समय किस और जा रहा है, वक्त कैसे अपना रंग दिखा रहा है कुछ समझ ही न आ रहा । हमारी पहली पीढियां संस्कारों से ओतप्रोत थीं। जैसे - जैसे पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी हो रही है वैसे ही "संस्कार" नाम से तो युवा पीढ़ी का कोई रिश्ता नाता ही नही रहा है । मुझे याद है कि मेरे दादा जी जब किसी मुद्दे पर अपनी राय परिवार के समक्ष रखते थे तो कभी किसी परिवार के सदस्य ने उनके किसी फैसले का विरोध नहीं किया क्योंकि समय व अनुभवों से दादा जी का हरेक फैसला 100% सही होता था। आज मैं अनेको परिवारों को देखता हूँ, जहाँ यदि कोई बुजुर्ग किसी मत पर अपनी राय रखे तो मेरे युवा साथी उनकी बातों को या तो अनसुना कर देते हैं या यह बोलकर फैसला दरकिनार कर दिया जाता है कि उक्त बूढ़े का दिमाग सठिया गया है।
मन मे प्रश्न कौंधता है कि क्या सच मे बुढ़ापे की अवस्था में ऐसे अकस्मात परिवर्तन हमारे शरीर मे पैदा होंगे? क्या हमारा भी दिमाग सठिया जाएगा?
मेरे पड़ोस के श्री सुरेंद्र जी (काल्पनिक नाम) का रिटायर होने से पूर्व का जीवन बड़े ऐशो आराम में व्यतीत हुआ था । अच्छी सैलेरी थी, घर मे एक बेटा, बेटी व धर्मपत्नी जी सभी खुश रहते थे। बड़ी बेटी की शादी बड़ी धूमधाम व अच्छे दहेज के साथ शर्मा जी ने सम्पन्न कराई थी। छोटा बेटा भी दिल्ली में किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करता था, अभी पिछले साल उसकी भी शादी कर दी गयी। बेटे को शर्मा जी ने अपनी जमापूँजी से नोएडा में एक अच्छा फ्लैट खरीद कर दिया। शर्मा जी का अभी कुछ समय पहले रिटायरमेंट हुआ था, अभी तक सब कुछ ठीक था किंतु पिछले कुछ समय से शर्मा जी कुछ परेशानी में दिख रहे थे। धर्मपत्नी व शर्मा जी नोएडा से अपने बेटे के पास कुछ समय व्यतीत कर वापस आये थे। उनका चेहरा उनके मनमस्तिष्क में चल रहे असमंजस रूपी ढेरों प्रश्नों के हल को तलाश रहा था। मैं उनके मन को टटोलने का प्रयास करने लगा। आखिरकार दु:ख उनकी जुबान पर आ ही गया। बेटे को पूरी जिंदगी की कमाई व फंड रूपी बचत से फ्लैट दिलवा दिया था, सोचा था कि बुढ़ापा बेटे के साथ आसानी से यूँ ही आनंद से कट जाएगा। किन्तु जब मैं व धर्मपत्नी उसके पास रहने के लिए गये तो सब कुछ मानो बर्बाद हो गया था। बेटे व बहू को माँ नही घर की नौकरानी चाहिए जो हर समय उन दोनों की सेवा में समर्पित रहे । अपनी माँ से तो बहू बेटे को कुछ फायदा होता प्रतीत हुआ किन्तु मैं तो उनके लिए किसी काम का भी न था ........ इतना कहते हुए शर्मा जी के आँखों में आँसू भर आये, उनकी जुबान को मानो लकवा मार गया था। उनके मन से बेटे को शुभाशीष नहीं उसके प्रति गुस्सा साफ दिखाई दे रहा था .......... शर्मा जी अब ओल्ड होम में रहते हैं। अब वह अपनी आजीविका चलाने के लिए पन्सारी के यहां मुनीम की 2000 रु की नौकरी करते हैं। धर्मपत्नी उन पैसों से जैसे तैसे समय गुजार रही है... ......
आह..... कैसी विडंबना है ये ..... कैसे कपूत आज इस कलयुग में पैदा हो रहे है। अब शर्मा जी की जिंदगी ने मेरी रातो की नींद समाप्त कर दी। कहीं मेरे व धर्मपत्नी के साथ भी ऐसा न हो...... यही सोच-सोचकर आज पूरी रात करवट बदलते हुए बीत गयी। काश..... शर्मा जी के पास बुढ़ापे की गुजर हेतु कोई स्रोत होता तो शायद उन्हें इतना कष्ट न उठाना पड़ता.......काश शर्मा जी को दूसरा पुत्र होता तो शायद आज वह उनका सहारा होता.....? मगर क्या दूसरा बेटा भी बड़े जैसा निकल गया तो........? काश उनकी सरकारी सेवा में पेंशन रूपी बुढ़ापे की लाठी होती .....? ऐसे ढेरों प्रश्न मन मे बड़ी तेजी से चल रहे थे। शरीर सर्द रात में पसीना -पसीना हो गया था। अगर मेरे व धर्मपत्नी के साथ ऐसा हुआ तो..... ? आज तो मेरी भी बहुत अच्छी तनख्वाह है लेकिन कल जब यह नहीं होगी तब मैं क्या करूँगा ? आह........

लेखक 
डॉ0 अनुज कुमार राठी 
(कलम का सच्चा सिपाही) 
लेखक परिषदीय विद्यालय में प्रधानाध्यापक पद पर कार्यरत है । 

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