एनसीटीई के गठन का मकसद तो पूरा नहीं हुआ, यह देश की शिक्षा-व्यवस्था के लिए एक बुराई जरूर बन गई।


साल 1993 में एक कानून के जरिए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) की स्थापना हुई थी। यह एक स्वायत्त नियामक संस्था है, जिसके पास देश में अध्यापकों की शिक्षा-व्यवस्था की जिम्मेदारी है। देश में शिक्षक तैयार करने वाले तमाम अध्यापक शिक्षण संस्थान (टीईआई), जो बीएड या डीएड के पाठ्यक्रम संचालित करते हैं, इसी के तहत आते हैं। सभी के लिए शिक्षा की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को पूरा करने के इरादे से अस्सी के दशक के अंतिम और नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में भारत ने अपनी शिक्षा व्यवस्था का भारी विस्तार किया था। जाहिर है, उसी अनुपात में शिक्षकों की तादाद में भी बढ़ोतरी की जरूरत पड़ी। तब एनसीटीई की स्थापना हुई, ताकि ‘अध्यापक शिक्षा प्रणाली का योजनाबद्ध विकास लक्ष्य’ हासिल किया जा सके। 1960 के दशक के मध्य से 1993 तक देश में अध्यापक शिक्षण संस्थानों की संख्या करीब 1,200 से बढ़कर 1,500 तक पहुंची थी। लेकिन एनसीटीई की स्थापना के बाद 2011 तक इन अध्यापक शिक्षा केंद्रों की तादाद लगभग 16,000 के आंकड़े तक पहुंच गई। इनमें से 90 फीसदी संस्थान निजी क्षेत्र के थे। इन संस्थानों ने खृूब सारे शिक्षक पैदा किए। लेकिन दूसरी तमाम कसौटियों पर एनसीटीई बुरी तरह नाकाम रही। 

1993 से 2011 तक एनसीटीई ने जिस प्रणाली का नेतृत्व किया, वह शायद दुनिया के किसी भी बड़े देश की सबसे कमजोर अध्यापक शिक्षण प्रणाली थी। सांस्थानिक संरचना, पाठ्यक्रम के नजरिये और फैकल्टी की गुणवत्ता जैसे परिचालन संबंधी अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर जो हुआ, वह न सिर्फ कल्पना से परे था, बल्कि एनसीटीई की शक्तियों को ठोस बनाने वाला था और फिर इस शक्ति का इस्तेमाल भ्रष्टाचार करने में हुआ, जब संबद्ध कॉलेजों को लाइसेंस बेचे गए और यह भी नहीं देखा गया कि जिस शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज को मान्यता दी जा रही है, उसके पास वास्तव में फैकल्टी है भी या नहीं अथवा वहां कक्षाएं लग भी रही हैं या नहीं? यही कमजोर व भ्रष्ट अध्यापक शिक्षण की व्यवस्था भारत की स्कूली शिक्षा से जुड़ी समस्याओं की जड़ है। जब तक हम इससे नहीं निपटेंगे, स्कूलों की गुणवत्ता को सुधारने के हमारे सारे प्रयास कुछ-कुछ वैसे ही रहेंगे कि चमड़ी के इलाज में ही जुटे रहे और कैंसर ने जिस्म के हर हिस्से को भीतर-भीतर अपनी जद में ले लिया। 

दुर्योग से इस भ्रष्टाचार के असर का कोई अनुभवसिद्ध अध्ययन उपलब्ध नहीं है। दरअसल, जो बगैर कक्षाएं लिए डिग्रियां बेचते (या खरीदते) हैं, वे रिसर्च करने वालों के साथ सहयोग नहीं करते। अनेक लोगों का मानना है कि देश के कुल अध्यापक शिक्षण संस्थानों में से 75 फीसदी पूरी तरह से भ्रष्ट व निष्क्रिय हैं। बाकी 25 प्रतिशत भ्रष्ट तो नहीं हैं, पर ज्यादातर गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने अध्यापक शिक्षा प्रणाली की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति जेएस वर्मा (अब दिवंगत) के नेतृत्व में एक उच्चाधिकार संपन्न आयोग का गठन किया था। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए यह कदम उठाया था। मामला कुछ यूं था कि महाराष्ट्र सरकार के मना करने के बावजूद एनसीटीई ने राज्य में 291 डीएड कॉलेजों की स्थापना को मंजूरी दे दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने तब महसूस किया था कि यह भ्रष्टाचार व निष्क्रियता का ऊपरी सिरा हो सकता है। बहरहाल, वर्मा आयोग की सिफारिशों को मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने स्वीकार कर लिया था। आयोग ने अध्यापक शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव की बात कही थी। लेकिन इन सिफारिशों पर अमल नहीं हुआ।मैंने यह शर्मनाक कहानी पीड़ावश नहीं कही, वास्तव में यह सुधार की एक गुहार है। हम आज उस मोड़ पर खड़े हैं, जो भारत के अध्यापक शिक्षा के इतिहास का महत्वपूर्ण काल बन सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्रलय व एनसीटीई अब जो कुछ कदम उठा रहे हैं, उसकी हम सिर्फ उम्मीद करते थे। उन्होंने अध्यापक शिक्षा-व्यवस्था में आमूल बदलाव की शुरुआत की है। लेकिन यह कुछ महीनों का संघर्ष नहीं है, बल्कि जड़ें जमाए बैठे भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी जंग है। इसलिए शिक्षा मंत्रलय व एसीटीई के साथ जनता के खड़े होने की जरूरत है। 

लेखक 

अनुराग बेहर
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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