मुझे इस बीच बुनियादी शिक्षा में सक्रिय शिक्षक संगठनों के माँग पत्र सिकुड़ते हुए दिख रहे हैं। कहीं-कहीं एक सूत्रीय की ओर है। शिक्षकों ने इस मिथक को तोड़ कर रख दिया है कि एक सूत्रीय माँग पर सहभागिता कम होगी इसके विपरीत बिना जवाबदेही के माँग पत्र का पुलिंदा लिए संगठनों में न्यून भागीदारी कर करारा जवाब भी दिया है। जवाबदेही और पारदर्शिता से एक सूत्रीय माँग के साथ सामने आओ,संघर्ष करो,सफलता सुनिश्चित कर स्वयं को सिद्ध करो फिर दूसरी माँग पर बढ़ो।यह कम शुभ संकेत नहीं। दूसरी ओर जनभागीदारी से निर्वाचित सरकारों का जायज़ माँगों पर सकारात्मक रूख में गिरावट लाना फलस्वरूप छोटी-बड़ी सभी समस्याओं को न्यायालयों के दर पर ले जाने की मजबूरी,लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं।

राजनीतिज्ञ जिन संघर्षों के आधार पर सत्ता आसीन होते हैं,सरकार के रूप में उन संघर्षों के प्रति उदासीनता लाकर अपनी डाल को ही निरन्तर कमजोर कर रहे हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि शांतिपूर्ण ढ़ग से आयोजित धरना-प्रदर्शनों को संज्ञान में न लेकर सरकार और कम कवरेज देकर मीडिया आखिर क्या संदेश देना चाहती है।
          
 ऐसी कठिन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए अपने मुद्दों पर विशाल सहभागिता का माहौल बनना ही चाहिए। शिक्षक संगठनों को अपने मुद्दों के प्रति मिशनरी सोच से काम करना चाहिए।अपनी ऊर्जा को अन्य संगठनों से श्रेष्ठ साबित करने,शिक्षक नेताओं को प्रमोट करने एवं सरकार के प्रति कुंठित मानसिकता से ग्रसित व्यक्तियों को मंच प्रदान करने में व्यय नहीं करनी चाहिए। सरकारी कर्मचारी मर्यादित ढ़ग से ही अपनी बात रखने के लिए अधिकृत हो सकता है।

         समस्याओं के निराकरण में आयोजित वार्ताओं में शिक्षक नेताओं को प्रशासनिक अधिकारियों की अपेक्षा जनप्रतिनिधियों को अधिक तरजीह देनी चाहिए। वे जमीनी जुड़ाव के कारण अधिक संवेदनशील और विशाल हृदय वाले रहते हैं। ऐसा करके अधीनस्थ होने की वजह से दंभ भाव का भी कम सामना करना पड़ता है। शिक्षक संगठन के सदस्यों का रवैया अपने संगठन या शीर्ष नेतृत्व के प्रति अंधभक्ति या चापलूसी वाला नहीं होना चाहिए। वे बुद्धिजीवी पेशे से है तो तार्किक,मनभेद रहित और सकारात्मक आलोचनाओं से संगठन को नवनिर्माण की ओर अग्रसर करना चाहिए किंतु संघर्ष के दिनों में बौद्धिक उलझनों को विराम देकर नेतृत्व के निर्देशों का पूरी निष्ठा के साथ अनुपालन करना भी आवश्यक हो जाता है।

संगठनों को भी समर्पित कार्यकर्ताओं की आलोचनाओं को सर्वांगीण विकास के अवसर के रूप में देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त उन साथियों को भी शिक्षक बिरादरी से अलग-थलग करने की प्रबल आवश्यकता महसूस करता हूँ जो अपनी समस्याओं पर निरन्तर विधवा विलाप कर शिक्षक नेताओं को कठघरे में खड़ा किया करते हैं पर उन्हीं समस्याओं पर आयोजित संघर्षों से जी चुराते हैं। उनको भी पकड़ने की आवश्यकता है जिन्होंने संघर्षों में शामिल होना कुछ विशिष्ट शिक्षकों का ही जन्मसिद्ध कर्तव्य समझ रखा है। इसके अलावा शिक्षकों को समस्त शिक्षक समाज के हित में गुटबाजी छोड़, मुद्दा सर्वोपरि रखते हुए संगठनों के कार्यक्रमों में भागीदारी करनी चाहिए।संघर्षों में मुद्दा हम सबको एकसूत्र में बाँधने का मूल आधार रहता है। शिक्षक एकता जिन्दाबाद कहते हुए अपनी बात को विराम दूंगा। जय राम जी की दोस्तों ।।

लेखक
राहुल प्रताप सिंह, प्र०अ०,
प्रा०वि०-शंकरपुर
जनपद-सीतापुर।।
                     

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