भारत की नई पीढ़ी के साथ हो रहा जालसाजी का तांडव अपने आप में एक जर्जर व्यवस्था को पूरी तरह बदलने के स्पष्ट संकेत देता है।

कुछ ही दिनों में बिहार का टॉपर प्रकरण जनता तथा संचार माध्यमों की द्रष्टि से ओझल हो जाएगा। कोर्ट-कचहरी में प्रकरण कई वर्षो तक लटका रहेगा और अगले वर्ष की परीक्षाओं में वही सब कुछ नहीं दोहराया जाएगा, इसकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेगा। अब नैतिक जिम्मेदारी जैसे शब्द राज व्यवस्था से अस्वीकृत होकर भुला दिए गए हैं। बिहार की जिस परीक्षा में लाखों युवा बैठे, जिसमें निम्नतम स्तर के कदाचार में उच्चतम स्तर के लगभग सभी अधिकारी सम्मिलित थे, क्या संबद्ध मंत्री का कोई नैतिक उत्तरदायित्व नहीं बनता है। यदि उन्हें जानकारी नहीं थी तो इसे घोर अक्षमता का प्रमाण क्यों नहीं माना जाना चाहिए? यदि ऐसी कोई जालसाजी 1950-65 के बीच हुई होती तो अब तक शायद मुख्यमंत्री स्वत: ही पद छोड़ चुके होते। यहां यह भी याद करना तर्कसंगत होगा कि बिहार में ऐसा सब कुछ शिक्षा में अनेक दशकों से हो रहा था और इसकी जानकारी सभी को थी। 1999 में बिहार के कुछ सरकारी विश्वविद्यालयों द्वारा सारे देश में जिस ढंग से बीएड की डिग्री बेची जाती थी उसका बड़ा खुलासा हुआ था। जो प्राथमिकी दर्ज की गई थी उसमें ऊंचे अधिकारियों, नेताओं तथा कुलपतियों के नाम शामिल थे। उस प्रकरण का हश्र क्या हुआ या होगा? इसका हमारी व्यवस्था में अनुमान लगाना कठिन नहीं है। मगर उस प्रकरण से राज्य सरकार तथा व्यवस्था ने कुछ नहीं सीखा, यह स्पष्ट रूप में देश के सामने इस वर्ष फिर से उजागर हो गया है।  बिहार को ऐतिहासिक द्रष्टि से विचारों तथा नवाचारों का उद्गम स्त्रोत माना और जाना जाता रहा है। समसामयिक संदर्भ में देश को आपातकाल के अंधकार से बाहर निकालने में बिहार ने न केवल नेतृत्व प्रदान किया, वरन उसके युवावर्ग ने आगे आकर सारे देश के युवाओं को ही नहीं जनता को भी जागृत कर दिया। इस सब में जो युवा उस समय अग्रणी थे और बाद में सत्ता तक पहुंचे वे उसकी चकाचौंध में इस हद तक खो गए कि केवल अपने और अपनों तक सीमित हो गए। विकास, प्रगति, नैतिकता, गुणवत्ता वाली शिक्षा केवल शब्दमात्र रह गए जो चुनाव घोषणापत्रों तथा विज्ञापनों की शोभा बढ़ाने में जमकर उपयोग में लाए जाते रहे हैं। यहां यह भी याद रखना होगा कि शिक्षा में जो कुछ बिहार के संदर्भ में सम्प्रति सारे देश में चर्चित हो रहा है उसमें बिहार अकेला नहीं है। उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पहले अध्यापक योग्यता परीक्षा यानी टीईटी में बहुत बड़ा घोटाला उजागर हुआ था। यहां के कक्षा बारह तक के इंटर कालेज बिना किसी भी प्रयोगशाला के विज्ञान के विद्यार्थियों को उच्चतम श्रेणी में बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण करा देते हैं और इसके लिए देश भर में जाने जाते हैं। नकल कराने में यह देश का सबसे बड़ा प्रदेश बिहार से कतई पीछे नहीं है। मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला अनेक वर्षो चला और लाखों युवाओं के जीवन में अंधकार भर गया।  इधर एक खबर आगरा विश्वविद्यालय में कापियों के मूल्यांकन को लेकर छपी है। अंग्रेजी के सम्मानित परीक्षक स्वयं उस भाषा के दो-चार शब्द भी सही नहीं लिख पाए। अर्थशास्त्र के प्राध्यापक आइएमएफ से परिचित नहीं थे। उन्हें वापस भेज दिया गया। ऐसा किया जाना साहसपूर्ण कदम है मगर प्रबुद्ध समाज के लिए यह विचारणीय होना ही चाहिए कि यह या ऐसे ही इनके अन्य सहयोगी और साथी आगे चलकर कुलपति या बोर्ड के अध्यक्ष जैसे पदों पर सुशोभित होंगे तब देश की नई पीढ़ी का क्या होगा? केंद्र सरकार के एक विश्वविद्यालय की महिला कुलपति को फर्जी दस्तावेजों तथा उपाधियों के आधार पर बर्खास्त किया गया है। दुर्भाग्य यह है कि अकादमिक जगत में किसी को भी अब ऐसे प्रकरणों के उजागर होने पर आश्चर्य नहीं होता है। कुछ महीने पहले दिल्ली से यह खबरें भी कई बार आईं कि तीस प्रतिशत फर्जी डिग्रीधारी भी वकालत के पेशे से जुड़े हैं। आशा करनी चाहिए कि ऐसा नहीं है। आशंकाएं तो हर तरफ से आ ही रहीं हैं। पूरे पन्ने के विज्ञापन उन विश्वविद्यालयों की ओर आकर्षित करते हैं जो केवल धनार्जन और उसके एवज में डिग्री बांटने के अलावा और किसी में रुचि नहीं रखते हैं। न ज्ञान में और न कौशल में। इन पर अंकुश लगाने में सरकारें असफल रही हैं। केवल जाग्रत और संगठित समाज ही इन्हें सही रास्ता दिखा सकता है और युवाओं का भविष्य बचा सकता है। पिछले कई दशकों से बिहार के अधिकांश सक्षम तथा संसाधन संपन्न नागरिक अपने बच्चों को बिहार से बाहर भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते रहे हैं। वे अनेक बैठकों, संगोष्ठियों में बिहार की शिक्षा व्यवस्था की आलोचना बार बार दोहराते रहते हैं। 

अपेक्षा तो यह है कि बिहार का सभ्य समाज जाग्रत हो, उन लाखों बच्चों के भविष्य पर चिंतित हो जो वहीं की व्यवस्था में किसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और नकल माफिया तथा अपने पदनाम को कलंकित करने वाले अधिकारियों, प्राचार्यो तथा अध्यापकों के निर्मम स्वार्थो की बलि चढ़ जाते हैं। बारहवीं की परीक्षा में टॉपर घोषित उस बच्ची की स्थिति कितनों को दहला देगी जब वह कहती है कि मैं तो केवल द्वितीय श्रेणी चाहती थी, मेरे परिवारवालों ने मुझे टॉप करा दिया। क्या व्यवस्था यह नहीं समझती है कि 15-18 वर्ष की आयु वर्ग के युवाओं को बहलाना और उन्हें सुनहरे सपने दिखाना कितना आसान होता है। क्या यह छात्र दिखाए गए सब्जबाग से अपने को दूर रख सकती थी। भारत की नई पीढ़ी के साथ हो रहा जालसाजी का यह तांडव अपने आप में एक जर्जर व्यवस्था को पूरी तरह बदलने के स्पष्ट संकेत देता है। इन्हें न समझना राष्ट्रीय स्तर पर की जा रही बड़ी भूल होगी जिसके परिणाम आगे चलकर अत्यंत भयावह होंगे।

 लाखों युवा आज भी देश में हैं जिनके पास डिग्री है मगर कैसे मिली यह वे कहने को तैयार नहीं हैं। उनके पास डिग्री के लायक न तो कोई ज्ञान है और न ही कौशल। सरकारी संस्थानों, स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों में आवश्यक संसाधन नहीं हैं, अधिकांश निजी संस्थाएं लाभांश पर ही अपने सारे प्रयास केंद्रित कराती हैं। ऐसे में विद्यार्थी ठगा सा बाहर आकर अपने को अत्यंत निराशाजनक स्थिति में पाता है। क्या भारत का समाज अपनी भावी पीढ़ी को ईमानदारी से और निष्ठापूर्वक सही स्वरूप में विकसित कर रहा है? 

लेखक    

 जगमोहन सिंह राजपूत                                                                                                             

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

 



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