वैकल्पिक शिक्षा की बात होती है तो रुडोल्फ स्टायनर के नाम का जिक्र अक्सर होता है। संयोग से पिछले हफ्ते ही जर्मनी की शिक्षक क्रिस्टीना हेर्जोजेंरथ से मुलाकात हुई। वह बर्लिन के एक रुडोल्फ स्टायनर स्कूल में पढ़ाती हैं। स्टायनर ऑस्ट्रिया में जन्मे एक दार्शनिक थे और शिक्षा के क्षत्र में उन्होंने कुछ अनूठे प्रयोग किए। पूरी दुनिया में उनके नाम पर चलने वाले हजारों स्कूल हैं। स्टायनर मानते थे कि हर सात वर्ष में इंसान पूरी तरह बदल जाता है। यह एक आश्चर्य की बात है कि उनका निधन 1925 में हुआ, पर यह बात आज के जीवविज्ञानी भी मानते हैं कि इंसान की समूची देह ही हर सात वर्ष में बदल जाती है, उसकी पूरी त्वचा भी! उनके स्कूलों में बच्चों को सात वर्ष की उम्र में ही दाखिला दिया जाता है। नौ वर्ष की उम्र में उन्हें घर बनाना सिखाया जाता है। पहली और आठवीं कक्षा तक सिर्फ एक ही शिक्षक उन्हें पढ़ाता है- करीब चालीस बच्चों को, और सबसे खास बात यह है कि इन स्कूलों में कोई भी किताब नहीं होती। शिक्षक अपनी समझ और जानकारी के लिए किसी पुस्तक का इस्तेमाल जरूर कर सकता है, पर छात्रों को कोई भी किताब अपने साथ नहीं रखनी होती। स्टायनर के स्कूलों में अधिक मेधावी और मंदबुद्धि या फिर किसी मानसिक रुग्णता के शिकार बच्चों को भी अलग-अलग श्रेणी में नहीं रखा जाता। वे सभी एक ही क्लास में एक साथ पढ़ते हैं। क्रिस्टीना बताती हैं कि उनकी पढ़ाई की शुरुआत ही होती है कम से कम दो विदेशी भाषाओं की सीख के साथ। इसका अर्थ है कि अपनी मातृभाषा के अलावा उन्हें दो और भाषाएं सीखनी होती हैं। स्टायनर के दर्शन को एंथ्रोपोसॉफी के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है मानव की प्रज्ञा। इसके जरिए एक छात्र अपने और साथ ही दुनिया के बारे में गहरा ज्ञान हासिल कर सकता है। यह ज्ञान उसकी खुद की आध्यात्मिकता और समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त आध्यात्मिकता के बीच एक सेतु का काम करता है। हैदराबाद, बेंगलुरु, मुंबई और पुणे में भी प्रतिष्ठित स्टायनर स्कूल हैं।इटली में जन्मी मारिया मोंटेसरी एक चिकित्सक थीं और साथ ही एक महान शिक्षाविद भी और उन्होंने वैज्ञानिक तरीके से पढ़ाने के तरीकों पर खूब चिंतन किया। उनके दर्शन के आधार पर आज दुनिया में हजारों स्कूल हैं जो मॉन्टेसरी स्कूल के नाम से विख्यात हैं और उनके दर्शन पर ही आधारित हैं। उनका कहना है- किसी शिक्षक की सफलता का सबसे बड़ा सबूत है कि वह यह कह सके कि बच्चे अब वैसे ही काम कर पा रहे हैं मानो उसका यानी शिक्षक का कोई अस्तित्व ही न हो!

भारत में सैकड़ों मोंटेसरी स्कूल हैं और इनमें लखनऊ, दिल्ली, चेन्नई के स्कूल देश के सबसे अच्छे स्कूलों में शामिल हैं। मोंटेसरी स्कूल में इस बात पर अधिक जोर होता है कि बच्चे एक-दूसरे की मदद से, आपस में मिलजुल कर पढ़ें, एक अच्छे सौंदर्यपूर्ण प्राकृतिक माहौल का उनकी शिक्षा में योगदान हो, पर शिक्षक की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण न रहे। इस पद्धति में एक शैक्षिक त्रिकोण निर्मित होता है जिसके तीन बिंदुओं पर शिक्षक, छात्र और प्राकृतिक वातावरण होते हैं। 

कक्षा का उद्देश्य होता है स्वतंत्रता और व्यवस्था दोनों का माहौल साथ-साथ निर्मित करना। बच्चा जरूरत पड़ने पर शिक्षक के साथ बातचीत करता है, उससे निर्देशन पाता है। अलग-अलग उम्र के बच्चों का साथ-साथ पढ़ना मोंटेसरी स्कूल की खासियत है। छोटे बच्चे बड़े बच्चों से सीखते हैं और बड़े बच्चे सीखते हैं पढ़ाने के तरीकों के बारे में। स्कूल के भीतर की दुनिया बाहरी दुनिया के समान ही होती है, जहां लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर काम करते हैं और सीखते हैं। इन बड़े प्रयोगों के अलावा हमारे देश में वैकल्पिक शिक्षा के कई प्रयोग समय-समय पर किए गए हैं। श्रीअरविंद के ऑरो विल में भी अनूठे ढंग की शिक्षा दी जाती है। प्रवेश के समय ही बच्चों से जो फॉर्म भरवाए जाते हैं, उनमें लिखा होता है कि यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा समाज में एक बहुत ही सफल व्यक्ति बने तो बेहतर है कि आप उसे यहां दाखिला न दिलवाएं! हर बच्चे पर चार या पांच शिक्षक होते हैं जो कि मुख्यधारा के स्कूलों में तो कल्पनातीत है, क्योंकि वहां हर शिक्षक को करीब 60 बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी जाती है। शिक्षक किसी छात्र का नाम भी नहीं जान पाता, उसके साथ गहरे आत्मीय संबंध बनाना तो दूर। स्वाभाविक है वहां किसी वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में सोचने का न ही वक्त होता है और न ही पर्याप्त मानसिक अवकाश। महर्षि अरविंद का यह मानना है कि सही शिक्षा का पहला सिद्धांत यह है कि कुछ भी पढ़ाया ही नहीं जा सकता। उनका यह भी मानना है कि ज्ञान बच्चे में पहले से ही उपस्थित होता है और इसलिए शिक्षक सिर्फ उसे उद्घाटित होने में मदद कर सकता है। उसका काम है हिदायत देना, न कि कोई ज्ञान थोपना। वह बच्चे को ज्ञान देता नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि खुद से ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाए।इन स्कूलों की दिक्कत यह है कि या तो इनकी फीस अधिक होती है या तो आम माता-पिता इस तरह की शिक्षा में रुचि नहीं लेते या फिर इनमें दाखिला मुश्किल होता है। सबको बुनियादी शिक्षा उपलब्ध करवाने के तरह-तरह के सरकारी कार्यक्रमों में इस तरह के स्कूल ज्यादा मददगार साबित नहीं होते। ये संस्थान और इनके संस्थापकों ने शिक्षा के गहरे अर्थों की खोज की और उन्हें लोगों के साथ साझा किया, अपने संसाधनों और दूसरों की मदद से ऐसे संस्थान स्थापित किए जहां इनकी अंतरदृष्टियों के साथ प्रयोग किए जा सकें। इसके बावजूद इनकी पहुँच सीमित ही है। वैकल्पिक शिक्षा के संबंध में जे. कृष्णमूर्ति का उल्लेख आवश्यक है। उनके पांच आवासीय स्कूल आज हिंदुस्तान के दस सबसे अच्छे स्कूलों में गिने जाते हैं। बहुत बड़े इलाके में होने के बावजूद उनमें बारहवीं कक्षा तक सिर्फ साढ़े तीन सौ बच्चों को ही रखा जाता है। आकार में इनकी पांच प्रतिशत जमीन पर भी मुख्यधारा के स्कूल में पांच हजार बच्चे देखे जाते हैं। कृष्णमूर्ति के स्कूलों में हर पांच बच्चों के लिए एक शिक्षक होता है। वह बच्चे के समेकित, सर्वांगीण विकास की बात करते हैं। शिक्षा में प्रकृति के योगदान को महत्व देते हैं। बस इतना ही कहा जा सकता है कि कृष्णमूर्ति बच्चे और शिक्षक की मनोदशा को समझने पर बहुत जोर देते हैं। बाह्य को वह आंतरिकता की ही अभिव्यक्ति मानते हैं और इसलिए लगातार खुद को समझने पर जोर देते हैं। उनके अनुसार शिक्षा छात्र और शिक्षक के बीच एक सहयात्रा है और इसका उद्देश्य है प्रज्ञा का जगना और अच्छाई का खिलना। प्रज्ञा और अच्छाई में वह कोई फर्क नहीं करते। एक बार जब एक शिक्षक ने उनसे पूछा कि किसी शिक्षक को आपके स्कूल में पढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए तो इसपर उन्होंने विस्तार से बताया। शिक्षक ने कहा कि हो सके तो आप इसे संक्षेप में बताएं। दूसरी बार बताए जाने पर शिक्षक ने फिर कहा कि आप यदि हो सके तो एक ही वाक्य में इसे बताएं। कृष्णमूर्ति ने कहा- यदि हो सके तो यह सीखें और बच्चों को भी सिखाएं कि वे तुरंत प्रतिक्रिया न करें। किसी भी प्रतिक्रिया के पहले थोड़ा रुकें। हालांकि कृष्णमूर्ति के विचार से अकादमिक उत्कृष्टता पर कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए, पर ज्यादा जोर शिक्षक और छात्र को एक-दूसरे के बीच पनपते संबंधों पर देना चाहिए। अच्छी शिक्षा संबंधों की सही समझ का सहउत्पाद मात्र होती है। कृष्णमूर्ति ने वस्तुपरक अवलोकन और श्रवण पर भी बहुत जोर दिया है। कृष्णमूर्ति के स्कूलों में सजा और पुरस्कार तो दूर, एक छात्र की दूसरे के साथ तुलना भी नहीं की जाती।

लेखक
चैतन्य नागर
chaitanyanagar@gmail.com



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