क महोदय परिषदीय विद्यालय में शिक्षक हैं। उनकी माता जी गंभीर रूप से बीमार चल रही थीं, जिनके इलाज हेतु उन्हें दस दिन के लिए अवकाश चाहिए था। मास्टरजी ने साहब को प्रार्थनापत्र लिखा और अवकाश की स्वीकृति मांगी। परंतु साहब ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि आकस्मिक अवकाश के अलावा और किसी प्रकार के अवकाश की स्वीकृति का आदेश नहीं है। तो उन्होंने उपार्जित अवकाश का हवाला देते हुए अनुरोध किया। साहब ने यह कह कर असमर्थता प्रकट कर दी कि,"तुम्हारे गैर शैक्षणिक कार्यों का कोई विवरण विभाग के पास नहीं है। यह अवकाश तभी स्वीकृत हो पायेगा जब तुम प्रमाण सहित शासनादेश प्रस्तुत करोगे।" मरते क्या न करते! अब मास्टरजी के पास स्वयं ही फ़र्ज़ी बीमार पड़ने के अलावा और कोई चारा न था। सो उन्होंने एक चिकित्सक से अपनी समस्या बताते हुए बीमारी का प्रमाण पत्र बनवा लिया। और फ़र्ज़ी प्रार्थनापत्र स्वीकृत कराने की जद्दोजहद में लग गए। शिक्षक संघ के एक प्रभावशाली नेता से मिले जो अद्ध्यापकों का काम चुटकियों में करवा देते थे। नेता जी ने दम भरते हुए आश्वासन दिया और मास्टर जी का अवकाश स्वीकृत करवा दिया।
               ऐसी कितनी ही विवशताएँ एक आम शिक्षक के सम्मुख आती हैं जिसके समाधान के लिए उसे शिक्षक नेताओं का सहारा लेना पड़ता है। जब नेताजी ने मास्टरजी का सहयोग किया तो, मास्टरजी का अगले चुनाव में नेता जी का सहयोग करना लाज़मी था। मास्टरजी नेताजी को पुनः जितवाने में पूरे मनोयोग से लग गए और उनकी सोच पर राजनीति हावी हो गयी? "कि बिना राजनीति किये नौकरी करना संभव नहीं है।"ऐसे कई शिक्षक कड़ी दर कड़ी जुड़ते गये और संघ बन गया। शिक्षक राजनीति अपना प्रभाव बढ़ाने लगी। 

राजनीति ऐसा क्षेत्र है जहाँ लोगों को अपने अधिकार संरक्षित दिखाई देते हैं। शिक्षक बनने के बाद एक आम व्यक्ति पर आदर्शवादी और नैतिकता का मुलम्मा चढ़ जाता है। समाज उससे पौराणिक काल के गुरुओं की तरह भिक्षाटन करके जीवकोपार्जन करने की अपेक्षा करता है।  शिक्षक को मिलने वाली मोटी तनख्वाह लोगों की आँखों में खटकने लगती है। लोगों को शिक्षक से शिकायतें होने लगती हैं। वो भूल जाते हैं कि शिक्षक भी उन्हीं की तरह कलियुगी इंसान है। यही भय उसे राजनीति की शरण में ले जाता है, जहाँ अध्यापक के बचाव में तमाम तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। सरकारी सिस्टम और संसाधनों की कमी का हवाला दिया जाता है। शिक्षक की मजबूरियां बताई जाती हैं। जिससे वो खुद को एक सुरक्षित जोन में महसूस करने लगता है। 

शिक्षक राजनीति स्थानीय, प्रदेश व देश की राजनीति को भी प्रभावित करती है, इसके आकर्षण का एक मुख्य कारण यह भी है। मानव का नैसर्गिक स्वभाव है कि, सुरक्षा कवच में आने के बाद वह अत्यंत दुष्कर  दायित्वों से बचने लगता है। जिसके दुष्परिणाम विद्यालयों में दिखाई देने लगते हैं।
       अध्यापक शैक्षिक कार्यों और स्कूल प्रबंधन हेतु स्वतंत्र नहीं है। उसे कई ऐसे शासनादेशों का पालन करवाना होता है जो व्यवहारिक रूप से चुनौतीपूर्ण होते हैं। तब वह डर जाता है और किसी भी प्रशासनिक कार्यवाही से बचने के लिये संगठन के नेताओं का सहारा लेता है। यहीं अगर विभाग विद्यालय विकास योजना पर गंभीरता से कार्य करे, अध्यापक के कार्यों का मूल्यांकन सच्चाई और पारदर्शिता से हो, उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं का यथोचित व न्यायोचित समाधान हो सके तो शिक्षक को राजनीति करने की कोई आवश्यकता नही होगी।
      निःसंदेह आज भी शिक्षक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और सदचरित्र है। लेकिन वह शासनादेशों से बंधा हुआ है और अपने बचाव में सच्चाई ढकने को मजबूर है। शैक्षिक उन्नयन हेतु विद्यालयों का राजनीतिकरण रोकना अति आवश्यक है। यह तभी संभव है जब शासन विद्यालय व अध्यापकों की समस्याओं का धरातल पर अनुश्रवण करके योजनाएं बनाये। केवल तुगलकी फरमानों से ढाक के तीन पात ही दिखाई देंगे।

लेखिका
कविता तिवारी,
प्र0 अ0,
प्राथमिक विद्यालय गाजीपुर प्रथम,
जनपद फतेहपुर।

Enter Your E-MAIL for Free Updates :   

Post a Comment

 
Top