क लोक कल्याणकारी शासन की प्राथमिकताओं में रोटी, कपड़ा, मकान और सेहत के बाद किसी का नंबर आता है तो वह है शिक्षा। शिक्षा ही देश-प्रदेश के भविष्य की दिशा और दशा तय करती है। इसीलिए अपने यहां सर्वशिक्षा को एक अभियान का दर्जा दिया गया। दो दिन पहले शुक्रवार को ही गलियों, कस्बों, शहरों, स्कूलों और सभागारों में विश्व साक्षरता दिवस भी मनाया गया। बच्चों को स्कूल तक लाने और वहां रोकने के लिए आंगनबाड़ी, बालबाड़ी, एमडीएम जैसी योजनां चलाई गईं। शिक्षा को नापने का पैमाना भी तैयार किया गया, जिसके बुनियादी आकड़े रूप में साक्षरता दर को रखा गया। इसके बाद बेसिक से लेकर उच्च शिक्षा तक की संख्याओं को अलग-अलग वर्गीकृत जाता है। शिक्षा औपचारिक हो या अनौपचारिक, यह व्यक्तित्व का विकास करती है। उसके बाद तो आगे बढ़ने के अनंत अवसर उपलब्ध हो जाते हैं। यहां चर्चा औपचारिक शिक्षा की हो रही है। दो दिन पहले गुरुग्राम में एक सुविधा संपन्न विद्यालय में जो हुआ उसने सबको झकझोर दिया। इस घटना ने उन माताओं को भयाक्रांत कर दिया, जो अपने लाड़लों का जीवन सुधारने के लिए सपने बुनकर ऐसे स्कूलों में भेजतीं हैं। उन पिताओं के आंसुओं को सुखा दिया, जो अरमानों को वहां पढ़ाने की व्यवस्था के लिए कई दिनों तक लंबी लाइन में लगते हैं। 

अभिभावक जीवन संवारने के लिए बच्चे को स्कूल भेजते हैं, न कि उसकी अर्थी देखने के लिए। जहां हर सुविधा के लिए फीस के रूप में मोटी रकम ली जाती हो वहां इंतजामों में इतनी कोताही नहीं होनी चाहिए। समाज और देश का भविष्य बनने वाला कोई नौनिहाल अगर बिना चप्पल, भूखे पेट, बिना छत वाले स्कूल में पढ़ने जाता है तो न जाने किस स्तर पर आने के बाद उसका आत्मविश्वास जाग्रत होगा। दूसरी ओर, उसी का हमउम्र, अत्यंत सुविधा संपन्न स्कूलों में पढ़ने के बाद देश को अपनी सेवा देता है तो न जाने कब वह जमीनी सच्चाई से वाकिफ हो सकेगा। हमारे यहां पढ़ाये जाने वाली सामग्री और पढ़ाने के तरीके में भी काफी अंतर देखने को मिलता है। कई नामी स्कूलों में किताबी शिक्षा के अलावा न कुछ पढ़ाया जाता है और न सीखने की इजाजत ही होती है। ऐसे स्कूलों का व्यावहारिक शिक्षा, खेलकूद, व्यक्तित्व विकास संबंधी अन्य गतिविधियों से कोई लेनदेन नहीं होता। यहां तक कि अनुशासन के नाम पर बालपन जनित शरारतों के लिए भी कोई गुंजायश नहीं रहती। 

फीस और सुविधाओं के बल पर अपना स्तर अलग दिखाने वाले कई विद्यालय किसी भी सूरत से न सिर्फ रिजल्ट शत-प्रतिशत रखना चाहते हैं, मेरिट में भी अपने ही स्कूल का नाम देखना चाहते हैं। पठन-पाठन के जरिए ऐसा हो या नकल अथवा कोई अन्य साधन अपनाना पड़े। इसे गला काट प्रतिद्वंद्विता ही कहा जा सकता है, प्रतिद्वंद्विता तभी अच्छी होती है, जब तक उनमें गलत तरीके न अपनाए जाएँ। यह देखने में आया है कि कुछ स्कूल प्रबंधन अपनी ख्वाहिश पूरी करने को शिक्षकों के पेंच कसते हैं। शिक्षक उसकी खीझ बच्चों पर उतारते हैं। ऐसे ही रवैये से निपटने के लिए बरसों पहले बच्चों के साथ शिक्षकों द्वारा मारपीट पर कानूनी रोक लगानी पड़ी। सदियों से कहा जाता रहा है कि एक अनगढ़ मिट्टी को आकार देने के लिए थोड़ा सख्त हाथ का सहारा जरूरी होता है। बच्चे भी अनगढ़ मिट्टी ही हैं। बच्चों का भविष्य संवारने के लिए शिक्षकों की सख्ती भी जरूरी होती है। समाज में ऐसे बहुत से लोग आज भी कहते मिल जाते हैं कि बचपन में उनके किस गुरु ने कब और कैसे उन्हें सही राह पर दिखाई। गुरुग्राम की घटना एक बार फिर से शिक्षा नीति पर विचार करने को मजबूर कर रही है। मौजूदा नीति से हमें क्या मिल रहा है, किस तरह की प्रतिभा सामने आ रही है, हम किस दिशा में जा रहे हैं, आदि-आदि। कहीं अत्यंत सस्ती और कहीं इतनी महंगी शिक्षा क्यों है, फीस की रकम में इतना फासला कहां जाकर रुकेगा, क्या इससे बच्चों में हीनभावना या सुपीरियरिटी कांप्लेक्स तो पैदा नहीं आ रहा, आदि-आदि। वक्त है जब सबसे पहले शिक्षा को केंद्र और राज्य सरकारों की साझा खेती के दर्जे से बाहर निकालना होगा। जब सभी जगह जवाबदेही निर्धारित की जा रही है तो इसे भी उसी फ्रेम में फिट करना होगा। देश एक, झंडा एक, कानून एक, अब तो व्यापार करने का टैक्स भी एक तब शिक्षा व्यवस्था एक क्यों नहीं। तब इतनी प्रणालियों, इतनी विधाओं की शिक्षा क्यों दी जानी चाहिए? क्यों इन शिक्षा मंदिरों में अलग-अलग स्तर सुविधाएँ हों, किसी को फटी चटाई नहीं, किसी के पैरों तले गलीचे बिछे क्यों?

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