वहां प्राथमिक शिक्षा का हाल बहुत अच्छा न हो, पर बच्चों के प्रति शिक्षकों का समर्पण एक उदाहरण है।

मार्च और जुलाई के बीच उत्तर-पूर्वी कर्नाटक और यादगीर जिले के लगभग 30 प्राथमिक स्कूलों का दौरा करने का अवसर मिला। इस दौरान हर रोज कर्नाटक के कुछ सबसे गरीब गांवों के तीन स्कूलों में जाता था। प्राथमिक स्कूल हर जगह बिना अपवाद के दो शिक्षक-शिक्षिकाओं द्वारा चलाए जा रहे थे, कई जगह तो एक ही। उच्च प्राथमिक स्कूलों में सुविधाएं थोड़ी बेहतर जरूर थीं, कुछ स्कूलों में शिक्षक-शिक्षिकाओं की कमी थी। हालांकि इनकी अदम्य इच्छाशक्ति से मुझे हैरत होती थी। जिन भी शिक्षक-शिक्षिकाओं से मिलना हुआ, उनका अकादमिक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं था। वैसे भी भारत में जिनकी अकादमिक उपलब्धियां ऊंचे दर्जे की हों, वे पढ़ाने का पेशा नहीं चुनते। इनकी उपलब्धियां बेशक साधारण हों, लेकिन हमारे गांवों के स्कूल इन्हीं के दम पर चल रहे हैं। उनके कामकाज के हालात और चुनौतियां देख पता चलता है कि ये साधारण स्कूल टीचर कितना असाधारण काम कर रहे हैं। ज्यादातर टीचर गांव के स्कूल पर समय से पहुंचने की जद्दोजहद करते दिखे, जो हमें नहीं दिखता। यह भी नहीं दिखता कि कोई शिक्षिका वेतन का लगभग 10 प्रतिशत ऑटो-रिक्शा पर खर्च करती है, क्योंकि गांव मुख्य सड़क से कई मील दूर है। हम तब उनकी फुर्ती का अंदाजा नहीं लगा सकते, जब वह एक क्लास से दूसरी क्लास में भागती हैं, ताकि पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा को संभाल सकें और इस बीच चौथी व पांचवीं के बच्चों को कुछ ऐसा काम दे दें, जो वे बिना देखरेख के भी कर सकें।

ऐसे टीचर भी मिले, जो स्कूल के बाद अकादमिक व शैक्षणिक मसलों पर चर्चाओं में शामिल होते हैं। अपना पैसा लगाकर शैक्षणिक सामग्री खरीदते या बच्चों की खेल-कूद गतिविधियां जिंदा रखने के वास्ते जिला मुख्यालय के चक्कर लगाने वाले शिक्षक भी मिले। पत्राचार कोर्स कर अतिरिक्त शैक्षणिक योग्यताएं हासिल कर बच्चों का भविष्य संवारने वाले भी मिले।  एक लड़ाई दिखी, जो सरकारी स्कूल टीचर अकेले अपने दम पर लड़ रहे थे। स्कूल का कामकाज संभालने के लिए इन्हें और सहकर्मियों की जरूरत है, ताकि बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और उनके सीखने पर ध्यान देने का काम बेहतर हो सके। इसकी बजाय, एक अतिरिक्त टीचर की नियुक्ति के लिए भी उनको नाक रगड़नी पड़ती है। ज्यादातर गांवों में हेड टीचर को समुदाय के मुख्तलिफ हिस्सों को स्कूल के साझे हित के वास्ते साथ लाने के लिए लगातार मशक्कत करनी होती है। क्या शिक्षा विभाग के कर्ता-धर्ता इन तनावपूर्ण स्थितियों में हेड टीचर की मदद करते हैं? 

अच्छे स्कूल अक्सर एक जुझारू हेड टीचर के नेतृत्व से बनते हैं और होता यह है कि उस टीचर के तबादले के बाद कम योग्यता और क्षमता वाली नियुक्ति हो जाती है और इस अंतर को कोई देखना भी नहीं चाहता। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है। मैं ऐसी बातों की लंबी फेहरिस्त बना सकता हूं। सच्चाई यह है कि ज्यादातर अफसर भी इतने तरह के दबाव में होते हैं कि इस मामले में कुछ सकारात्मक नहीं कर पाते। पिछले साल 17 जुलाई को खबर आई कि कर्नाटक में 251 शिक्षा अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया गया है। एक अखबार ने तो यह भी कह दिया कि यह कदम ‘भ्रष्टाचार खत्म करने की कवायद है..।’ बेशक इस आदेश को वापस लेने के लिए कई बेहद ताकतवर तबकों की तरफ से गहरा दबाव भी बनाया गया। लेकिन 26 जुलाई को यह पुष्टि आई कि आदेश वाकई लागू किया जा रहा है। यह एक ऐसी घोषणा थी, जिससे कर्नाटक के हर ईमानदार टीचर और शिक्षा अधिकारी को खुशी हुई होगी। हमें यकीन है कि इस दृढ़ कार्रवाई से अधिकारीगणों के हाथ मजबूत होंगे, जिससे वे अपरिहार्य दबावों का प्रतिरोध कर अपने स्कूलों को समर्थन देने के काम पर अपनी पूरी ऊर्जा लगा पाएंगे। यह सही है कि यह कहानी मुख्य तौर पर बहादुर शिक्षक-शिक्षिकाओं और व्यवस्था में व्याप्त निष्ठुरता की है, लेकिन साथ ही यह कहानी यह भी बताती है कि अगर शीर्षस्थ नौकरशाही और प्रासंगिक राजनीतिक स्तरों समेत व्यवस्था के विभिन्न चरणों के बीच एक तारतम्य हो, तो निर्भीक व प्रगतिशील पहलकदमियों को भी बखूबी लागू किया जा सकता है।

लेखक
एस. गिरिधर
सीओओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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