पलायन तथा ट्यूशन की बढ़ती प्रवृत्ति बुनियादी शिक्षा को कमजोर बना रही है। सरकारी स्कूलों का तो हाल यह है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला छात्र दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक से नहीं पढ़ पाता है। केंद्र व राज्य सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद भी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई भी सुधार नहीं आया है। अब वह समय आ गया है कि शिक्षा की गुणवत्ता को सर्वाधिक अहमियत दी जानी चाहिए। नए सत्र के प्रारंभ में हम सभी यह सोच लें कि अपना शत प्रतिशत देकर हम शिक्षा में जबरदस्त परिवर्तन कर देंगे तो कुछ भी असंभव नहीं है। निश्चित ही हमें सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे, बस प्रयास की जरूरत है। 1992 से पहले प्राथमिक शिक्षा या यह कहें कि सरकारी प्राथमिक शिक्षा में पर्याप्त भौतिक सुविधाओं के न होने पर भी भौतिक दशा व शैक्षणिक माहौल काफी बेहतर रहा। इसके पूर्व तक समाज में सरकारी के साथ-साथ प्राइवेट विद्यालय भी संचालित थे, पर प्राइवेट और कान्वेंट में लोग सिर्फ संपन्नता व अंग्रेजी माध्यम के कारण ही भेजते थे। तब ट्यूशन जाना बिलकुल वैसे ही था, जैसे आज डॉक्टर के पास मरीज का जाना होता है। वर्ष 1992 के आसपास बड़े पैमाने पर शिक्षकों का रिटायरमेंट हुआ, जिससे बड़े पैमाने पर शिक्षकों के पद रिक्त हुए और सरकार ने वर्ष 1997 तक लगातार खाली होते पदों को भरने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। नतीजतन ज्यादातर विद्यालय एकल या अध्यापक विहीन की स्थिति में आ गए। सरकार से यही सबसे बड़ी गलती हुई, क्योंकि जब पांच अध्यापकों के एक विद्यालय से एक अध्यापक रिटायर होता है और तुरंत ही नया अध्यापक आ जाता है तो आने वाला अध्यापक उस विद्यालय के बने बनाए माहौल में खुद को ढाल लेता है और विद्यालयीय परिवेशीय व शैक्षणिक परंपरा बनी रहती है। सरकार ने इसमें देर की तथा वर्षों के बने बनाए माहौल को मृत होने तक भर्ती में देर की। जब नई भर्ती हुई तो एकल अध्यापकीय विद्यालय में अध्यापक को मिले 28 रजिस्टर, 5 कक्षाएं और 200 की छात्र संख्या। फलत: शिक्षा का जो होना था, वही हुआ। यही वो समय था, जब शिक्षा के प्रति जागरूक अभिभावकों ने अध्यापक से इस पर प्रश्न किया तो जवाब के रूप में एकल अध्यापक ने 28 रजिस्टर, 5 कक्षा व 200 की छात्र संख्या उसके सामने रख दी। राजनीतिक जागरूकता के अभाव में उस अभिभावक ने सरकार से अध्यापक नहीं मांगा, बल्कि वह अपने बच्चे के लिए कहीं और भविष्य तलाशने लगा। यही वह समय था, जब प्राइवेट स्कूलों की पौ बारह थी। शिक्षा नीतियों में बदलाव और बदहाली का सार्वजनिक तराना गाकर सरकारी स्कूलों की मिट्टी पलीद करते हुए हर गली-कूचे में प्राइवेट स्कूल संचालित होने लगे।1999 आते-आते शिक्षा आधारित व्यवसाय पर आश्रित रहने वाला अभिभावक व उसके बच्चे सरकारी स्कूल से दूर हो चुके थे। विद्यालय में अध्यापक व छात्र दोनों ही कम हो चुके थे। अब उस अभिभावक की निष्ठा कहीं से भी सरकारी विद्यालयों के प्रति नहीं रही। सर्व शिक्षा अभियान के तहत छात्रवृत्ति व मुफ्त अनाज का लालच देकर ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया। अत: इन सुविधाओं के लालच में नामांकन तो बढ़ा पर विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप नहीं बदल सका। यद्यपि ये एक सच है कि भारत में पढ़ने वाले सभी बच्चे सरकारी नौकरी नहीं पा सकते, न ही डॉक्टर इंजीनियर ही बन सकते हैं, विशेषकर सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक अपनी आर्थिक स्थिति के कारण महंगी शिक्षा से दूर ही रहेंगे। अब प्रश्न ये उठता है कि हम इन आठ वर्षों में ऐसा क्या सिखाते हैं कि विद्यालय से बाहर जाकर यदि वो पढ़ाई छोड़ देता है तो इस अवधि में सीखे गए ज्ञान का प्रयोग कर वह अपना बेहतर जीवन जी सकें।दूसरी तरफ सच यह भी है कि आज अगर अध्यापक चाहता भी है कि पढ़ाई सही तरीके से हो तो प्रशासन और सरकार कहीं न कहीं व्यवधान उत्पन्न कर देते हैं। जो संगठन, व्यक्ति या सरकार यह कहती है कि बात सही नहीं है, उन्हीं से मेरा सीधा सा सवाल है कि जब सरकार के पास सालभर में 50 लाख रुपए खर्च करने के लिए प्रधान व सेक्रेटरी है तो मात्र लाख, दो लाख रुपए छात्रवृत्ति, ड्रेस व पुताई के लिए प्रधानाध्यापक के खाते में देकर उस शिक्षक को अपने पठन-पाठन के मूल उद्देश्य से भटकाया क्यों जाता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के सुधार और सरकारी विद्यालयों में बेहतर माहौल बनाने के लिए पर्याप्त अध्यापक व जरूरत आधारित ज्ञानोपयोगी पाठ्यक्रम, विद्यालयों के प्रति सामाजिक सकारात्मकता, अध्यापकों को गैर-शैक्षणिक कायोंर् से मुक्ति व अध्यापकों का विद्यालय व शैक्षणिक कार्य के प्रति स्वत: समर्पण तथा अधिकारियों के शोषण से शिक्षकों की सुरक्षा तथा शिक्षक व विद्यालय के अच्छे कार्यों की सराहना व प्रचार-प्रसार अति आवश्यक है। यदि ऐसा संभव किया जा सके तो परिणाम बहुत ही सुखद और भविष्य के लिए लाभप्रद होंगे।

लेखक
दीपक मिश्र राजू 
dm9450286407@gmail.com

 
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