■ स्कूली शिक्षा की बदहाली
भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति पर यूनेस्को की रपट पर सरकार को उतना ही ध्यान देना चाहिए जितना कि उसने हाल ही में आई मूडीज की रपट पर दिया। सच तो यह है कि प्रतिष्ठित वैश्विक संस्थाओं के ऐसे हर अध्ययन पर गंभीरता प्रदर्शित की जानी चाहिए जो किसी भी क्षेत्र में भारत की स्थिति पर अपना आकलन पेश करते हैं। इस संदर्भ में यह कोई छिपी बात नहीं कि वैश्विक संस्थाओं के ऐसे कई अध्ययन हैं जो यह बताते रहते हैं कि भारत विभिन्न क्षेत्रों में किस तरह पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा है। इस मामले में मानव सूचकांक संबंधी रपट भी उल्लेखनीय है और कुपोषण की स्थिति को बयां करने वाली ग्लोबल हंगर रपट भी।
दरअसल जब हमारे नीति-नियंता इस तरह की रपटों पर गंभीरता प्रदर्शित करेंगे और तंत्र की कमजोरियों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाएंगे तभी वांछित परिणाम सामने आएंगे। वैश्विक संस्थाओं की रपटों पर ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि इनमें भारत की जो तस्वीर पेश की जाती है उससे ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक हद तक देश की छवि का निर्माण होता है। शिक्षा में सुधार के मामले में मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही अनेक आश्वासन दिए थे। इन आश्वासनों के अनुरूप काफी कुछ हुआ भी है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
समस्या केवल यह नहीं है कि स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए जा सके हैं, बल्कि यह भी है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में भी वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। परिणाम यह है कि उद्योग-व्यापार जगत एवं समाज को जैसे उच्च शिक्षित युवाओं की आवश्यकता है वैसे युवा शिक्षा संस्थानों में नहीं निकल पा रहे हैं। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार को स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा में सुधार के लिए भी तेजी के साथ ठोस कदम उठाने होंगे। चूंकि शिक्षा केंद्र एवं राज्यों के अधिकार वाला विषय है इसलिए चीजें उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं जितनी बढ़नी चाहिए। यह ठीक नहीं कि शिक्षा में अपेक्षा के अनुरूप सुधार इसलिए न हो पाए, क्योंकि यह समवर्ती सूची का विषय है।
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