बाल दिवस पर साहित्य और पत्रकारिता में बच्चों के लिए सिमटते स्थान की चर्चा।

आज बाल दिवस के बहाने हम जब बाल-पत्रकारिता या बाल-पत्रिकाओं की ओर मुड़कर देखते हैं, तो कई सवाल सामने खड़े पाते हैं। बड़ा सवाल हिंदी पत्रकारिता के इतने बड़े संसार में बच्चों के साहित्य को मिलने वाली जगह का है। यह भी कि वे कौन सी पत्रिकाएं हैं, जिन्हें वास्तव में बाल साहित्य की पत्रिका कहा जाए? बाल दिवस पर तमाम चिंताओं के बीच साहित्य व पत्रकारिता में बच्चों के लिए सिमटते जाते स्थान पर सोचने की जरूरत है। देश की सबसे बड़ी भाषा होने पर भी हंिदूी इस इलाके में कमजोर और रुग्ण दिखती है। भाषा वह पहली सीढ़ी है, जिस पर चढ़कर मनुष्य अपने देश की संस्कृति से प्रेम करना सीखता है। नंदन, बाल भारती, बालहंस और चंपक के अलावा कोई पत्रिका नहीं, जो व्यावसायिक ढंग से बच्चों के लिए निकलती हो। स्वैच्छिक संस्थानों में भोपाल से आ रही चकमक और बिहार से  प्लूटो हैं, जिन्हें अपने काम के लिए रेखांकित तो किया जा सकता है, लेकिन इनकी उपलब्धता बेहद सीमित है। एनसीईआरटी ने कुछ वर्ष पहले बच्चों की एक पत्रिका प्रारंभ की थी, जो दो-चार अंकों से आगे न बढ़ सकी। बच्चों की किताबें छापने वाला सबसे बड़ा संस्थान राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भी बच्चों की पत्रिका के प्रति उदासीन है।

बच्चों की पत्रिकाएं साहित्य प्रेम की नर्सरी ही नहीं होतीं, अपितु उनके माध्यम से बच्चों में भाषा की गहराई और संस्कृति से राग उत्पन्न होता है। यहां उनका अपना संसार बनता है, जो टीवी और दृश्य माध्यमों के आरोपित कोलाहल से कहीं अलग निजी, कोमल व अधिक काल्पनिक होता है। यह कल्पनाशीलता बच्चों को नए ढंग से सोचना सिखाती है। बाल पत्रिकाओं का न होना हमारी भाषा का भी गहरा संकट है। मध्यवर्गीय समाज जिस तेजी से कॅरियर और अंग्रेजी की तरफ दौड़ रहा है, उसमें हमारी भाषाओं के साहित्य की जीवंत प्रस्तुति के माध्यमों का न होना अवसाद की स्थिति है। भाषा के गहरे और देशज संस्कार साहित्य से आते हैं और साहित्य को बच्चों तक पहुंचाने का मुख्य माध्यम ही विलोप होता जाए, तो यह स्थिति उस समाज के लिए शोचनीय है। 

पत्रिकाओं में दिलचस्पी देखकर ही अपेक्षा की जा सकती है कि बच्चा किताबों की तरफ भी जाएगा। अतीत की बाल पत्रिकाओं के अनेक उदाहरण हैं, जो इस बात का तार्किक आधार बनती थीं, जब नंदन में राजेंद्र यादव कहानियां लिखते और मोरारजी देसाई बच्चों के सवालों के जवाब दिया करते थे। अस्सी के दशक तक बाल साहित्य की पत्रिकाओं के मार्फत बच्चे पत्र-मित्र बनते थे। नए संचार माध्यमों ने विचार के इस प्रारंभिक माध्यम पर गहरा प्रहार किया है, जहां बच्चे अपने मन की बात लिखना सीखते थे और जो कितने ही लोगों के लिए लेखन की पहली पाठशाला बन गया। बाल पत्रिकाओं के खत्म होने से मनोरंजन की कृत्रिम और तुरंता प्रविधियों को जगह मिली। ये प्रविधियां तुरंता मनोरंजन से बच्चों की कल्पनाशक्ति को कुंद करती हैं और उन्हें इनका निष्क्रिय उपभोक्ता बनाकर छोड़ती हैं। कहानियां और कविताएं पढ़ने का अवसर उन्हें न केवल उर्वर कल्पना का धनी बनाता है, अपितु बचपन की सुहानी स्मृतियों में इन कहानी-कविताओं के माध्यम से हमारे जीवन की समृद्ध झलक भी स्थाई हो जाती है। अखबारों में भी बच्चों के लिए जो जगह बची भी है, क्या वह बच्चों को हमारी भाषा और संस्कृति से जोड़ पा रही है? अधिकांश जगहों पर तो यह स्थान भी बच्चों को सामान्य ज्ञान और अंग्रेजी सिखाने का माध्यम बन चुका है। वर्तमान में आ रही पत्रिकाओं पर भी एक नजर डालनी चाहिए। चकमक का प्रारंभ विज्ञान पत्रिका के रूप में हुआ था, समाज विज्ञान और साहित्य से जुड़ी सामग्री देने में यह पत्रिका अव्वल रही है। समय के साथ व्यावसायिक तौर पर निकल रही नंदन, बाल भारती, चंपक व बालहंस ने कलेवर तो लगातार बदला, लेकिन हिंदी भाषियों तक इनकी व्यापक उपस्थिति एक सवाल है? स्कूल इस उपस्थिति का बड़ा जरिया बन सकते हैं। अनेक अंग्रेजी प्रकाशक तो स्कूलों को अपनी किताबों का प्रचार और बिक्री का जरिया बनाते हैं, किंतु हिंदी बाल पत्रिकाओं के लिए सामान्यत: ऐसी पहल नहीं दिखती। बाल पत्रिकाओं की कमजोर स्थिति ही आगे चलकर साहित्य से जनता की दूरी की वजह बनती है।

लेखक
पल्लव 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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