बच्चों को पोषणयुक्त आहार देने के चक्कर में कहीं हम विद्यालयों के मूल उद्देश्य से ही तो समझौता नहीं कर बैठे हैं?


मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील योजना के क्रियान्वयन में गड़बड़ी की खबरें लगातार आती ही रहती हैं। घटिया भोजन के साथ-साथ भोजन में कीड़े-मकोड़े मिलना आम बात है। छिपकली तक के भी मिलने की खबर आई है। कुव्यवस्था के चरम के रूप में बिहार के सारण जिला के गंडामन विद्यालय की घटना थी जिसमें विषाक्त भोजन करने से लगभग दो दर्जन बच्चों की मौत ही हो गई थी। सरकार द्वारा लाख प्रयास किए जाने के बावजूद इस तरह की घटनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगाया जा सका है। यही नहीं 


मध्याह्न भोजन योजना के लागू होने के बाद से विद्यालयों का नजारा ही बदल गया है। विशेष रूप में ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में बच्चे घर से खाने का बर्तन लेकर स्कूल जाते हैं। यह दृश्य ऐसा लगता है कि मानों वे किसी सामाजिक उत्सव पर सामूहिक भोज में जा रहे हैं। ये बच्चे स्कूल में किताब सामने एवं खाने का बर्तन बगल में रखते हैं। कक्षा में उनका ध्यान शिक्षकों की पढ़ाई एवं पाकशाला, दोनों तरफ लगा रहता है। छुट्टी होने पर वे भोजन के लिए अपने हाथों में बर्तन लिए पंक्तिबद्घ खड़े होते हैं। यह किसी विद्यालय से अधिक किसी आपदा राहत शिविर का दृश्य प्रस्तुत करता है। 

यह भी देखा गया है कि मध्याह्न भोजन के बाद बच्चे तो अधिकतर विद्यालय छोड़ ही देते हैं, शिक्षकगण भी इसी के साथ अपने दायित्वों का एक प्रकार से इतिश्री मान लेते हैं। इन दोनों परिस्थितियों के मद्देनजर आज मध्याह्न भोजन योजना की गहन समीक्षा की आवश्यकता महसूस की जा रही है। क्या यह योजना अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो रही है? या फिर किसी एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दूसरे बड़े एवं मौलिक लक्ष्य को कुर्बानी तो नहीं दी जा रही है? यह विचार करने की जरूरत है। मध्याह्न भोजन योजना बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने, वहां उपस्थित रहने के साथ उन्हें पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराने की योजना है। देखने वाली बात है कि क्या इसके लिए हम विद्यालय के मूल उद्देश्य शिक्षा एवं शैक्षिक माहौल से ही तो समझौता नहीं कर बैठे हैं? इस योजना का ग्रास कहीं पूरी शिक्षा व्यवस्था ही तो नहीं हो रही है? विद्यालय में दिन का भोजन देने की प्रथा भारत में बहुत पहले ही प्रारंभ हो चुकी थी। आजादी से पूर्व ही 1925 में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा चेन्नई नगर निगम और फ्रांसीसी हुकूमत द्वारा पुदुचेरी के विद्यालयों में बच्चों को दिन का भोजन देने की व्यवस्था शुरू की गई थी। आजादी के बाद सर्वप्रथम 1962-63 में तमिलनाडु में कामराज के नेतृत्व वाली सरकार ने बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने के लिए भोजन योजना की शुरुआत की। बाद में 1982 में एमजी रामचंद्रन ने इसे बदलकर ‘पोषणयुक्त आहार योजना’ के नाम से नई योजना चलाई। 1984 में गुजरात एवं केरल में भी ऐसी योजना की शुरुआत की गई और 1990-91 आते-आते लगभग 12 प्रदेशों में इस तरह की योजना शुरू हो गई। इसमें से आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में योजना मूल रूप से विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की मदद से प्रारंभ की गई। वर्तमान मध्याह्न भोजना योजना की शुरुआत पूरे देश में 15 अगस्त, 1995 से की गई थी। उल्लेखनीय है कि 22 वर्ष पहले इस योजना की शुरुआत मूल रूप से बच्चों को पोषणयुक्त आहार प्रदान करने के लिए हुई थी। इसके साथ ही बच्चों को स्कूल में रोकने एवं उपस्थिति बढ़ाने का भी लक्ष्य इस योजना से जोड़ा गया। यह बात सही है कि इन मापदंडों पर इस योजना को सफलता भी मिली, परंतु आज चिंता का विषय यह है कि क्या यह सब कुछ विद्यालय में पठन-पाठन की कीमत पर स्वीकार्य हो सकता है? बिहार के विद्यालयों में इस योजना का कुप्रभाव शिक्षा प्रणाली पर स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है। जब शिक्षक चावल, गेहूं, दलिया, सब्जी की खरीद एवं इसकी आपूर्ति से संबंद्घ हो जाएंगे और मेन्यू कार्ड के हिसाब से बच्चों को तैयार भोजन खिलाने की जिम्मेदारी निभाएंगे तो उनसे किस हद तक शिक्षादान में ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती है? आज सभी विद्यालयों के मध्याह्न भोजन के प्रभारी शिक्षक प्रखंड एवं आपूर्ति कार्यालय के चक्कर लगाते देखे जा सकते हैं। मेरी समझ से अगर विद्यालयों में बच्ची को पोषणयुक्त आहार प्रदान कराना है तो इसके लिए अलग से एक स्वतंत्र व्यवस्था स्थापित करनी होगी जिसका दायित्व सिर्फ बच्चों को समय पर पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराना होगा। शिक्षक पूर्ण रूप से इस व्यवस्था से मुक्त रखे जाएं। दूसरे विकल्प के रूप में विद्यालय जाने वाले बच्चों के अभिभावकों को ही जन वितरण प्रणाली के माध्यम से अतिरिक्त अनाज एवं अन्य सामग्री उपलब्ध करा दिया जाए एवं उन्हीं से बच्चे को पोषणयुक्त आहार देने की अपेक्षा की जाए। अंतिम विकल्प के रूप में ‘प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण’ योजना यानी डीबीटी के जरिये स्कूल जाने वाले बच्चों के परिवार को सीधे नकद राशि का ही भुगतान कर दिया जाए। ऐसा होने पर बच्चों के परिजनों पर ही पोषणयुक्त आहार देने का दायित्व रहेगा एवं विद्यालय में पठन-पाठन का माहौल भी सुरक्षित रहेगा। अभी की व्यवस्था में बच्चों को स्वच्छ वातावरण में पोषणयुक्त आहार मिलना तो संदेह के घेरे में रहेगा ही, साथ ही शिक्षण स्तर भी लगातार प्रभावित होता रहेगा।

लेखक
विजय कुमार चौधरी
(लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैं)
response@jagran.com



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