मातृभाषा में हो प्रारंभिक शिक्षा
मातृभाषा में बच्चे कठिन विषय को भी आसानी से समझ लेते हैं, जबकि दूसरी भाषाओं में उन्हें मुश्किल होती है
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी द्वारा प्रारंभिक शिक्षा के लिए अंग्रेजी माध्यम की वकालत करने के बाद राज्य में एक नया विवाद छिड़ गया है। विपक्षी दलों ने उन्हें तेलुगु भाषा विरोधी करार देना शुरू कर दिया है। उनका यह दांव भले ही एक राजनीतिक धींगामुश्ती में बदल जाए, लेकिन इसने राष्ट्रीय स्तर पर मातृभाषा को लेकर एक व्यापक विमर्श अवश्य शुरू कर दिया है। जगन की ऐसी पहल के उलट कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में देशवासियों से मातृभाषाओं के अधिकाधिक इस्तेमाल और उन्हें बढ़ावा देने की अपील की थी। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भी मातृभाषा में शिक्षा देने की वकालत करते रहे हैं।
‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के संशोधित मसौदे में भी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं के संदर्भ में अनेक अहम सिफारिशें हैं, लेकिन मातृभाषा के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बिंदु को लेकर शिक्षा नीति तैयार वाली कस्तूरीरंगन समिति ने शायद इस पर बहुत गंभीरता से विचार नहीं किया। यह बिंदु है प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा का। हालांकि मातृभाषा किसे कहें, इसे लेकर एक विवाद भी है। क्या है मातृभाषा की भारतीय संकल्पना? मातृभाषा में शिक्षा क्यों जरूरी है? इस संदर्भ में शिक्षाशास्त्र के शोधों के क्या निष्कर्ष हैं? यह भी कि राष्ट्रहित में क्या किया जाना चाहिए?
पिछले कुछ दशकों से भारत में सरकारी स्कूली शिक्षा में काफी गिरावट आई है। दूसरी तरफ निजी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह महानगरों को तो छोड़िए, छोटे शहरों और कस्बों तक में चौतरफा उग आए हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम जहां अपने-अपने राज्यों की भाषाएं या कहें कि स्थानीय अथवा मातृभाषा हुआ करता था, वहीं अब लगभग सभी निजी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी हो गया है। हालांकि मातृभाषा की अवधारणा को ही लेकर कुछ विद्वान विवाद खड़ा करते हैं।
वास्तव में मातृभाषा की भारतीय संकल्पना को पश्चिमी नजरिये से देखना उचित नहीं होगा। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक रवींद्रनाथ श्रीवास्तव लिखते हैं कि प्रयोजन की दृष्टि से मातृभाषा के दो आयाम हैं। पहले रूप में मातृभाषा का अर्थ है मां की भाषा अर्थात झूले-पालने की भाषा, जिसके द्वारा शिशु अपने भाषाई बोध एवं जीवन बोध का निर्माण करता है, लेकिन पश्चिम से अलग भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा का एक और भी आयाम है। वह भाषा भी मातृभाषा है जो सड़क, बाजार और व्यापक सामाजिक जीवन की भाषा है, जिसके माध्यम से व्यक्ति विचार, संस्कार और जातीय इतिहास एवं परंपरा से जुड़ता है। उदाहरण के लिए अयोध्या में रहने वालों की मातृभाषा एक तरफ अवधी है तो दूसरी तरफ हंिदूी भी। इसी तरह धनबाद में रहने वाले आदमी की मातृभाषा एक तरफ ‘खोरठा’ भाषा है तो हंिदूी भी उसकी भाषा है। यही स्थिति कर्नाटक में भी देखी जा सकती है जहां एक बड़ी आबादी ‘तुलु’ नामक भाषा तो बोलती है, लेकिन व्यापक प्रयोजनों के लिए कन्नड़ का प्रयोग करती है। यही चीज तेलंगाना में ‘लंबाडी’ भाषा बोलने वालों और तेलुगु के संदर्भ में देख सकते हैं। कहने का तात्पर्य है कि प्रादेशिक भाषाएं भी एक स्तर पर मातृभाषा का ही रूप हैं और जो सरकारी स्कूलों में शिक्षण का माध्यम भी हैं।
शिक्षाशास्त्र के विभिन्न शोध बताते हैं कि बच्चों के पूर्ण मनो-बौद्धिक विकास के लिए आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में ही होना चाहिए। यूनेस्को ने भी जोर देकर कहा है कि आरंभिक शिक्षण मातृभाषा में होने से बोध एवं संज्ञान क्षमता बढ़ती है। छोटे बच्चों के संदर्भ में मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि गणित या सामान्य चीजें भी अंग्रेजी में उन्हें नहीं समझ आतीं, जबकि वही चीज हंिदूी या उनकी मातृभाषा में बताई जाए तो उनके लिए ज्यादा कठिनाई नहीं आती। शैक्षणिक मनोविज्ञान के अनुसार मातृभाषा में संप्रेषण एवं संज्ञान सहज तथा शीघ्र हो जाता है। इससे बच्चे कठिन चीजें भी आसानी से समझ लेते हैं, जबकि इतर भाषाओं में बच्चों को रटना पड़ता है, जो उनके पूर्ण मानसिक विकास के लिए ठीक नहीं है।
नई शिक्षा नीति मसौदे में भी मातृभाषा की शक्ति को रेखांकित करते हुए पैरा 4.8 में कहा गया है कि जहां तक हो सके आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई मातृभाषा में ही होनी चाहिए। पैरा 22.8 में तो उच्चतर शिक्षा में भी शिक्षण माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं के उपयोग को बढ़ाने की बात है, लेकिन ये सिफारिशें केवल एक सदिच्छा के रूप में हैं, इनको लागू करने लेकर कोई अनिवार्यता नहीं है।
प्रारंभिक शिक्षण के लिए मातृभाषा को अनिवार्य कर देना चाहिए। देश में इसके लिए पहले से एक मॉडल भी मौजूद है। दिल्ली में ही एक स्कूल है सरदार पटेल विद्यालय जो दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में से है। गांधी जी और सरदार पटेल के आदर्शो के आधार पर 1957 में स्थापित इस स्कूल में कक्षा पांच तक की पढ़ाई हंिदूी में होती है। यहां के विद्यार्थी न सिर्फ अकादमिक ज्ञान में श्रेष्ठ और विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सफल हैं, बल्कि आचरण, मूल्य और संस्कारों में भी वे एक प्रतिमान के रूप में देखे जाते हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो जर्मनी, फ्रांस, इटली, स्पेन, स्वीडन, नॉर्वे, अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया आदि देशों की तरक्की का एक बड़ा कारण उनकी आरंभिक शिक्षा का मातृभाषा में होना भी है।
दुर्भाग्य से आजादी के बाद देश में शिक्षा का पूरा मॉडल औपनिवेशिक प्रभाव से प्रभावित शिक्षाविदों के हाथ में रहा। इन तथाकथित अभिजात्य लोगों की दृष्टि में अंग्रेजी और पश्चिमी चिंतन पद्धति ज्यादा बेहतर थी। यहां तक कि गरीबों-निम्न वर्ग की वकालत करने वाले मार्क्सवादी बुद्धिजीवी भी भारतीय भाषाओं में शिक्षण के मुद्दे पर उदासीनता या हिकारत का भाव रखते थे। 1966 में कोठारी शिक्षा आयोग तक ने प्रारंभिक शिक्षण को मातृभाषा में करने की सिफारिश की थी, लेकिन दुर्भाग्य से मातृभाषाएं या भारतीय भाषाएं उपेक्षित ही रहीं। गांधी जी ने कहा था कि ‘यदि मैं तानाशाह होता तो विदेशी भाषा में शिक्षा का दिया जाना तुरंत बंद कर देता। सभी अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता।’ समय आ गया है कि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ सभी निजी स्कूलों में भी प्रारंभिक शिक्षण मातृभाषा में अनिवार्य कर दिया जाए। एक समर्थ एवं सशक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए यह अपरिहार्य है। उम्मीद है कि मानव संसाधन विकास मंत्रलय इस पर विचार करेगा।
प्रो. निरंजन कुमार
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)