अध्ययन बता रहे हैं कि बाकी दुनिया की तरह भारत के भी एक चौथाई बच्चे अवसाद से ग्रस्त हैं।


वसाद अब बड़ों की व्याधि नहीं रही, वह बच्चों की भी गिरफ्त में ले रही है। हाल ही में ‘दक्षिण पूर्व एशिया में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति : कार्रवाई का सबूत’ नामक, विश्व स्वास्थ्य की रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि भारत में 13-15 साल के उम्र के हर चार बच्चों में से एक बच्च अवसाद से ग्रस्त है और आठ प्रतिशत किशोर चिंता की वजह से बैचेनी का शिकार हैं, वे सो नहीं पाते, इतने ही प्रतिशत बच्चे ज्यादातर समय या हमेशा अकेलापन महसूस करते हैं। रिपोर्ट में चौंकाने वाली बात यह भी पता चलती है, बड़ी संख्या में भारतीय बच्चों ने माता-पिता के उनके साथ कम घनिष्ठता की शिकायत की है। शोध लगातार इशारा कर रहे हैं कि बच्चों के भविष्य को लेकर परिजनों का जरूरत से ज्यादा संवेदनशील होना बच्चों को अवसाद की गिरफ्त में धकेल रहा है। बच्चों पर मानसिक दबाव का कारण, माता-पिता से निरंतर कम होता संवाद तो है ही, कामकाजी माता-पिता द्वारा बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाने की स्थिति में, विभिन्न माध्यमों से हर समय बच्चों पर नजर रखने की आदत, जिसे मनोविशेषज्ञ ‘हैलीकॉप्टर पैरेंटिंग’ की संज्ञा दे रहे हैं, उन्हें अवसाद की ओर धकेल रही है। स्पष्ट सा कारण है कि जिस रिश्ते से सबसे अधिक भवनात्मक संबलता और विश्वास मिलना चाहिए, वहां रिश्तों का यांत्रिक होना, बच्चों के आत्मविश्वास को तोड़ रहा है। लगातार पढ़ने का दबाव, बच्चों में चिन्ता और तनाव का खतरनाक स्तर पैदा कर रहा है। यह हाल भारत का ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों का भी है। अमेरिका की सेंट लुई यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रोसेफर स्टुअर्ट स्लेविन का अध्ययन भी यही बता कर रहा है। उन्होंने जब हाईस्कूल के छात्रों में तनाव और चिंता का सर्वे किया तो पाया कि 54 प्रतिशत छात्रों में तनाव के लक्षण और 80 प्रतिशत में चिंता के लक्षण मध्यम से गंभीर थे। अमूमन यह स्थिति विश्व भर में बनी हुई। शिक्षा के जुड़ी अपेक्षाएं नियंत्रण से बाहर हो रही हैं। बच्चे सात घंटे से ज्यादा समय स्कूल में बिताते हैं, रात में होमवर्क करते हैं, खेलकूद, म्यूजिक क्लास और इस तरह की गतिविधियों का निरंतर दबाव उन पर बना रहता है। हर गतिविधि में श्रेष्ठता, बेहतर से बेहतर कॉलेज में एडमिशन, बढ़िया जॉब और सफल जीवन की भौतिकता से भरी परिभाषा, उनको इस कदर घुट्टी की तरह पिला दी जाती है कि वह छटपटा रहे हैं पर बेबस हैं। बच्चों को अधिकार सम्पन्न और काबिल बनाने की बजाय परवरिश का यह तरीका, उनकी सेहत पर असर डाल रहा है, उनकी क्षमताएं निरंतर घट रही हैं।

शिक्षकों और अभिभावकों का दबाव इस कदर बढ़ गया है कि चार पांच साल के बच्चे भी भयभीत से रहते हैं। ‘अवसाद’ पर निरंतर चर्चा करती दुनिया इस पहलू को शायद नजरअंदाज कर बैठी है कि ‘अवसाद’ एकाएक नहीं आता। इसकी शुरूआत तो बचपन से ही हो जाती है जो परत दर परत किशोरावस्था तक इतनी मजबूत हो जाती है कि बच्चे, आत्महत्या जैसा घातक कदम भी उठा लेते हैं। वर्ष 2015 के आत्महत्या के आंकड़े बता रहे हैं कि हमारे देश में हर घंटे औसतन एक छात्र खुदकुशी करता है। यह एक चेतावनी है, न सिर्फ अभिभावकों को बल्कि संपूर्ण समाज और शिक्षा व्यवस्था को। स्कूल के अध्यापकों और अभिभावकों को बैठ कर बच्चों की मनोस्थिति का विश्लेषण करना होगा। 

होमवर्क कितना हो, वीकेंड व छुट्टियों में होमवर्क नहीं दिया जाये, बच्चों के साथ कठोरता से पेश न आया जाए, यह कुछ विषय हैं, जिन पर चर्चा करना आवश्यक है। इस दिशा में हरियाणा सरकार ने एक अच्छी पहल की है। आगामी सत्र से राज्य के 50 स्कूलों में, छात्रों को बैग लेकर स्कूल नहीं जाना होगा। उनकी किताबें स्कूल में ही रखी जाएंगी, जिससे बच्चों पर घर पर होमवर्क का दबाव न रहे। इसके अलावा ‘क्लास रेडीनेस प्रोग्राम’ के तहत खेलों के जरिए छात्रों को पढ़ाने की भी तैयारी है। अगर इस तरह की पद्धति, संपूर्ण देश की शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा बन जाए तो यकीन बच्चे दबावमुक्त माहौल में पढ़ सकेंगे। अभिभावकों को भी यह समझना होगा कि बच्चे उनसे प्यार, भरोसे और प्रोत्साहन की अपेक्षा रखते हैं और इनमें कमी उन्हें, बीमार कर रही है।

लेखिका 
ऋतु सारस्वत
समाजशास्त्री
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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