बेसिक शिक्षा का नाम सुनते ही मन में एक ऐसे विद्यालय की कल्पना आती है जिसमे न्यूनतम सुविधा में गुणवत्ताहीन अध्यापन का कार्य होता है इसलिए अपने पाल्यों के बेहतर जीवन को ध्यान में रखने बाला कोई भी समझदार अभिभावक अपने बच्चों को इन स्कूलों से दूर ही रखना चाहता है। लोग तर्क देते हैं कि हमारे समय मे इन विद्यालयों में 250-300 छात्र पढ़ा करते थे और अब इन विद्यालयों में 20-25 छात्रों की संख्या बरकरार रखना मुश्किल हो रही है प्रथम दृष्टया अध्यापक को और उसके अध्यापन को दोषी बताकर प्राथमिक की दुर्दशा का ठीकरा उस पर फोड़कर सिस्टम अपनी नाकामी से बच निकलता है पर हकीकत कुछ और ही है। 



        आज से लगभग 4 दशक पहले अर्थात राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 से पहले जब सर्व शिक्षा जैसी कोई योजना अस्तित्व में नही थी तब देश मे विद्यालयों की संख्या काफी कम थी लगभग 8 से 10 किलोमीटर दूर और कहीं कहीं तो उससे भी अधिक दूरी पर प्राथमिक विद्यालय हुआ करते थे जूनियर हाइस्कूल तो क्षेत्र में गिने चुने ही होते थे। एक प्राथमिक विद्यालय में 4 से 6 गांव के छात्र पढ़ते थे और सम्पूर्ण ग्रामीण आवादी में से 30 से 35 प्रतिशत छात्र छात्राओं के नामांकन के बाबजूद भी इन विद्यालयों में अध्यनरत छात्रों की संख्या 250 -300 तक पहुंच जाती थी। उस समय भी केवल वही अभिभावक अपने छात्रों को पढ़ाते थे जो स्वयं उनके भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे चूंकि 1986 तक निजी मान्यता प्राप्त विद्यालयों की संख्या काफी कम थी ऐसे में लोगों के पास इन विद्यालयों में प्रवेश दिलवाने के अलावा कोई विकल्प भी नही था। उस दौर में भी ड्राप आउट का प्रतिशत आज से अधिक ही था जूनियर हाइस्कूल की दूरी काफी अधिक होने से ज्यादातर छात्राएं अपने घर वैठ जाती थीं जबकि साईकल सुविधा बाले परिवार ही अपने बच्चों को विद्यालय भेज पाते थे बाबजूद इसके कई प्राथमिक विद्यालयों के बीच एक माध्यमिक होने से इन विद्यालयों में भी छात्र संख्या कभी भी 200 से नीचे नही रही।  




  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस तथ्य पर प्रमुखता से विचार किया गया कि लोगों की आवश्यकता की तुलना में विद्यालयों की संख्या काफी कम है पर सरकार के पास आवश्यक संसाधन न होने के कारण निजी विद्यालयों की स्थापना का रास्ता खोल दिया गया। निजी विद्यालयों की स्थापना का रास्ता खुलते ही एक दशक में ही लगभग सभी शहरी क्षेत्रों और 25 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में निजी मान्यता प्राप्त विद्यालयों की स्थापना हो गयी। छात्रों के रूप में इन विद्यालयों ने अभिजात्य धनाड्य वर्ग के छात्रों को बेहतर सुविधा और पढ़ाई के आश्वाशन के साथ अपनी ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया और यहीं से प्राथमिक विद्यालय की छात्र संख्या और गुणवत्ता में ह्रास होना प्रारम्भ हो गया। सरकारी विद्यालयों के खिलाफ नकारात्मक प्रचार में इन विद्यालयों और इनमें पढ़ने बाले छात्रों ने भरपूर योगदान दिया। 90 के दशक के समाप्त होने तक लगभग प्रत्येक गांव में एक छोटे से मांटेसरी को मान्यता मिल चुकी थी। शिक्षा दो वर्गों में बंटती जा रही थी, मांटेसरी या निजी विद्यालय में पढ़ाना रसूख का मामला घोषित किया जा चुका था इसलिए कुछ और जागरूक परिवारों ने अपने निजी खर्चो में कटौती कर अपने पाल्यों को सरकारी विद्यालयों से निकालकर निजी विद्यालयों में भेजना प्रारम्भ कर दिया।



       सर्व शिक्षा अभियान में प्रत्येक 6-14 साल के बच्चे को स्कूल तक पंहुचाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया जिन क्षेत्रों में सरकारी स्कूल न होने से निजी विद्यालयों को मान्यता दी गयी थी उनमे भी एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय स्थापित कर दिया गया। पर सबसे बड़ी समस्या थी इन विद्यालयों के लिए छात्र आकर्षित कर पाना। निजी विद्यालयों की सुविधा और आधारभूत संरचना की तुलना में सरकारी स्कूल काफी कमजोर नजर आते थे इसलिए उन विद्यालयों के छात्रों को ये विद्यालय आकर्षित कर अपने यहां लाने में 100 प्रतिशत फेल रहे इसलिए उन गरीब और बंचित छात्रों को खोजा गया जो अभी तक कहीं भी पढ़ने को तैयार नही थे वर्ष 2000 या उसके बाद स्थापित नए विद्यालयों में लगभग इसी तर्ज पर प्रवेश दिए गए। चूंकि यह छात्र मनोवैज्ञानिक रूप से पढ़ने के लिए तैयार नही थे इसलिए गुणवत्ता के लिए काफी अधिक मेहनत की जरूरत थी और नई भर्ती के अध्यापक इसके लिए तैयार नही थे सरकारी स्कूल में बच्चों को रोक पाना भी कठिन था इसलिए सरकार ने मध्यान्ह भोजन वजीफा निःशुल्क पुस्तक आदि के सहारे इन छात्रों को केवल विद्यालयों में बनाये रखने पर ज्यादा बल दिया परिणाम स्वरूप इन विद्यालयों को समाज मे खैराती विद्यालय या गरीबों के विद्यालयों के रूप में प्रचारित कर दिया गया। 



       2009 में निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम में प्रत्येक छात्र को आवश्यक एवं निःशुल्क गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ विद्यालयों में आवश्यक न्यूनतम सुविधाओं के लिए विशेष निर्देश जारी किए गए पर 10 वर्ष बाद राज्य निर्धारित सुविधाओं को पूरा करने में असमर्थ रहे बल्कि पर्याप्त शिक्षक तक उपलब्ध नही करा सके  फलस्वरूप निजी और सरकारी विद्यालयों में प्रत्येक मामले में बहुत अंतर आता गया। निजी विद्यालयों ने सरकारी उदासीनता का जमकर फायदा उठाया और शिक्षा को मुनाफा देने बाले व्यवसाय में बदल लिया जिसके कारण मानव संसाधन विकास मंत्रालय को इन पर अंकुश लगाने के लिए कड़े आदेश करने को बाध्य होना पड़ा। सरकारी स्कूलों के लचर प्रदर्शन से अब सरकारी स्कूल में छात्रों की संख्या की भारी कमी आ रही है। इसके लिए प्राकृतिक कारण भी जिम्मेदार हैं।वर्तमान सर्वाइवल रेट 1.19 के लगभग है इसलिए प्रति 2000 आवादी पर 22 से 25 छात्र ही प्रति वर्ष उपलब्ध होते हैं जो उस गांव में स्थापित 2 -3 विद्यालयों में बंट जाते हैं सबसे कम छात्र प्राथमिक विद्यालय के हिस्से में आते है इसलिए इन विद्यालयों का छात्र औसत 50 के आसपास आ गया है छात्र संख्या घटने से प्रति छात्र खर्चा बढ़ता जा रहा है जिसको लेकर सरकार काफी परेशान है। 




   कुल मिलाकर अगर कुछ विद्यालयों के व्यक्तिगत प्रयासों को छोड़ दें या कुछ जनपदों के दूरस्थ इलाकों को जहां निजी विद्यालय काफी कम हैं, में छात्र संख्या पर्याप्त है शेष की स्थिति काफी नाजुक है। अगर सरकार ने निजी विद्यालयों को पोषित करने और सरकारी विद्यालयों को हतोत्साहित करने की अपनी योजना को लगाम नही लगाया तो आने बाले समय मे कई विद्यालयों को ताला लगाकर उनके छात्रों को पड़ोस के विद्यालयों में मर्ज करना होगा।



✍ लेखक : 
अवनीन्द्र सिंह जादौन 
सहायक अध्यापक (इटावा)
महामंत्री, टीचर्स क्लब, उत्तर प्रदेश



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