निजी स्कूलों की फीस एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है, जिसका निदान होना ही चाहिए। 

वह बच्चा नौवीं पास करके अपने ही स्कूल में दसवीं में दाखिला लेने जा रहा था। बच्चे के पिता को स्कूल के लेटरहेड पर हाथ से लिखी फीस-डिटेल दी गई थी, जो दसवीं कक्षा शुरू होने से पहले उन्हें चुकानी थी। ब्यौरा कुछ यूँ था- एडमिशन मद में 8,000 रुपये, यूनिफॉर्म के लिए 7,500, किताबें 3,200 रुपये की, सालाना फीस 16,000 रुपये, योग और खेल-कूद के मद में 4,000, बिल्डिंग फीस 5,500 रुपये, स्कूल पत्रिका फीस 2,000 रुपये और कंप्यूटर-इंटरनेट के लिए 3,000 रुपये, यानी इस पिता को कुल 49,200 रुपये जमा करने थे। जाहिर है, उन्हें मदद की दरकार थी। वह हर माह 12,000 रुपये कमाते हैं और उनकी पत्नी 9,000 रुपये। पिछले तीन वर्षों में हर बार मेरी उनसे एक ही तरह की बात होती रही है, और इस दौरान स्कूल की फीस 27,000 से बढ़कर 49,200 तक पहुंच चुकी है। बात यह कि वह अपने बच्चे का दाखिला सरकारी स्कूल में करवाएं। पहली बार उन्होंने जब अपनी समस्या बताई, तो मैं उस स्कूल में गया। वह हमारे शहरों के उन हजारों स्कूलों की तरह ही है, जिनका मुख्य द्वार सस्ते कांच से बना होता है, पर शिक्षा नदारद रहती है। लिहाजा मैंने उस पिता को अपने बच्चे का दाखिला पास के सरकारी स्कूल में करवाने की सलाह दी, जिसे मैं देख चुका था। वह इससे सहमत नहीं हुए और किसी भी तरह उस साल फीस का इंतजाम कर लिया। अगले वर्ष इस मसले का दूसरा पक्ष दिखा। इस बार वह खुद उस सरकारी स्कूल को देख आए और मुझसे सहमत दिखे,पर तब उनकी पत्नी व बेटा तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि ऐसा कोई कदम उनकी सामाजिकता को चोट पहुंचा सकता है। लिहाजा पिता ने फिर जैसे-तैसे फीस का जुगाड़ किया। जाहिर है, उन पर कर्ज का बोझ भी उसी अनुपात में बढ़ा। अब इस साल भी यही कहानी दोहराई जाने वाली है। यह पिता जानता है कि स्कूल सिर्फ पैसे बना रहा है, मगर वह लाचार है। वह न तो स्कूल से लड़ सकता है और न अपने बच्चे का कहीं और दाखिला करवा सकता है। वह सामाजिक दबाव व उम्मीदों के बोझ तले दबा हुआ है। यह किसी एक परिवार की कहानी नहीं है।

अब निजी स्कूलों की फीस एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है, जिसका निदान होना ही चाहिए। शिक्षा अर्ध-सरकारी विषय है, जिसे सिर्फ बाजार-तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह से हम प्रभावी शिक्षा नहीं दे सकते। आदर्श स्थिति तो यह होती कि देश में उच्च गुणवत्ता वाला सरकारी स्कूलों का प्रभावी तंत्र विकसित होता। लेकिन हम जिस तरह इस समस्या से घिर चुके हैं, उसका एक महत्वपूर्ण समाधान निजी स्कूलों के प्रभावी नियमन में भी छिपा है। 

ऐसी प्रभावशाली व्यवस्था किस तरह आकार ले, इसके लिए मेरे पास कुछ सुझाव हैं। पहला तो यह कि स्कूलों का नियमन राज्य सरकारों के हाथों में होना चाहिए। दूसरा यह कि इस नियमन के दो प्रमुख आधार हों- एक, सभी निजी व सरकारी स्कूल शैक्षणिक व संचालन संबंधी बुनियादी मानकों पर खरे उतरें, और दूसरा, आम जनता को निजी स्कूलों की शोषणकारी नीतियों से बचाया जाए। तीसरा सुझाव यह है कि राज्य एक स्वतंत्र, अर्ध-न्यायिक स्कूल निगरानी इकाई का गठन करें। सियासी व नौकरीशाही दखलंदाजी से मुक्त यह इकाई स्कूलों की दक्षता बढ़ाने में मददगार तो होगी ही, पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ-साथ जवाबदेही भी बढ़ाएगी।मेरा चौथा सुझाव यह है कि स्कूल नियामक ऐसे हों, जो हमारे कानून की शर्तो के अनुरूप स्कूलों को गैर-लाभकारी बनाने की सिफारिश करें।यह तभी सुनिश्चित हो सकता है, जब सालाना स्कूलों की ऑडिट की व्यवस्था हो। पांचवां, स्कूलों को हर साल तीन वर्ष के लिए अपनी फीस सार्वजनिक करने की बाध्यता हो और फिर उसमें कोई बदलाव न किया जाए। छठा, अभिभावकों से मिलने वाली शिकायतों की सूरत में एक शिकायत निवारण तंत्र बने, जो वित्तीय मामलों से जुड़ी शिकायतों पर भी गौर करे। एक मजबूत सार्वजनिक तंत्र ही अच्छी व न्यायसंगत शिक्षा की गारंटी दे सकता है। मगर जब तक हमारी यह कल्पना साकार नहीं होती, तब तक प्रभावी निगरानी तंत्र आम लोगों की परेशानी एक सीमा तक कम कर ही सकता है।

लेखक 
अनुराग बहर
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


Enter Your E-MAIL for Free Updates :   

Post a Comment

 
Top