गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय  ।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय ।।

कबीर जी का यह दोहा शायद अब अपना अस्तित्व खोता नजर आ रहा है जहां इस दोहे में गुरु का स्थान परमपिता परमेश्वर से भी ऊपर बताया गया था वही आज "गुरु" रूपी शब्द की गरिमा धुमित हो गयी है ।
भूतकालीन समय की याद की जाए तो समाज में एक देश का राजा भी गुरु के चरणों मे एक सामान्य नागरिक की भांति अपना शीश झुकाता था ।

आज घृणा सी होने लगी है यह कहने में कि "मैं एक शिक्षक हूँ।" क्योंकि मेरे विभाग के अलावा हरेक वो छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा अधिकारी जो मेरे विद्यालय में आता है मेरा उत्साहवर्धन नहीं अपितु मानमर्दन करने की ठानकर आता है ।
क्या यही उसको उसके गुरु ने सिखलाया था?

नित्य सुबह दैनिक पत्र के माध्यम से गुरुजी की कमियां मजेदार मसाले रूपी खबर बनाकर छपवाई जाती हैं किंतु क्या कभी किसी दैनिक पत्र में किसी गुरु के कार्य की प्रशंसा किसी अधिकारी द्वारा छपवाई गयी ?
कोई डीएम हो या एसडीएम क्या कभी किसी ने यह नहीं सीखा की जिसमें वो लाखों कमियां निकाल रहे हैं वो गुरु हैं, वही गुरु जिसके द्वारा अध्ययन कराने पर वह स्वयं इस सम्मानजनक पद पर आसीन हुआ है । हरेक अधिकारी गुरुजी से ऐसे व्यवहार करता है जैसे 'गुरुजी कोई मुजरिम हों'।
जब बेसिक शिक्षा अधिकारी या खण्ड शिक्षा अधिकारी विद्यालय निरीक्षण पर आते हैं तो उनका व्यवहार किसी थाने के दरोगा द्वारा किसी मुजरिम के समान होता है। कमी चाहें प्रधान जी द्वारा दिये जा रहे अल्प एमडीएम की हो या सफाई कर्मचारी द्वारा न की गयी सफाई, दोषी सदैव गुरुजी ही पाए जाते हैं। छात्र विद्यालय में नामांकन के पश्चात एक माह में विद्यालय दर्शन देने आया हो तो उसकी शैक्षिक गुणवत्ता का सवालिया प्रश्न चिन्ह गुरुजी पर बैठता है ।
क्या कभी हमारे किसी अधिकारी ने उस प्रधान जी पर या उस सफाईकर्मी या उस अभिभावक पर जिसको यह तक न पता कि उसकी सन्तान विद्यालय पहुँची अथवा नही, पर कोई कड़ी कार्यवाही की जो वास्तव में दोषी है ?
'जवाब मिलेगा कदापि नही' ।
फिर यक्ष प्रश्न "आखिर मुजरिम कौन?"
जवाब अवश्य मिलेगा - "गुरुजी"  । वाह, क्या यही उन अधिकारियों के गुरुजी ने उनको सिखलाया था?
आज जब एकांत में बैठकर विचार करता हूँ कि आखिर मैं ही दोषी क्यों?
क्यों न वह डीएम, एसडीएम, बेसिक शिक्षा अधिकारी, खण्ड शिक्षा अधिकारी, पटवारी या कोई न्याय पंचायत से जुड़ा अन्य अधिकारी एक माह तक नित्य हमारे उसी तनावग्रस्त माहौल में जहां मन में हर समय "गुणवत्ता" (कभी सफाई की, कभी एमडीएम की, कभी छात्रसंख्या तो कभी विद्यालय अभिलेख) रूपी राक्षस हावी रहता है,  विद्यालय आकर हमारे बच्चों को शिक्षण क्यों नहीं देते जहां करोड़ों कमियां निका कर प्रशंसा महसूस करते हैं, तब मैं स्वयं उनके शिक्षण की गुणवत्ता परखना चाहूंगा और उस समय तब शायद मैं वास्तव में स्वयं की या अपने गुरुजी के शिक्षण की कमियां सुनना चाहूंगा ।
आज इस कलयुग में एक पूर्ण रूप से निरक्षर व्यक्ति गुरु के सम्मान को ऐसे धुमित करता है जैसे उसके तन पर पहने हुए वस्त्र की दशा की हो । वो तो निरक्षर है किंतु जिनको गुरु ने "स्वयं को दिये के समान" जलाकर साक्षर बनाया और इस काबिल किया कि वो अपने पैरों पर खड़े होकर अपना भविष्य संवार सके वो खुद गुरु सम्मान को खो चुके हैं।
आज यदि हमारा गुरु अपनी किसी वास्तविक मांग को लेकर बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से कोई प्रदर्शन करे तो उन्हीं के शिक्षक उन पर ठीक उसी प्रकार लाठियां भांजते हैं जैसे वो कोई गली-मोहल्ले के चोर पर बर्बरता दिखा रहे हों । "धन्य है वो मेरी वह कलम" जिससे उनको पढ़ाया । मन मे एक आह..... सी उभरती है और
अंतर्मन से प्रश्न उठता है कि " क्या मेरे गुरु ने अपने ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षा के साथ-साथ नैतिकता का भी पाठ पढ़ाया था" ?  क्योकि यदि ऐसा होता तो वो हाथ/उंगली गुरु की और कदापि न उठते ।
उफ्फ्फ.......... ये पीड़ा............

लेखक 
डॉ0 अनुज कुमार राठी 
(कलम का सच्चा सिपाही) 
लेखक परिषदीय विद्यालय में प्रधानाध्यापक पद पर कार्यरत है ।
(8869088009)

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  1. महेन्द्र सिंह यादव MSY16 October, 2017 09:53

    अधिकार अथवा अधिकारीपन का हवा में अत्यधिक संक्रमण है। कर्तव्यों का बोध शायद ही किसी नागरिक में बचा है।

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