आज पहली बार एहसास हुआ कि अपनी बात अपने ही सिस्टम अपनी ही व्यवस्था से कहने के लिए किसी शिक्षक को अपना नाम छुपाने के लिए विवश होना पड़ रहा है।  जबकि होना तो यह चाहिए था कि व्यवस्था को उस परिषदीय शिक्षक से फीडबैक/विचार लेना चाहिए था। शिक्षक विचारों का अगुआ माना जाता रहा है, और उन्हीं विचारों से देश की गति भी प्रभावित होती रही है। "प्राइमरी का मास्टर" एडमिन टीम भी इसी विचार को मानते हुए इस आलेख को गर्व के साथ "आपकी बात" में साझा कर रही है। आशा है कि वही व्यवस्था इसे सकारात्मक लेगी? 

प्रिय व्यवस्था, 
सादर नमस्कार!

आजकल देश में खुली चिट्टी लिखने का नया अध्याय शुरू हुआ है, नामी लोग एक दूसरे के नाम खुला पत्र लिख रहे हैं पर हम ठहरे अध्यापक हमें खुलकर लिखने का ज्यादा अधिकार नहीं मिला है फिर भी बात जब हद से बढ़ जाती है और दिमाग पर असर करने लगती है तो लिखना आवश्यक हो जाता है पर हम अपनी चिट्ठी किसके नाम लिखे ये निश्चित नहीं हो पाया क्योंकि हमारा गौरव गिराने में कई लोग बराबर के हक़दार हैं इसलिए ये चिट्ठी व्यवस्था के नाम लिख रहे हैं।

        सबसे पहले तो उन मीडिया कर्मियों के बारे में लिखना जरुरी है जो विद्यालय में जबरन घुसकर सरकारी शिक्षा की छीछालेदर करना अपना परम धर्म समझते हैं। आपको अपना यह धर्म निभाना भी चाहिए क्योंकि यह आपके पेशे और ड्यूटी से जुड़ा प्रश्न है पर आप दिल पर हाथ रखकर बताना कि आपको आज तक कोई ऐसा स्कूल नहीं मिला जिसमे आपको सभी व्यवस्थाएं चाक चौबंद मिली हों और बच्चे होशियार हों, तो आपकी ऐसी कौन सी मज़बूरी रही जिसके कारण आपने उस विद्यालय का समाचार नहीं दिखाया और छापा, शायद बुराई दिखाना ही आपके पेशे का प्रमुख कर्त्तव्य है? पर  कभी जनता को यह भी बता देते कि कि 5 कक्षाओं में पढ़ाने के लिए 5 अध्यापकों की जरुरत होती है। स्कूल की सफाई के लिए स्वीपर और चपरासी की जरुरत होती है। ऑफिस के कार्य के लिए क्लर्क की जरुरत होती है। कभी इस बात को भी जान लेते कि हिंदी विषय से भर्ती अध्यापक एकल विद्यालय में मजबूरी में विज्ञान और अंग्रेजी कैसे पढ़ा लेता है। पर आप तो मन बनाकर निकले थे कि आज शाम तक 10 स्कूल का जनाजा निकालकर उनकी खबर अपने अख़बार में छापनी है या न्यूज़ चैनल पर दिखानी है। दुःखद है कि हमारे कुछ साथी आपको सन्डे मंडे नहीं सुना सके, यह बड़े शर्म की बात है, हम भी यह जानने के बाद शर्म के मारे अपने पास पड़ोस में निगाह नहीं मिला पा रहे है। पर आप तो खोजी पत्रकार है जरा पता लगा के बताइये कि इनकी भर्ती किसने की और अगर ये विभाग में है तो क्या ये हम शिक्षकों की गलती है और इनकी अंकतालिका पर अच्छे प्रतिशत होने के बाद भी ये प्राथमिक ज्ञान नहीं रखते हैं तो उस यूनिवर्सिटी और स्कूल पर ऊँगली उठाने की बजाय आप हमारी पूरी कौम की छीछालेदर पर क्यों उतारू हैं।

    प्रिय प्रशासन जरा आप यह भी बता दें कि पढ़ाने के लिए नियुक्ति देने के बाद जनगणना , चुनाव, बी एल ओ , पल्स पोलियो , मतदाता पुनरीक्षण, बृक्षारोपण, स्वास्थ्य परीक्षण, मध्यान्ह भोजन निर्माण और वितरण, सांख्यिकी गणना आदि के लिए क्या हम आपके विभिन्न विभागों से आग्रह करने गए थे या इन विभागों के काम निपटाने का आदेश हमारी सेवा नियमावली का हिस्सा है। जरा आप यह भी बता दें कि जिस निजी स्कूल में एक बच्चे का महीने भर  जितना जेबखर्च होता है उतने खर्च में आप वर्ष भर हमसे एक स्कूल क्यों चलवाते हैं। स्कूल की साफ सफाई की फोटो को बड़ा करके छापने और प्रधानाध्यापक को निलंबित करने से पहले काश आप यह भी जान लेते कि पिछले कितने दिनों से विद्यालय में सफाईकर्मी नहीं आया है और आपने कितने सफाईकर्मियों को निलंबित किया। हमारे टॉयलेट में झाँकने से पहले और उन्हें गन्दा होने का प्रश्न उछालने से पहले यह भी जान लेते कि गांव का स्वीपर इन्हें साफ नहीं करता।

      हम भी चाहते है कि हमें पढ़ाने का अवसर मिले पर आप हमें पढ़ाने कब दे रहा है। रात में सोते समय बच्चों के लिए कार्ययोजना बनाने की बजाय दिमाग में सब्जी मंडी से सब्जी का तनाव लेकर सोना पढ़ता है और सब्जी मंडी में हमारे घुसते ही 10 रुपये की लौकी 15 की हो जाती है और दुकानदार कटाक्ष करता है कि मास्टर बहुत कमाई है तुम्हारी। सन्डे की शाम को फल मंडी से एक बोरी केले लादकर लाने में पसीने छुट जाते है और डर लगता है कि अगर मोटरसाइकिल फिसल गयी तो राम नाम सत्य ना हो जाए। बुधबार की रात दूध के तनाव में निकल जाती है और रोज मिलावटी दूध की शिकायत की खबरे देखकर बच्चों को दूध पिलाते वक्त कलेजा मुँह को आ जाता है डर लगता है कि अगर एक भी बच्चा वीमार हुआ तो हमारे खुद के बच्चे भूखों मर जायेगे। जरा आप बताइये कि आपने दूध की शुद्धता नापने का कोई यंत्र कभी हमें दिया है? मिड डे मील खाने से बीमार हुए बच्चों की खबर सुन सुन कर हम मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार हो गए हैं, जब तक मध्यान्ह भोजन के बाद बच्चे सकुशल घर नहीं चले जाते तब तक हम डरे सहमे से रहते हैं क्योंकि बाजार की सब्जी में कौन सा इंजेक्शन लगाया गया है इसकी रोज फोरेंसिक जांच कर पाना हमारे बस में नहीं है। अक्सर हमारी गाड़ी पर पीछे सिलेंडर बंधा पाया जाता है। कभी कभी आटा की बोरी और सब्जी का थैला।



    आप  हमें वोट बनाने को कहते हो और गांव में प्रधानी चुनाव के संभावित  राजनैतिक दावेदार हमारे दुश्मन बन जाते हैं। रोज हम गलत वोट ना बढ़ाने के कारण गरियाये जाते हैं। पर आपको को तो काम चाहिए वो भी समय पर और बिना किसी त्रुटि के। महीनो वोट वनाने के चक्कर में कभी कभी हम अपने प्रिय शिष्यों के नाम तक भूल जाते हैं और कभी कभी तो हमें यह भी याद नहीं रह पाता कि हमने अपने बच्चों को इस साल कितने अध्याय पढ़ाये हैं।

   कभी कभी रंगाई पुताई समय से कराने के चक्कर में पुताई कर्मियों की भी जी हुजूरी करनी पड़ती है 7 हजार में इतना बड़ा विद्यालय पुतवाने के बाद विद्यालय की बॉउंड्री पर बैठे लड़के पूछते हैं मास्टर कितने बच गए तो कहना पड़ता है कि नौकरी बच गयी बस।बरसात की घास छोलने से लेकर भवन की झाड़ू तक की जबाबदेही हमारी ही है पर अगर हमारे बच्चे हमारा साथ ना दें तो हमारी जिंदगी मास्टर की बजाय सफाईकर्मी बनकर ही गुजर जाए।

     इसी बीच परीक्षा आ जाती है साहब कहते हैं कि बिना पैसे के करा लो, हमें परीक्षा के लिए कक्ष निरीक्षक तक नहीं मिलते हैं हमारे बच्चे 1 रूपये की कॉपी तक नहीं खरी पाते है, पर साहब कहते हैं कि बच्चे फेल नहीं होने चाहिए। अब जो बच्चा मामा के घर चला गया है उसको कैसे पास कर दें,हमारा दिल तो गवारा नहीं करता है पर साहब  कहते है कि हमें शतप्रतिशत रिजल्ट चाहिए।

         अधिकांश निरीक्षण में हमारे बच्चों की संख्या कम पायी जाती जिस पर हमें हमारे बच्चों के सामने ही सार्वजानिक रूप से बेइज्जत कर दिया जाता है पर कभी बच्चों से भी पता कर लो कि वो कहाँ है। कभी हमारे साथ हमारे बच्चों के घर भी चलो। जिस बच्चे का पिता दारू के नशे में धुत रहता हो तो वह अपनी माँ के साथ मजदूरी करे या स्कूल आये। बिना ज़मीन बाला भूमिहार मजदूर फसल के समय अपने पूरे परिवार के साथ वर्ष भर जीवन यापन लायक पैसे जोड़े या बच्चे स्कूल भेजे। अपने बच्चों के स्कूल से आये एक फोन पर हर काम को रोककर स्कूल पहुँचने बाले लोग काश यह भी जान पाते कि हमारे यहाँ नाम लिखाने के लिए हमें हर वर्ष घर घर बच्चे खोजने पढ़ते है महीनों उनके माता पिता से अनुरोध करना पड़ता है कि आप अपने बच्चों को कापियां दिला दें हफ़्तों गायब रहने और लगातार सूचना भिजवाने के बाद स्वयं ही खेत पर जाकर बच्चों और उनके पिता से अनुरोध करना पड़ता है कि आप ऐसे खेत पर काम करवाने की बजाय स्कूल भेजें। पर उन अभिभावक का दर्द भी जायज है आपने उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया नहीं है और भविष्य में पढ़कर उनके बच्चों को रोजगार देने के कोई संकेत आपके पास हैं नहीं।

      लोग तंज़ कसते हैं कि पहले सरकारी स्कूल के बच्चे अफसर बनते थे पर शायद आप भूल जाते हैं कि तब कृष्ण और सुदामा के लिए एक ही स्कूल होता था अब सब कृष्णों के पिता ने मिलकर अपने राजसी स्कूल खोलकर उनमे प्रवेश ले लिया है और सुदामा को जानबूझकर अल्पसुविधा बाले खैराती भवन में पढ़ने को मजबूर किया है। शिक्षा के नाम पर 3 प्रतिशत अतिरिक्त कर्ज वसूलने के बाद भी आप इन गरीबों के स्कूल में पूर्ण सुविधा नहीं दे पा रहे हैं या जानबूझकर नहीं देना चाहते ये आज तक समझ में नहीं आया काश वो कृष्ण जो कभी इन स्कूलों में पढ़कर आईएएस अफसर (राजा) बन गए वो ही लौटकर अपने गांव के गरीबों को कुछ सुविधा उपलब्ध करवा देते।पर शायद समाज के रसूख बाले लोगों को अपने कृष्ण को गरीब सुदामा के साथ पढ़ाना नागवार गुजरता है।


        जो लोग हम पर उंगलियां उठाते है वो जरा ये भी बता दें कि उन्होंने कब हमारी मदद के लिए हाथ बढ़ाया। क्षेत्र के सांसद और विधायक जी ने कितने स्कूल में अपनी सांसद और विधायक निधि से बच्चों के हित में काम करवा दिया। यहाँ तो जो चंद सरकारी मदद मिलती है उसमे भी ग्राम प्रधान अपनी नजर गड़ाये रहते हैं।कभी आप यह भी बता दें कि अच्छा कार्य करने बाले सरकारी मास्टर के लिए कभी आप लोगों ने कोई सम्मान समारोह आयोजित कराया हो जबकि निजी स्कूल के प्रिंसिपल को आप अपने बगल से बिठाकर खुश नजर आते है क्योंकि वह आपके बच्चों के स्कूल के प्रिंसिपल हैं। यहाँ तो हमें हर आठवें दिन अपने प्रधान के देहरी पर हाजरी देनी पढ़ती है और प्रधानिन जोर से आवाज देती हैं कि सुनो जी वो कलुआ के मास्टर फिर आ गए। प्रधान जी भी हमें उतनी ही तवज्जो देते हैं जितनी वो गांव के कलुआ हरिया और मातादीन को देते हैं। किसी अन्य विभाग का बाबू और चपरासी हमें हड़काने चला आता है क्योंकि हमने उसके विभाग के कार्य समय से नहीं किये।

      समाज का हर तबका हमारे वेतन को लेकर परेशान है पर हमारा काम इतना आसान नहीं है जितना आप समझते हैं और अगर आपको लगता है कि बच्चों के मन की स्लेट पर लिखना इतना आसान है  तो 6 महीने अपने बच्चे को खुद पढ़ाकर देखिये। आखिर आप भी तो पढ़े लिखे हैं और इतने तो पढ़े ही होंगे कि कक्षा 1 के छात्र को पढ़ा सकें। सरकारी स्कूल में पैदा की गयी प्रतिकूल परिस्तिथियों में शिक्षण बहुत कठिन पर हम इन स्तिथियों के लिए भी सदैब तैयार है पर आप हमें पढ़ाने तो दो। विभिन्न विभागों के काम कर कर के कभी कभी हम स्वयं भी भ्रमित हो जाते हैं कि आखिर हमें वेतन किस बात का मिल रहा है रोज रोज गांव में नया काम लेकर पहुँचने पर कभी कभी बुजुर्ग पूछ लेते हैं कि लल्ला का बेचन आये हो।

     वास्तव में अपनी इस वर्तमान दशा के लिए हम कतई दोषी नहीं हैं पर सारा दोष हमारे मत्थे मढ़कर आप सब अपने को पाक साफ साबित कर चुके हैं आज आपको भले ही अध्यापक से कई काम लेकर ख़ुशी महसूस हो रही हो और जिला प्रशासन सरकारी योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए अपनी पीठ थोक रहा हो पर भविष्य में यह समाज केवल आपकी नीतियों की बजह से अशिक्षित रह जायेगा और बदनामी हमारी होगी।

आपका
एक परिषदीय अध्यापक

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  1. bitter reality of system.

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  2. वास्तविकता यही हैं जब एक शिक्षक अपना अस्तित्व तलाश रहा हैं राजनीतिक लाभ हेतु शिक्षकों को बाँटा जा रहा हैं मानकों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा हैं शिक्षक चाह कर भी अपना कर्तव्य नहीँ निभा पा रहा हैं..विद्यालय अधिकारियों एवं जन प्रतिनिधियों के लिये धन उगाही का श्रोत मात्र बन कर रह गया हैं शिक्षा शिक्षक सम्मान या राष्ट्र हित की सोच ख़त्म हो गयीं हैं और देश पर जान देने वालों का अपमान हो रहा हैं..जय हिन्द जय भारत

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  3. Most of the facts mentioned in this post are true, despite all this hurdles we can provide good education to our school children. I have seen 80 % of teachers are not interested in teaching. They keep sitting on chairs and have chatting with each other and keep cursing system.
    No doubt system is responsible for this, but we are also part of this corrupt system

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