परिदृश्य : शिक्षा का समान अवसर क्यों नहीं?

सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला देने का फैसला जब अप्रैल, 2012 में दिया था, तो लोगों को लगा था कि इससे गरीबों के बच्चों को निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा पाने का मौका मिलेगा और शिक्षा का समान अवसर पाकर वे आगे बढ़ेंगे। आज तीन साल बाद भी तस्वीर नहीं बदली है। आश्चर्य है कि इसे लागू न करने वाले तंत्र की जवाबदेही तय नहीं हो पाई। आज भी पूरा तंत्र तमाशा देखने के अलावा कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है।

हमारा तंत्र निजी शिक्षण संस्थानों की मदद करता है। पच्चीस प्रतिशत गरीब बच्चे निजी स्कूलों में न जा सकें, इसके लिए अभी तक कहा जाता रहा है कि निजी स्कूलों के एक किलोमीटर की परिधि में कोई सरकारी स्कूल नहीं होने पर ही दाखिला दिया जाए। आखिर यह नियम किसके हितों की हिफाजत करता रहा है? कुल मिलाकर कहें, तो निजी स्कूलों में गरीबों के बच्चों का 25 प्रतिशत दाखिला ख्याली पुलाव से ज्यादा कुछ नहीं।
हालांकि गरीब बच्चों में निजी स्कूलों का सम्मोहन पैदा करना इस तथ्य को स्वतः स्वीकार कर लेना है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। हकीकत भी यही है। सरकारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के बजाय उसे दूसरे भुलावे में उलझाया जा रहा है। उसी का हिस्सा है, 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना। शेष 75 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों के भरोसे अनपढ़ रहें, तो कोई बात नहीं। सरकार बार-बार कहती है कि सरकारी स्कूलों में मिड-डे-मील के आकर्षण में गरीब बच्चे पढ़ लेते हैं, तो क्या निजी स्कूलों में जो गरीब बच्चे पढ़ने जा रहे हैं, उन्हें मिड-डे-मील नहीं चाहिए?
 
अजीब बिडंबना है कि सरकारी स्कूलों में मिड-डे-मील खाने को लेकर जो अस्पृश्यता का भाव देखा गया, अब वही भाव निजी स्कूल प्रबंधक, अमीर और गरीब बच्चों के बीच पैदा कर समाज को बांटने का काम करेंगे। कहीं ऐसा न हो कि समतामूलक पैबंद लगाने का यह प्रयोग, समाज में दूसरी सामाजिक समस्याओं को पैदा कर दे। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि ‘मेरी कमीज, तेरी कमीज से सफेद’ का भाव बच्चों की मानसिकता को प्रभावित तो करेगा ही।

 "यह कैसी व्यवस्था है, जहां एक बच्चे को शिक्षा के नाम पर खिचड़ी खिलाई जाती है, तो दूसरे को महंगे कोचिंग, ट्यूशन और अन्य माध्यमों के सहारे दुनिया-जहान का ज्ञान परोसा जा रहा"
गरीब बच्चों के निजी स्कूलों में दाखिले की राह में अन्य बाधाएं भी हैं। पहला तो यही कि यह आदेश पहली कक्षाओं के लिए है। संभव है, स्कूल प्रबंधक पहली कक्षा में प्रवेश संख्या सीमित कर दें और अगली कक्षाओं में प्रवेश संख्या बढ़ा दें। यह भी संभव है कि अल्पसंख्यक वर्ग के नाम पर स्कूल खोले जाएं, जहां 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश देने की बाध्यता नहीं है। कर्नाटक में हमने निजी स्कूल प्रबंधकों की तमाम बंदिशों, नखरों को देखा है। सरकार भी उनके नखरों पर अंकुश लगाने में नाकाम रही।

सवाल उठता है कि सबको समान शिक्षा का अधिकार सरकार क्यों नहीं देना चाहती? यह कैसी व्यवस्था है, जहां एक बच्चे को शिक्षा के नाम पर खिचड़ी खिलाई जाती है, तो दूसरे को महंगे कोचिंग, ट्यूशन और अन्य माध्यमों के सहारे दुनिया-जहान का ज्ञान परोसा जा रहा है!
गरीब बच्चों में निजी स्कूलों का रुझान पैदा करना यह मान लेना है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती।

लेखक
सुभाष चंद्र कुशवाहा



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  1. सही कहा सुभाष जी

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  2. Koi bhi school ho. Agar bachcha regular nhi jayega. To use kuchh samajh me nhi aayega

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  3. Duniya ka sabse achchha school ho to bhi regular na rahne wala bachcha Sikh nhi payega.

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