आसान नहीं उच्च शिक्षा के श्रेष्ठ संस्थान खड़े करना


अपने देश में 60 हजार से अधिक उच्च शिक्षण संस्थान हैं, जिनमें से बमुश्किल पांच फीसदी बेहतर गुणवत्ता वाले हैं


उच्च शिक्षा के श्रेष्ठ संस्थानों की परिभाषा आखिर क्या होनी चाहिए? मेरे विचार से ऐसे संस्थानों से स्नातक करने वाले छात्रों को न सिर्फ अपने विषय की अच्छी जानकारी होनी चाहिए, बल्कि वास्तविक दुनिया में उसके इस्तेमाल की कला भी उनके पास होनी चाहिए। इसी तरह, संस्थानों के पास ऐसी सांस्थानिक ताकत होनी चाहिए, जिससे उनकी शैक्षणिक सोच बखूबी झलकती हो और उनको लागू करने के लिए सांगठनिक ढांचे व प्रक्रिया का वे पालन करते हों। 


भारत में 60 हजार से भी अधिक उच्च शिक्षण संस्थान हैं, जिनमें से बमुश्किल पांच फीसदी बेहतर गुणवत्ता वाले हैं और अन्य पांच प्रतिशत इसके करीब। हालांकि, शेष 90 फीसदी संस्थानों में भी ऐसे शिक्षकों व छात्र-छात्राओं की संख्या कम नहीं होगी, जो उच्च गुणवत्ता वाले संस्थानों की तरह योग्य होंगे, लेकिन उनके संस्थान उपरोक्त कसौटी पर खरे नहीं उतर सकेंगे।


इस संदर्भ में तमाम बातों के अलावा, पहली जरूरत यह है कि उच्च शिक्षण संस्थान के उद्देश्य को लेकर संस्थापक स्पष्ट रहें। अगर ऐसा न होगा, तो संस्थान अपनी राह भटक सकता है। उनकी स्थापना का मकसद मूलतः तीन मामलों में स्पष्ट दिखना चाहिए। पहला, संस्थापकों में उन कार्यक्रमों को लेकर स्पष्ट समझ हो, जो वह संस्थान पढ़ाएगा। दूसरा, आर्थिक रूप से वंचितों को शामिल करने की नीति स्पष्ट होनी चाहिए।


इसे भी संस्थान की स्थापना के मकसद से जोड़ना चाहिए। और तीसरा, संस्थापकों को संस्थान शुरू करने के लिए पर्याप्त पूंजी की व्यवस्था करनी चाहिए व एक न्यायोचित वित्तीय मॉडल अपनाना चाहिए, ताकि वे संस्थान की अर्थव्यवस्था को स्थिर रख सकें। हैरानी की बात है कि कई संस्थापक इसे नहीं समझ पाते और संस्थान पैसे की तंगी से जूझता रहता है।


बहुत से संस्थापक इस बात पर ध्यान नहीं देते कि उनके पाठ्यक्रम और चयन का विकल्प किस तरह से वित्तीय मॉडल से जुड़ा हुआ है ? इसीलिए, वे इस बात से अनजान रहते हैं कि उच्च शिक्षण संस्थानों की आर्थिक सेहत महज छात्रों से मिलने वाली फीस से नहीं सुधर सकती। यहां तक कि बेहतर छात्रों के लंबे ट्रैक रिकॉर्ड वाले संस्थान भी. जिनकी अकादमिक प्रतिष्ठा दुनिया  है। दुनिया का कोई भी उच्च शिक्षण संस्थान अपने खर्च की महज 10-50 फीसदी राशि ही छात्रों की फीस से जुटा पाता है। शेष रकम के लिए उसे सार्वजनिक वित्त- पोषण की जरूरत पड़ती है।


असल में, पाठ्यक्रम की फीस इस पर निर्भर होती है। कि दूसरे संस्थान वही कोर्स कितनी रकम लेकर पढ़ा रहे हैं, और इससे भी अधिक इस बात पर कि पाठ्यक्रम खत्म होने के बाद छात्रों को किस तरह का रोजगार मिलेगा ? भारत में भी शीर्ष स्तर के शैक्षणिक संस्थान अपने खर्च की महज 20 फीसदी राशि बतौर फीस जुटा पाते हैं। इसीलिए, वित्तीय स्थिरता, पाठ्यक्रमों का विकल्प, रणनीति और समावेशन नीति को बारीकी से तैयार किया जाना चाहिए।


बेशक हम काफी गहराई में नहीं जा सकते, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी उच्च शिक्षण संस्थान की लागत बाहरी कारकों से बहुत अधिक तय होती है। इसीलिए, शिक्षक-छात्र अनुपात का आधार शैक्षणिक दृष्टि से मजबूत होना चाहिए। किसी भी श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान को अपने शिक्षकों को कुछ समय शोध के लिए भी देना चाहिए, ताकि वे अपने विषय में अपडेट रहें। 


संक्षेप में कहें, तो संस्थापकों को यह तय करना होगा कि उसका संस्थान कौन से कार्यक्रम चलाएगा और कितना समावेशी होगा ? इसी आधार पर उसे एक कोष बनाना चाहिए, जो संस्थान की अर्थव्यवस्था बनाए रख सकेगा। इसमें 10 से 15 साल का वक्त लग सकता है। तब तक संस्थापकों का काम खत्म नहीं मानना चाहिए।


यहां संस्थान की स्थापना से जुड़ा चौथा मामला नेतृत्व (कुलपति या निदेशक) का है। जब तक नेतृत्व संस्थापकों के उद्देश्य को नहीं समझ सकेगा, तब तक वह श्रेष्ठ संस्थान विकसित नहीं कर सकेगा। आखिरकार चुनौतियों से पार पाने में सही नेतृत्व ही मददगार होता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


✍️ अनुराग बेहर  
सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन

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