प्रयोगशाला शब्द सुनते ही हम एसी जगह या  कमरे की कल्पना करने लगते हैं जिसमें ढेर सारे जार ,विभिन्न प्रकार के एसिड ,उत्तल अवतल लेंस प्रिज्म या जीव या वनस्पति के मॉडल रखे होते हैं ।पर हम आज आपको एक नई प्रयोगशाला से रूबरू करा रहे हैं जिसका नाम है बेसिक शिक्षा परिषद व सरकारों की प्रयोगशाला। जैसा कि हम सब जानते हैं की प्रयोगशाला में किए गए कार्य के होने या ना होने पर किसी की जिम्मेदारी नहीं होती है कि प्रयोग सफल होगा या असफल उसी प्रकार इस बेसिक शिक्षा की प्रयोगशाला में भी कोई किसी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं होती है इससे उन नौनिहालों पर प्रयोग का क्या असर पड़ेगा जो मानवीय संवेदना से ओतप्रोत हैं ना की किसी प्रयोगशाला के जीव। 1986 से जब तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री अर्जुन सिंह ने नई शिक्षा नीति लाई तब से आज तक बेसिक शिक्षा प्रयोगशाला ही बनी हुई है। कोई आविष्कार अभी तक नहीं हो पाया जिसे हम अपनी उपलब्धि बता सकें प्रयोगशाला की सफलता बता सकें 1986 से लगातार तभी ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड कभी विश्व बैंक परियोजना कभी सभी के लिए शिक्षा, सर्व शिक्षा अभियान आदि कार्यक्रम चले परंतु हम उन लक्ष्यों को प्राप्त करने में असमर्थ रहे जिसकी हमने कल्पना की, जिनकी प्राप्ति हेतु हमने यह कार्यक्रम चलाए। असफल रहने के कई कारण हैं जिनमें वातानुकूलित कमरे में बैठकर प्रयोग करने की नीति भी बाधक साबित हुई। हमारे अफसर मनमाने तरीके से प्रयोग करते रहे और मंत्रीगण हस्ताक्षर करते रहे। एक अनूठा प्रयोग आया था 3 किलो गेंहू देने का मुझे अच्छी तरह याद है तब हमारी बेसिक शिक्षा में उच्च मध्यम वर्ग तक के बच्चे आते थे। उस वर्ग  को 3 किलो गेहू देना खुद में शर्मिंदगी का भाव जगाता था पर मरता क्या न करता अभिभावकों की चिरौरी कर उन्हें गेंहूँ लेने को राजी करना पड़ता था! अब नयी समस्या आती थी कोटेदार की दुकान कहीं-कहीं स्कूल से 4 से 5 किलोमीटर दूर होती थी छोटे-छोटे बच्चे नाजुक बच्चे 3 किलो गेहूं के लिए बिना चप्पलों के भी जाते थे तो हृदय द्रवित हो जाता था पर क्या कर सकते हैं। खैर प्रयोग चला कोटेदार मालामाल हुए क्योंकि कोटेदार एक बार ही राशन बांटता था, जो न जाए उसका हड़प। उसके बाद में प्रधान जी से  व मास्साब से हिसाब बराबर क्या जरूरत थी ऐसी योजना की? मगर प्रयोग भाई प्रयोग छात्र-छात्राएं नहीं प्रयोगशाला के लक्ष्य जो हैं चलो भाई पिंटू छूटा 3 किलो गेहूं से। नया प्रयोग आया पका पकाया भोजन मिलेगा भोजन भी मेन्यू के अनुसार मिलेगा सप्ताह में केवल 2 दिन रोटी मिलेगी बाकी दिन चावल।  

वाह रे प्रयोग हम उत्तर भारतीय चावल कितना खाते हैं? स्कूल में खाना मिलने के कारण बच्चे घर भी नहीं जा पाते यहां 4 दिन चावल खाना पड़ता है किसी भी झोलाछाप डॉक्टर से पूछ लो तो वह भी सर्दियों में चावल खाने से मना कर देगा परंतु यहां तो प्रयोगशाला है प्रयोग चालू आहे ऊपर से प्रयोग सर्वशक्तिमान जो कर रहे हैं सर्दी हो या गर्मी हो चावल खाना ही है। किसकी जुर्रत सर उठाए और तो और शिक्षक संगठन जो बात का बतंगड़ बना कर तिल का ताड़ बना कर आसमान सिर पर उठा लेते वह भी शान्त। संवेदनाशून्य सी भरी सर्दी में लगातार चावल स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालेगा? चलो झेल लिया यह भी प्रयोग। एक और प्रयोग सत्र परिवर्तन हम CBSE के बराबर बनेंगे सत्र अप्रैल से चलेगा वाह भाई मान गए प्रयोगशाला में आने वाले नए नए वैज्ञानिकों को कभी चिंतन किया CBSE का कोई स्कूल गांव में है? इसका कोई बच्चा खेतिहर है? मजदूर है? 

नहीं। वहां बच्चे बड़े -  बड़े कारोबारी नौकरीपेशा अमीरों के पड़ते हैं यहां पूरा परिवार मिलकर 2 जून की रोटी का जुगाड़ करता है धन्य हो प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों। हमारे पुराने नीति-नियंता एवं पुरखे क्या बुद्धिहीन थे? जो जुलाई से सत्र चलाते थे जुलाई में सत्र चलाने के कई कारणथे। भौगोलिक एवं सामाजिक स्थितियां थी अप्रैल का सत्र विदेशों में सफल हो सकता है हमारे यहां नहीं क्योंकि हमारा देश कृषि प्रधान है देश की 80% जनता कृषि पर निर्भर है कृषि कार्य जुलाई में और नामांकन प्रक्रिया भी जुलाई में चलती थी धान की रोपाई 15 जुलाई तक पूरी हो जाती है धान की कटाई नवरात्रि व दीपावली तक संपन्न हो जाती है गेहूं की बुवाई उन्हीं दिनों हो जाती है गेहूं की कटाई अप्रैल में मई तक बच्चे फ्री होकर परीक्षा के लिए तैयार कहने का आशय कृषि कार्य अधिकतर शिक्षण दिवसों में नहीं होता था, छुट्टियों का उपयोग हो जाता था। परंतु आज परीक्षा के समय बच्चे उपलब्ध नहीं होते उसी समय बच्चे गेहूं की कटाई में लगे होते  है। उन अध्यापकों से ही पूछें किस तरह परीक्षा संपन्न कराते हैं। परंतु नहीं प्रयोग जारी रहना चाहिए वरना मालिक नौकरी से निकाल देगा प्रयोग चालू आहे कागज पर कोई कितना भी कुछ भी लिखे आज की परीक्षा में 50% भी उपस्थिति नहीं रहती सब गेहूं की कटाई में एवं सहयोग में कोई कितना भी कुछ भी लिखे आज की परीक्षा में  50% भी उपस्थिति नहीं रहती सब गेहूं की कटाई एवम सहयोग मे लग जाते हैं। वास्तविकता यही है कि हमारे स्कूलों में केवल वही बच्चे आते हैं जो अति निर्धन हैं 2  जून की रोटी उनके परिवार के लिए कमाना मुश्किल है यह कटु सत्य है कोई पहले रोटी का जुगाड़ करेगा पूरे साल का खर्च का जुगाड़ करेगा तभी स्कूल की तरफ मुंह करेगा। प्रयोगों की एक बानगी है ऐसे अनगिनत प्रयोग होते रहते हैं चलते रहते हैं लिखने बैठूंगा  तो पेज भरते चले जाएंगे फिलहाल तरह-तरह के प्रयोगों पर रोक लगनी चाहिए सर्वप्रथम विद्यालयों को जमीनी हकीकत को समझ कर सामाजिक जागरुकता प्रदान कर शिक्षा के महत्व को गांव-गांव अन्य विभागों का सहयोग लेकर समझाना चाहिए सिर्फ शिक्षकों को ठेकेदारी देना ही ठीक नहीं है क्योंकि हमें अन्य विभागों के सहयोग के लिए भी कहा जाता है क्यों  हमारे इस पुनीत कार्य में अन्य  विभाग सहयोग नहीं कर सकते? चा टु कार  शिक्षकों एवं दबंग शिक्षकों को दंडित करना होगा अच्छे मेहनती शिक्षकों को पुरस्कृत कर आगे बढ़ाने में सहयोग देना होगा शैक्षिक वातावरण को जन जन तक पहुंचाने हेतु अधिकारी वर्ग को केवल निरीक्षण एवं निरीह अध्यापकों तो लूट ना बंद कर जनसामान्य से संवाद स्थापित करना चाहिए! तभी हम बेसिक शिक्षा को उन्नति के शिखर पर ले जा सकते हैं अन्यथा प्रयोगशाला में नित्य नवीन प्रयोग होते रहेंगे अविष्कार नहीं होंगे।

!जय शिक्षक जय भारत!

लेखक
अनुपम कौशल,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय नगला बिहारी ,
सैफई, इटावा ।
9457123104


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  1. Kash ye baate sabhi ki samajh me aa pati,toh shayad basic shiksha me kuch sudhar ho pata��

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  2. बहुत अच्छा भाई , अब एक नया प्रयोग बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम के अंतर्गत शिक्षक और छात्र अनुपात का है तुलना कान्वेंट स्कूल की I पहले कक्षा 1 -5 तक लगभग २ से 3 शिक्षक हुआ करते थे विषय हिंदी ,गणित ,विज्ञान ,सामजिक विषय ,कला ,पी . टी ./ खेल हुआ करता था I और आज जब कुछ विषय बढ़ा दिए हैं जैसे इंग्लिश ,संस्कृत ,योग तो अब शिक्षक की संख्या कम I कान्वेंट में एक क्लास में एक टीचर होता है I जब तक प्रत्येक कक्षा के लिए एक शिक्षक व्यवस्था नहीं होगा बेहतर परिणाम कभी नहीं आ सकता चाहे कोई भी सरकार हो मंत्री हो I यहाँ जिस जगह ध्यान देना चाहिए वहा कोई देखता ही नहीं ना जाने क्यों ?

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