लगता है अब हम सब पूरी तरह ऐसा विश्वास कर बैठे हैं कि मनुष्य प्रगति और
विकास कर रहा है, और इस प्रगति के मुख्य किरदार हैं विज्ञान एवं तकनीक। ऐसे
में स्वाभाविक ही है कि इन विषयों को शिक्षा के क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर
महत्व मिलता। इनके पाठय़क्रमों में प्रवेश के लिए मारामारी लगी रहती है।
इनके लिए कोचिंग और टय़ूशन की अनेक संस्थाएं चल निकली हैं, जो कहने को तो
औपचारिक स्कूली शिक्षा की पूरक हैं पर उनसे कहीं अधिक महत्व रख रही
हैं। दूसरी ओर इनसे परे मानविकी और कला अध्ययन के क्षेत्र पूरी तरह उपेक्षित
होते जा रहे हैं। ये विषय अक्सर प्रतिभाशाली छात्रों की मजबूरी की आखिरी
पसंद हुआ करते हैं पर इनकी ओर आकर्षण का आधार आर्थिक होता है। पर ऐसा सोचते
हुए हम सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि और संपन्नता को भूल जाते हैं। हमें
अच्छे राजनेता भी चाहिए और साथ ही कल्पनाशील लेखक, कवि, समाज वैज्ञानिक,
समाजसेवी और कलाकार भी। जीवन में उत्कृष्टता पाने के व्यापक अवसर हैं,
जिनकी ओर ध्यान देना जरूरी है।
विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्रों में अंधी दौड़ से बहुत बड़ी संख्या में युवाओं को कुंठा और नकारात्मक मनोदशा का सामना करना पड़ रहा है। शिक्षा नामक संस्था सामाजिक परिवेश में चिंतन-मनन की खुराक देती है। दुर्भाग्य से आजकल इस तरह के परिवेश उबाऊ, अनुत्पादी और एक हद तक व्यापक समाज और देश की अवस्था से असंवेदनशील होते जा रहे हैं। आज अनेक क्षेत्रों में सुधार की पहल की जा रही है। ऐसा करते में उच्च शिक्षा के परिसरों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। यह इसलिए भी कि शासन और आर्थिक प्रबंधन के मसलों को सुलझाने के लिए भी नये और सृजनात्मक विचारों की जरूरत पड़ती है।
सुचिंतित विचारों की मदद से निर्णय लेने में न केवल पारदर्शिता
आती है, बल्कि हर स्तर पर विकेंद्रीकरण भी आता है। लोगों की भागीदारी
सुनिश्चित करने में भी सहायता मिलती है। भुलाया नहीं जाना चाहिए कि
कल्याणकारी समाज के लक्ष्य के लिए शुरू किए गए प्रयासों से नये गुणात्मक और
मात्रात्मक बदलाव आने चाहिए। इसमें मानविकी और सामाजिक विज्ञानों तथा
कलाओं के अध्यापकों, अध्येताओं और विद्वानों की बड़ी भूमिका होगी। गौरतलब
है कि आज कॉरपोरेट के वर्चस्व के फलस्वरूप कॉरपोरेट दुनिया विश्वविद्यालयों को
अपने नियंत्रण में ले रही है। लगभग सभी बड़े घराने विश्वविद्यालय और उच्च
संस्थान खोले जा रहे हैं। दूसरी ओर सरकारी विविद्यालयों की स्थिति बिगड़ती
जा रही है। इस माहौल में अकादमिक नीतियां इस तरह बदल रही हैं, जिसके चलते
मानविकी दोयम दर्जे का अध्ययन विषय होता जा रहा है। नैतिक और पूर्ण मनुष्य
की अवधारणा को छोड़ अनजाने में ही हम बाजार के हिसाबी आदमी को ही मानक मान
बैठे जिसका बड़ा सीमित दायरा है। आज जिस तेजी से मनुष्य का नैतिक संतुलन
बिगड़ रहा है, और मानवीय पक्ष तिरोहित होता जा रहा है। जब शिक्षा अभिजात
वर्ग के हाथ में पहुंचती है, बाजार-प्रेरित हो जाती है, तो सभ्यता की
त्रासदी स्वाभाविक है। ऐसे में जब माता-पिता और छात्र पाठय़क्रमों को
आजीविका हेतु उपयुक्तता के लिए जांचते हैं, तो मानविकी और कला जैसे विषय
बुरे और फीके नजर आते हैं। सवाल उठता है कि क्या आर्थिक प्रगति ही जीवन के
अच्छे ढंग का मापक है? मानविकी और समाज विज्ञानों का क्षरण जनतंत्र के लिए
भी खतरनाक है। इतिहास, राजनीति और दूसरे विषय आर्थिक सिद्धांतों की सोच के
परे भी जाते हैं। नियंत्रण नागरिकता और सांस्कृतिक संवेदना कला और मानविकी
पर ही टिके होते हैं। इन सब के बिना समाज में विनाश की प्रवृत्तियां
बढ़ेंगी। एकाधिकारवाद और कुछ के वर्चस्व, चाहे वह ज्ञान के क्षेत्र में ही
क्यों न हो, श्रेयस्कर नहीं हैं। मुक्ति और न्याय के साथ नवाचार पर भी बल
देना जरूरी है। जब तक हम ज्ञान की विविधता खासकर मानविकी, कला और सामाजिक
विज्ञानों को सबल नहीं करेंगे तब तक टिकाऊ उच्च शिक्षा, जो आज की
चुनौतियों को समझ सके, असंभव होगी। स्वतंत्रता और सांस्कृतिक जागरण के लिए
शिक्षा के महत्व को सभी जानते-मानते हैं। जरूरी है कि लोक की आकांक्षा
और आवश्यकता को अभिव्यक्ति दी जाए। ऐसी शिक्षा जिसमें गतिशीलता और नवाचार
के लिए खुलापन हो, सांस्कृतिक संवेदना के साथ आत्मबोध का विकास हो व्यापक
संलग्नता और सामाजिक दायित्व की दृष्टि से फलप्रद होगी। इस दृष्टि से
शिक्षा नीति पर विचार आवश्यक है।
लेखक
गिरीश्वर मिश्र
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