बेसिक शिक्षा परिषदीय विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा की योजना रफ़्तार पकड़ रही है। प्रत्येक विकासखंड में 5 परिषदीय विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम के लिए चयनित कर अगले वर्ष से उनमे शिक्षण प्रारंभ हो जाएगा। प्रथम दृष्टया यह निर्णय एक सराहनीय प्रयास नजर आता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये निजी विद्यालयों की प्रतिस्पर्धा को बेसिक शिक्षा की यह पहल बेसिक से पलायन करते छात्रों को रोकने का कदम माना जा सकता है। हालाँकि प्रयोग के तौर पर 2 वर्ष पहले प्रत्येक जनपद के कुछ विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में परिवर्तित किया जा चुका है।

         शासन अपने इस प्रयोग से भले ही खुश नजर आ रहा हो पर अगर अध्यापकों के नजरिये से इस योजना का मूल्याङ्कन करें तो अत्यंत निराशा की स्थिति  नजर आती है। पूर्व में अंग्रेजी माध्यम में परिवर्तित किये गए विद्यालयों की समीक्षा करने पर पता चलता है कि इन दो वर्षों में यह विद्यालय बाहरी छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल नहीं हो सके हैं वही अध्ययन कर रहे छात्रों की उपलब्धि भी कोई खास नजर नहीं आई। सरकार ने इन स्कूल का माध्यम तो बदल दिया पर भौतिक सुविधाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। यहाँ तुलनात्मक रूप से विद्यालय निजी विद्यालयों की तुलना में काफी कमजोर नजर आते हैं हालाँकि नए अध्यापकों के चयन के बाद शिक्षा के नए माहौल के प्रति छात्रों और अभिभावकों में उत्सुकता जरुर नजर आई थी।

         सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल सञ्चालन में एक मजबूत कार्ययोजना की कमी सर्वथा नजर आती है जैसे विद्यालय में छात्र की इच्छा और सहमति लिए बिना अचानक उसे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने लग जाना व्यावहारिक रूप से ठीक नजर नहीं आता है। वहीँ सरकारी स्कूल में निशुल्क सुविधा पाकर कक्षा 5 पास करने बाला छात्र कक्षा 6 में कहाँ प्रवेश लेगा? क्यूंकि निजी या मान्यता प्राप्त विद्यालय में प्रवेश के लिए उसकी आर्थिक स्तिथि अनुकूल नहीं है ऐसे में कक्षा 5 के बाद क्या वह इस माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर पायेगा? यह एक गंभीर प्रश्न है। वेहतर होता कि जिस ग्राम में प्राथमिक विद्यालयों का चयन अंग्रेजी माध्यम के हुआ है उसी ग्राम में पूर्व माध्यमिक विद्यालय का भी चयन किया जाता ताकि छात्र कम से कम प्रारंभिक शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम में प्राप्त कर पाता। डर यह भी है कि कही चयनित विद्यालय के छात्र जबरन अंग्रेजी थोपे जाने के भय से उस विद्यालय से नाम न कटा लें।

        अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा समाज में एक चुनौती पूर्ण कार्य है खासकर उत्तर भारतीय इलाके में जहाँ बोलचाल की भाषा हिंदी हो। ऐसे में किसी कमजोर तबके के या बंचित वर्ग के छात्र को एकदम से अंग्रेजी में शिक्षा देने लग जाना उसे मानसिक रूप से परेशांन करने बाला निर्णय हो सकता है। यहाँ अगर क्रमिक रूप से कक्षा एक में प्रवेशित छात्र को एक एक क्लास बढ़ाकर अंग्रेजी माध्यम में लाया जाता तो ज्यादा वेहतर होता।

       इन विद्यालयों के लिए शिक्षक चयन प्रक्रिया भी काफी आलोचना का शिकार हो रही है। विकास खंड में जिन विद्यालयों ने निजी या सामुदायिक सहभागिता से अच्छे प्रयास कर विद्यालयों को मानक के अनुरूप विकसित करने का कार्य किया था अधिकांशतः उन्ही अच्छे विद्यालयों का चयन अंग्रेजी माध्यम में कर लिया गया। अब वहां नए अध्यापकों का चयन होने से पूर्व में मेहनत कर रहे अध्यापकों में घोर निराशा व्याप्त है और अध्यापकों के मध्य एक नकारात्मक सन्देश प्रसारित हो रहा है कि अगर मेहनत कर विद्यालय को अच्छा बनाया तो भविष्य में वह अंग्रेजी माध्यम में चयनित हो जायेगा और उन्हें वहां से जाना पड़ेगा। हालात यह  हैं कि कई जनपदों में इन विद्यालयों में चयन के लिए पर्याप्त आवेदक तक उपलब्ध नहीं है। यह भी तय है कि बिना अतिरिक्त प्रोत्साहन दिए स्वेच्छा से कोई भी इन विद्यालयों में नहीं जाना चाहेगा।

          कुल मिलाकर  जल्दबाजी में लिए गए इस निर्णय में अभी बहुत अधिक मेहनत करने और कई संशोधन करने की आवश्यकता है साथ ही इन विद्यालयों में मुलभुत सुविधाओं के वेहतर विकास की जरुरत है, अन्यथा यह विद्यालय केवल कागजों पर ही बेहतर संचालित होते नजर आयेगे।   

( विभिन्न अध्यापकों और शिक्षाधिकारियों से वार्ता पर आधारित एक रिपोर्ट )


✍  लेखक : 
अवनीन्द्र सिंह जादौन 
सहायक अध्यापक (इटावा)
महामंत्री, टीचर्स क्लब, उत्तर प्रदेश



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