भौतिकवादी समाज में सामाजिक सहारे के बगैर भटक रहे विद्यार्थियों की कैसी हो शिक्षा~ दीक्षा?
विशेषज्ञों का मानना है कि शिक्षा मनुष्य में जीवन जीने का कौशल और
नैतिक समझ पैदा करती है पर आजादी के छ दशक में हर गाँव में प्राथमिक
विद्यालय होने के बाबजूद युवाओं में नैतिक पतन बढ़ता ही जा रहा है आजादी के
समय या उससे पहले से जिन गाँव में प्राथमिक स्कूल संचालित थे वहां आज भी
तीसरी पीढ़ी अपना नाम ना लिखकर उपरोक्त विशेषज्ञों की बात को गलत सावित कर
रहे हैं। शहरों के नामी कान्वेंट में पढने बाले सभ्रांत और सम्रद्ध घरों के
किशोर छात्र चौराहे से गुजरने बाली लड़कियों और महिलाओं को घूरते और
फब्तियां कसते नजर आते हैं। डॉक्टर और इंजीनियर बने उच्च शिक्षा प्राप्त
युवा आतंकबादी गतिविधियों में पकड़े जा रहे हैं और मेडिकल तथा इंजिनियर
कॉलेज के छात्र व्यापम घोटाले जैसे अपराधिक कृत्यों में संलिप्त हैं। हर
व्यक्ति इस भौतिकबादी युग में अधिक पैसे कमाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को
आतुर है।
इस समय देश हताशा और निराशा के दौर से गुजर रहा है। समाज का पढ़ा लिखा वर्ग आशंकित और डरा हुआ है। अराजकता ,लूट खसोट
,भ्रष्टाचार की घटनाओं ने लोगों का सिस्टम पर से भरोसा ख़त्म कर दिया है।
डरे सहमे लोग केवल अपने दिन भर काटते नजर आते हैं। मोहल्ले और दुकानों पर
पर शाम को इकट्ठा होने बाले लोग अब घरों में कैद हैं। महिलाओं और लडकियों
के साथ हो रही छेड़छाड़ की घटनाओं ने समाज में दहशत का माहौल पैदा कर दिया है, आखिर समाज का इतना नैतिक पतन क्यों हो रहा है, इस पर गंभीर चिंतन आवश्यक
है।
इस समस्या को अच्छे से समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा। आज से पचास साठ साल पहले देश की अधिकांश आबादी अपने संयुक्त परिवारों के
साथ ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती थी और इस परिवार में घर के बुजुर्ग और
बड़ों के दिशानिर्देशों, कठोर अनुशासन और संस्कारों के बंधन में किसी भी
बच्चे का सम्पूर्ण नैतिक विकास घर की पाठशाला में ही हो जाता था। रही सही
कसर विद्यालय में मुंशी जी का डंडा पूरी कर देता था।
समय के साथ बदलते
भौतिक परिवेश और जीवन प्रतिस्पर्धा में आर्थिक परेशानी के कारण संयुक्त
परिवार बिखरकर एकल बन गए जिससे परिवार की संस्कार पाठशालाएं बंद हो गयीं।
नैतिक मूल्यों के पतन में समाज से अधिक भूमिका अभिभावक की है क्यूंकि इन्ही
परिवारों से समाज का निर्माण होता है। वेहतर सुख सुविधा की चाह में पति और
पत्नी नौकरीपेशा और कामकाजी हो गए और बच्चे पालना घर, क्रेज और आया के
सहारे पलने लगे। पैसे कमाने की दौड़ में लोग परिवार, रिश्तेदार, पडोसी, दोस्तों और यहाँ तक कि बच्चों तक के लिए समय नहीं निकाल पा रहे हैं।
पिछले दो दशक में भारतीय शिक्षा व्यवस्था और पाठ्यक्रम में आमूल चूल
परिवर्तन हुए हैं। व्यवहार में नैतिक शिक्षा विषय पाठ्यक्रम से लगभग बाहर हो चुका है।
शारीरिक दंड और उत्पीडन के खिलाफ सख्त कानून बन जाने से विद्यालयों में
अनुशासन का डंडा अलमारी में बंद हो चुका है। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2005
में बच्चों के नाम ना काटे जाने के प्राविधानों, परीक्षा में फेल ना किये
जाने के नियम का फायदा उठाकर बच्चे लगातार उद्दंड हो रहे हैं। निजी
व्यवस्था में चलने बाले कुछ नामी कान्वेंट आज भी स्कूल में अनुशासन बनाये
हुए हैं, पर सरकारी स्कूल जिनमे देश की अधिकांश आवादी के बच्चे अध्यनरत है
वहाँ अनुशासन लगभग ख़त्म ही है। चूकि सरकारी स्कूल में पढने बाले बच्चे के
अभिभावक अपने दो जून की रोटी में व्यस्त रहते है इसलिए इनके छात्रों को
स्कूल और घर दोनों जगह नैतिक शिक्षा की पढाई से बंचित रहना पड़ता है।
शहरी क्षेत्र के अभिभावकों के बच्चों की वर्तमान हालत भी कुछ ज्यादा
अच्छी नहीं है। अधिकांश परिवारों में माता पिता दोनों के कामकाजी होने के
कारण ये अपने बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं और परिवार एकल होने से
अन्य रिश्तों से भी दूर होते जा रहे हैं। बच्चों का अधिकांश समय केवल टीवी के
कार्टून नेटवर्क के सहारे ही व्यतीत हो रहा है शहरी माहौल में असुरक्षा के
भय और लोगों के रिजर्व व्यवहार के कारण बच्चों का पार्क और मोहल्ले में
खेलना अब प्रचलन में नहीं रह गया है। माता पिता भी बच्चों को समय ना दे पाने
के अपराधबोध से ग्रसित होने का पश्चाताप बच्चों को जेब खर्च देकर पूरा
करते हैं जिससे बच्चों का प्रारंभिक अवस्था में सम्पूर्ण सामाजिक विकास
नहीं हो पाता है, और बच्चे तुनकमिजाज और चिडचिड़े होते जा रहे हैं।
ताज्जुब की बात ये भी है कि ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र के बच्चे
व्यवहार में ज्यादा उद्दंड हो रहे हैं। इंडिया टुडे ग्रुप द्वारा लगभग 17
वर्ष पूर्व राजधानी दिल्ली में सभ्रांत और सम्रद्ध परिवार के क्लब, पब और डिस्को में
जाने वाले किशोरों पर किये गए सर्वे में चौकाने वाले तथ्य सामने आये
थे। ज्यादातर किशोरों का कहना था कि माँ बाप क्या होते हैं, हमें क्या पता? हम जब सुबह जागते हैं तो वो ऑफिस जा चुके होते है और जब हम सोने वाले होते
है तब वो वापिस आते हैं। अब हम दिन किसके साथ बिताएं? इसलिए हम अपनें जेब
खर्च से अपने दोस्तों के साथ एन्जॉय करते हैं।
न्यायपालिका और
विधायिका की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कुछ संगठन
अभिभाबकों और छात्रों की मांग पर देश भर के अभिभावकों की राय जाने बिना
तुरंत कानून बना देना वर्षो से बने सामाजिक ढांचे को ध्वस्त करने जैसा
है। छात्र संघो द्वारा राजनीति, कॉलेज में ड्रेस कोड पर प्रदर्शन, अनुशासन
में न्यायपालिका का दखल, शारीरिक उत्पीडन कानून की आड़ में छात्रों का अपने
माता पिता के प्रति बदलता रुख, शिक्षा के व्यवसायीकरण में पैसे से खरीदी
जाती डिग्रियां, बच्चों के हाँथ में महगें मोबाइल और उनके द्वारा इन्टरनेट
का अनुचित इस्तेमाल आदि सैकड़ो कारण हैं जो आज के किशोर और युवा सहित पूरे
समाज के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार हैं।
इसलिए जरुरी है कि पैसे
की भागदौड़ में समय बचाकर हम अपने परिवारों को जिन्दा बनाये रखें। रिश्तों
को गर्मजोशी से जियें। मोहल्ले की चौपालों को पुनः जिन्दा करें। बच्चों को
समय दें उन्हें दादा, दादी, चाचा, चाची, ताऊ, ताई आदि रिश्तों के साथ जीनें का मौका दें। विद्यालय के प्रधानाचार्य को
अनुशासन बनाने में सपोर्ट दें। समाज में सरकार द्वारा स्थापित संसाधनों के
उपयोग में जिम्मेदार नागरिक का फ़र्ज़ अदा करें। हालाँकि आज के भौतिकवादी समय
में ये कठिन है पर खुद की संतान को भविष्य का अच्छा नागरिक बनाने और अपना
श्रेष्ठ उत्तराधिकारी बनाने के लिए शुरुआत आपको आज ही करनी होगी।
लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन
सहायक अध्यापक
जनपद इटावा
महामंत्री, टीचर्स क्लब उत्तर प्रदेश