उच्च शिक्षा में वाजिब ऊंचाई का इंतजार, प्रतिष्ठित रैंकिंग में सिर्फ आईआईटी, डीयू-जेएनयू-जामिया मिल्लिया-बीएचयू जैसे केंद्रीय संस्थान और कुछ निजी विश्वविद्यालय ही क्यों शुमार होते हैं?


दुनिया भर के उच्च शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग बताने वाली कुकक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) संस्था ने साल 2025 की अपनी रैंकिंग जारी की है, जिससे भारतीय विश्वविद्यालयों की संवर रही तस्वीर की कुछ झलक दिखती है। पूर्व की तरह इस वर्ष भी रैंकिंग में शीर्ष पर मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) काबिज है, जबकि चार अन्य स्थान क्रमशः इम्पीरियल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड, हार्वर्ड और केंब्रिज यूनिवर्सिटी के नाम हैं। मगर भारतीय शिक्षण संस्थानों ने भी अपनी रैंकिंग ठीक-ठाक सुधारी है। जैसे, आईआईटी, बॉम्बे को इस बार 118वां स्थान मिला है, जबकि पिछली रैंकिंग में वह 149वें पायदान पर थी। आईआईटी, दिल्ली भी पिछली बार के 197वें स्थान से 150वें पायदान पर पहुंच गई है। इस वर्ष रैंकिंग में शामिल हमारे शीर्ष दस संस्थानों में सबसे अधिक आईआईटी (सात) हैं, जबकि शेष तीन संस्थानों में आईआईएस (211वीं रैंकिंग), दिल्ली यूनिवर्सिटी (328) और अन्नामलाई यूनिवर्सिटी (323) शामिल हैं।


सवाल है कि क्यूएस ही नहीं, अन्य दो प्रतिष्ठित रैंकिंग- एसजेटीयू व टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग में सिर्फ आईआईटी, डीयू-जेएनयू-जामिया मिल्लिया बीएचयू जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय और कुछ निजी विश्वविद्यालय ही क्यों शुमार होते हैं? बाकी शिक्षण संस्थान मानकों पर क्यों खरे नहीं उतर पाते? 


इसकी एक वजह तो इन रैंकिंग की रूपरेखा है, जो काफी हद तक पश्चिमी विश्वविद्यालयों के अनुकूल होती है। इनमें कैंपस में विविधता, छात्रों को मिलने वाले रोजगार के अवसर, शोध-कार्य, बुनियादी ढांचा, ब्रांड-वैल्यू आदि तमाम कसौटियों पर संस्थानों को परखा जाता है। ऐसे में, उन भारतीय संस्थानों को इसमें परोक्ष लाभ मिलता है, जो आजादी के पहले या स्वतंत्रता के तुरंत बाद खोले गए, क्योंकि उनको लगातार धनराशि मिलती रहती है। वे इसका जो हिस्सा खर्च नहीं कर पाते, वह धन 'सरप्लस' के रूप में उनके पास जमा रह जाता है

और इन पर मिलने वाला ब्याज आदि उनके लिए अक्षय निधि' बन जाता है। चूंकि ये पुराने संस्थान हैं, इसलिए इनका यह फंड भी करोड़ों रुपये में हो गया है, जिसका इस्तेमाल ये अपने हित में करते रहते हैं। यह सुविधा अन्य संस्थानों को हासिल नहीं है।


' बेशक, तमाम संस्थानों में ट्यूशन फीस ली जाती है, पर यह उनकी कुल आमदनी का बमुश्किल 10 से 20 फीसदी हिस्सा होती है। आमदनी के अन्य स्रोतों का अधिकतम इस्तेमाल शिक्षकों-कर्मचारियों के वेतन- पेंशन आदि में किया जाता है। फिर, उच्च शिक्षा वित्तीयन एजेंसी (हेफा) से जो ब्याज रहित या नाममात्र व्याज पर कर्ज मिलता है, वह अमूमन केंद्रीय विश्वविद्यालयों या अच्छे संस्थानों के ही खाते में जाता है। इससे स्वाभाविक ही राज्य-स्तरीय विश्वविद्यालयों की स्थिति दयनीय हो जाती है। फिर, राज्यों की आमदनी अलग- अलग है और उनका प्रबंधन भी। 


आलम यह है कि अब भी हमारे देश में कुल जीडीपी का बमुश्किल तीन फीसदी हिस्सा ही शिक्षा पर खर्च किया जाता है, जबकि 1968 की पहली शिक्षा नीति में इसे छह प्रतिशत करने की वकालत की गई थी। जब राज्य सरकारों के पास पैसे होंगे ही नहीं, तो वे छह फीसदी कैसे खर्च करेंगी? यहां यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उच्च शिक्षा में महंगी फीस की वकालत की जा रही है। कम फीस के कारण ही देश में कई ऐसे छात्र उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं, जिनकी आर्थिक हैसियत निजी विश्वविद्यालयों में पढ़ने की नहीं होती। मगर सच यह भी है कि राज्य के शिक्षण संस्थानों में शोध-कार्यों के लिए पर्याप्त साधन नाहीं हैं, पुस्तकालयों में प्रचुर मात्रा में किताबें नहीं हैं और प्रयोगशालाओं में उचित उपकरण नहीं हैं। इस सूरतेहाल में गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई होगी कैसे ?


 इसका एक उपाय यह हो सकता है कि जो छात्र विपन्न हों, उनसे पूर्ववत फीस ली जाए, पर जो महंगी फीस का भार उठाने में सक्षम हैं, उनसे कुछ अधिक फीस वसूली जाए। हमें यह भी समझना होगा कि अच्छी उच्च शिक्षा के लाभार्थी सिर्फ विद्यार्थी नहीं होते, बल्कि वे संस्थाएं भी होती हैं, जो बच्चों की शिक्षा या कौशल का इस्तेमाल करती हैं। इन कंपनियों से शिक्षण संस्थानों में निवेश करवाया जा सकता है। अगर कंपनियां सीधे निवेश नहीं कर सकतीं, तो कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) में यह प्रावधान बनाया जा सकता है कि अगर वे अपने सीएसआर मद का तय हिस्सा किसी शिक्षण संस्थान में खर्च करेंगी, तो उनको इन्सेंटिव या टैक्स में छूट मिलेगी। 


जाने-माने कारोबारी नौशाद फोब्स ने अपनी किताब द स्ट्रगल ऐंड द प्रॉमिस में लिखा है कि हम शोध- अनुसंधान पर जितना खर्च करते हैं, उसका 80 से 90 फीसदी हिस्सा देश के 47 सरकारी प्रयोगशालाओं को चला जाता है। हम इस पैसे को सालाना पांच फीसदी की दर से यदि कम करते जाएं और ये पैसे सरकारी शिक्षण संस्थानों को मुहैया कराएं, तो वहां शिक्षा और शोध-कार्य, दोनों सुधर जाएंगे, उनकी रैंकिंग में बेहतर हो जाएगी। 


इसी तरह, एक सुझाव यह भी हो सकता है कि जो संस्थान अपनी वैश्विक रैंकिंग सुधारते हैं, उनको इन्सेटिव दिए जाएं। इस इन्सेंटिव का इस्तेमाल शिक्षकों-कर्मचारियों है, क्योंकि की बेहतरी पर किया जा सकता राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों के करीब 99 फीसदी अध्यापकों के पास आज भी लैपटॉप जैसे आधुनिक उपकरण जैसे देशों से नहीं हैं। अगर हम अमेरिका, ब्रिटेन मुकाबला करना चाहते हैं, तो हमें अपने शिक्षकों-कर्मचारियों की गुणवत्ता सुधारनी ही होगी। 

यहां हम चाहें, तो चीन से भी सबक ले सकते हैं। उसने पिछले कुछ दशकों में अपने उन नागरिकों को वापस बुलाया है, जो पढ़ने के लिए विदेश गए और वहीं के होकर रह गए। अध्यापन कर्म में लगे ऐसे चीनी नागरिकों को स्वदेश में वे तमाम सुविधाएं दी गई, जो उन्हें विदेश में मिल रही थीं। इसका फायदा चीन की शिक्षा-व्यवस्था में दिखा है। 


हमारे देश में भी आईआईटी, आईआईएम या कुछ केंद्रीय व निजी विश्वविद्यालयों के छात्र उच्च शिक्षा हासिल करने विदेश जाते हैं और वहीं कॉलेजों में अपना भविष्य देखते हैं। उनको स्वदेश बुलाना चाहिए और उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल करना चाहिए। हालांकि, मुश्किल यह भी है कि देश के कई संस्थानों में भाई-भतीजावाद इस कदर हावी है कि वहां कुलपति तक की नियुक्ति शायद ही प्रतिभा के आधार पर होती है। हमें ऐसे संस्थानों को भी चिह्नित करके वहां पारदर्शी व्यवस्था बनानी होगी, तभी वे अन्य वैश्विक संस्थानों के साथ कदमताल कर सकेंगे। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

✍️ लेखक डा0 हरिवंश चतुर्वेदी
मुख्य शिक्षा सलाहकार, बिमटेक

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