शिक्षक एक अतुलनीय शब्द! हमें शिक्षक होने में कितना गर्व होना चाहिए, परन्तु सच्चाई इससे परे है। बालमन हमसे किलोलें करता है परन्तु न जाने क्या सोच कर आखें भर आती है। हम निर्जीव होते जा रहे हैं या किया जा रहा है विधाता ही जानें। चाहें जितना जमाना डिजिटल हो जाय ,शिक्षक की प्रासंगिकता बनी ही रहेगी।

किसी घोटाले या घटनाओं में जब माननीय लोग प्रथमदृष्टया दोषी होते है। तब पुलिस महकमा से लेकर सी०बी०आई०तक जांच पड़ताल में जुट जाते हैं। बहरहाल आयोग तक का गठन कर दिया जाता है। नतीजा, जीवन के आखिरी पड़ावों तक पापमुक्त पाये जाते हैं। परंतु एक असहाय शिक्षक सत्रह साल, कारावास व ₹ 3.75 लाख अर्थदण्ड की सजा पाता है। समाज व सरकार, शेर के बजाय बकरे की बलि लेने में आत्मसंतुष्टि महसूस करता है।

अभी हाल ही में समाचार पत्रों के माध्यम से जानकारी मिली कि किसी शिक्षिका बहन ने विद्यालय में ममतामुग्ध होकर बच्चों को आलू की कचौड़ी खिला दी । दुर्भाग्यवश बच्चे बीमार हो गये.......? जो बच्चे कचौड़ी खाने से बीमार हुए, हो सकता है वे पहले से बीमार रहे हो। बिना परिस्थितियों की पृष्ठभूमि समझे, दोषारोपण करना समझ से परे है। माना कि मिड-डे-मील मीनू से ही खिलाना चाहिए। विभाग शिक्षकों से शिक्षण मे नवाचार की अपेक्षा तो रखता है परन्तु यदि एम०डी०एम० में किसी ने नवाचार कर दिया तो बुराई हो गयी? शिक्षक समुदाय को ऐसी आत्ममुग्धता से स्वयं को बचाना होगा, नहीं तो परिवार का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।

शिक्षक क्या संज्ञा शून्य व्यक्ति है?

उसके अंदर भी संवेदनशीलता है और सबसे बड़ी बात वह भी मानव है। हमारे, आपके परिवार के अंदर भी बच्चे खाना खाकर बीमार पड़ते हैं। वह जिन बच्चों को पढ़ा रहा व मिड डे मील खिला रहा है उन्हीं पर उसकी आजीविका भी निर्भर है। वह अपनी कब्र अपनी हाथों से क्यों खोदेगा? अधिकारियों की निरीक्षण आख्या विद्यालयों में छात्रों, शिक्षक की उपस्थिति व एम०डी०एम०  के ईर्द-गिर्द सिमटकर रह गयी है। विद्यालय में अन्य बुनियादी आवश्यकताओं की याद चुनाव के दौरान या माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कंठस्थ होती है। क्या कभी अधिकारीगण किसी शिक्षक का अन्तर्मन भी टटोलने की कोशिश करते हैं? एक प्रधानाध्यापक, सहकर्मी शिक्षकों, ग्राम प्रधान, अबूझ अभिभावकों व अबोध बच्चों के साथ -साथ विभागीय अधिकारियों के साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिश करता है। कहीं पर ग्राम प्रधान जी के लाडले के मुण्डन का बासी छोला विद्यालय में बंटवा दिया जाता है और दोषी मात्र विद्यालय प्रभारी को बना दिया जाता है ।  कुछ अभिभावक तंज कसते हैं कि मास्टर जी बच्चों को गिलास भर दूध नहीं दे पाते है।  अब उन्हें कैसे समझायें कि प्रधानजी ने बाल्टी भर दूध में सबको निपटाने को कहा है, नहीं तो उसके साथ-साथ अधिकारी भी उसे निपटा देंगें ।

एम०डी०एम० के मकडज़ाल में शिक्षक अपने को चौतरफ़ा घिरा हुआ पाता हैं। विद्यालय प्रभारी घर से पाठयोजना के बजाय खाद्ययोजना बनाकर निकलता है। शिक्षण एक कला है,यदि कलाकार किसी दबाव में काम करे तो उसकी कला आकर्षक नहीं होगी और ना ही वह उसमें पारंगत हो पायेगा । इस मकड़जाल में उलझे शिक्षक जहाँ एक तरफ खामियां मिलने पर कार्यवाही के जद में आ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ शिक्षण व्यवस्था बेपटरी हो रही है। विडंबना ही है कि हमारे विद्यालयो में प्रत्येक कक्षा को शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में उस विद्यालय में कार्यरत 1 या 2 शिक्षकों के ऊपर सारी शैक्षणिक व गैर शैक्षणिक जिम्मेदारी होती है। विद्यालय में शिक्षा की गुणवत्ता के प्रभावित होने से छात्र नामांकन के साथ-साथ छात्र उपस्थिति में गिरावट होना स्वाभाविक है ।

शिक्षक समाज भी यह अच्छी तरह से समझ ले कि इन अभावग्रस्त छात्रों को जितना अच्छा भोजन व भौतिक वस्तुएं दे दी जायं, वह क्षणिक स्मृति रहेगी। ये बच्चे बाद में मात्र आपके बेहतर शिक्षण व आचरण को ही सहेज कर स्मृतिवान रखेंगे। आज के बच्चे कल के अभिभावक बनने वाले हैं, इसलिए हमें इनके लिए कार्य करना होगा। शायद तभी हम अपने सम्मान को पुनर्जीवित कर सकेंगे।

भारत सरकार की इस बाल कल्याणकारी योजना में पिसता शिक्षक, शिक्षण के बजाय पोषण करके संतुष्ट हो जाता है। क्या सरकारें प्रज्ञा को प्रज्जवलित कर पायेंगी कि शिक्षक किस कार्य के लिए हैं? यद्यपि सरकार चाहें तो विद्यालय के इस गैरशैक्षणिक कार्य को किसी स्थानीय स्वयंसेवी या समाजसेवी संस्था को दे सकती है। इससे जहाँ एक तरफ रोजगार सृजन होगा वहीं दूसरी तरफ शिक्षक एकाग्रचित्त होकर शैक्षणिक कार्य कर सकेंगे।
          एक शिक्षक की कलम से
 
लेखक
विद्या सागर(प्र०अ०)
प्राथमिक विद्यालय गुगौली,
विकास क्षेत्र - मलवाँ,
जनपद - फतेहपुर।
 
Enter Your E-MAIL for Free Updates :   

Post a Comment

 
Top