तमाम महिमा मंडन के बावजूद समाज में शिक्षकों का सम्मान काफी कम हुआ है।

भारतीय समाज किन विरोधाभास को जीने वाला समाज है, इसे समझने के लिए शिक्षक दिवस सबसे अच्छा उदाहरण है। अभी मैंने गूगल पर शिक्षक दिवस टाइप किया, तो स्क्रीन पर अनेक ऐसी साइट उभर आईं, जिनमें बताया गया है कि आप अपने शिक्षक को इस अवसर पर किन खूबसूरत लफ्जों या बेहतरीन कविताओं से बधाई दे सकते हैं। इन संदेशों को पाने वाले तो गदगद होते ही होंगे, भेजने वाले भी उसी भाव से प्रसन्न होते होंगे। भाषण देते या लेख लिखते समय हम गुरु-शिष्य परंपरा की महानता का बखान करते नहीं अघाते। गुरु को गोविंद से बड़ा साबित करते हुए अपनी पीठ थपथपाते हैं। लेकिन तथ्य यह है कि हमारे समाज को न तो सच्चे शिक्षकों की जरूरत रह गई है और न उनके लिए उसके मन में सम्मान है। यह बात शिक्षकों की सभी कोटियों के लिए समान रूप से लागू होती है। फिलहाल दो ही कोटियों की चर्चा करेंगे। आईआईटी, आईआईएम, केंद्रीय विश्वविद्यालय या राज्य विश्वविद्यालय, गवर्नमेंट कॉलेज, माध्यमिक विद्यालय और परिषदीय विद्यालयों के स्थाई शिक्षकों की एक कोटि है। इन्हीं संस्थानों में अस्थाई, तदर्थ, संविदा पर रखे गए शिक्षकों से लेकर शिक्षा मित्रों तक की एक अन्य कोटि है। इसमें हम स्ववित्त पोषित संस्थानों के शिक्षकों को भी शामिल कर सकते हैं। इन दोनों ही कोटियों के लिए हमारी सामूहिक चित्ति में आदर और सम्मान नहीं है। पहली कोटि के लिए आम तौर पर द्वेष व घृणा का भाव रहता है। भारत की विश्व गुरुता के गुमान में ऊभ-चुभ होते रहने वाले अदना राजनीतिक कार्यकर्ता से लेकर बड़े नौकरशाह तक शिक्षकों को मोटी तनख्वाह पाने वाले कामचोर तबके के रूप में देखते हैं और उनके प्रति विद्वेष भाव रखते हैं। इस विद्वेष की परिणति शिक्षकों की अवहेलना और उनके उत्पीड़न में होती है। तदर्थ व अस्थाई शिक्षकों की कोटि बनाने के मूल में यह विद्वेष काम करता रहता है। समाज के सामूहिक चित्त में तदर्थ व अस्थाई शिक्षकों के लिए उपहास व अकर्मक दया का भाव रहता है। यह दया शिक्षकों की बेहतरी के लिए कुछ करने को प्रेरित नहीं करती। दया की भीख के लिए खड़ी भीड़ को देखकर अहं की तुष्टि जरूर होती है। दूसरी कोटि के शिक्षकों की संख्या पहली कोटि से अधिक नहीं, तो कम भी न होगी। प्रदेश में शिक्षा मित्रों की नियुक्ति प्राइमरी शिक्षकों की कमी दूर करने और कम पैसे में शिक्षण कार्य कराने की तदर्थ व्यवस्था के तहत हुई थी। इस तदर्थतावाद के मूल में शिक्षक व शिक्षा को गैर-जरूरी मान लेना है। 
शिक्षक के लिए हम चाहे जितने ऊंचे आदर्श बघारते हों, वास्तविक सम्मान शिक्षक दिवस की औपचारिकता तक सिमटकर रह गया है। इसके लिए सिर्फ व्यवस्था या समाज को जिम्मेदार ठहराना एकपक्षीय होना होगा। शिक्षकों का सम्मान कम करने में खुद शिक्षक-बिरादरी की भूमिका कम नहीं है। एकलव्य जैसे छात्र का अंगूठा काटकर उसके ज्ञान को व्यर्थ कर देने वाले द्रोणाचार्य पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने शिक्षक की मर्यादा मिट्टी में मिलाई थी। आज उनके वंशजों की कमी नहीं है, जो अपने तुच्छ लाभ-लोभ में एकलव्यों के अंगूठे काटते रहते हैं। इसके उलट यह भी देखने को मिलता है कि कई बार शिक्षकों का ही अंगूठा काट लिया जाता है और शिक्षक चाहकर भी अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर पाता। 
संत परंपरा ने शिक्षक के लिए बहुत बड़ा आदर्श निश्चित किया है। कबीरदास ने सद्गुरु की सबसे बड़ी विशेषता ‘सांचा’ और ‘शूर’ होना बताया है। अभिप्राय यह कि शिक्षक को सच बरतना ही नहीं, सच कहना भी चाहिए। इसके लिए सच को जानने-समझने की तमीज और उसे कहने का साहस चाहिए। निजी क्षति उठाकर भी सच बोलना और उसे बरतना, सामाजिक हित के लिए कटिबद्ध होना शिक्षक का कर्तव्य है। यह कर्तव्य पालन बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है, क्योंकि ‘सांच को आंच नहीं’ हमारे समाज का एक मुहावरा भर है। हमारी सामूहिक नैतिकता न तो सच बोलना चाहती है और न सुनना। क्या हम शिक्षकों के लिए ऐसा वातावरण बना सकते हैं, जिसमें वे बिना डरे सच कह सकें? उन्हें यह डर न हो कि सच कहने पर उनका अंगूठा काट लिया जाएगा। विश्व गुरु बनने के पहले जरूरी है कि हम एक शिक्षित समाज बनें और इसके लिए सच्चे शिक्षकों का होना आवश्यक है।
लेखक 
सदानंद साही
प्रोफेसर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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