आलेख न केवल इस विडंबना को उजागर करता है, बल्कि इस सवाल को हमारे सामने आक्रामकता से रखता है कि क्या शिक्षक बनना आज भी गर्व की बात है, या समाज ने इसे केवल ‘दूसरों के बच्चों’ के लिए छोड़ दिया है।
"अच्छे शिक्षक की चाहत सबको है, पर अपने घर से क्यों नहीं?"
हर अभिभावक चाहता है कि उसके बच्चे को एक अच्छा, योग्य और प्रेरणादायी शिक्षक मिले। लेकिन जब बात आती है अपने ही बच्चे के भविष्य की, तो वह कभी नहीं चाहता कि वह शिक्षक बने। यह विरोधाभास केवल आकांक्षाओं का नहीं, बल्कि उस सामाजिक सोच का परिणाम है जिसमें शिक्षक को सम्मान तो मिलता है, लेकिन अधिकार और सत्ता नहीं।
समाज में ‘शक्ति’ उन्हीं पदों से जुड़ी मानी जाती है जिनसे निर्णय, नियंत्रण और प्रभाव जुड़ा हो — जैसे प्रशासन, राजनीति या व्यवसाय। शिक्षक इन सबसे इतर केवल ‘ज्ञान का साधक’ माना जाता है, जिससे लाभ तो सभी लेना चाहते हैं, लेकिन जीवन का विकल्प कोई नहीं बनाना चाहता। यही कारण है कि शिक्षक बनना अब एक प्रेरणा नहीं, मजबूरी का विकल्प बनता जा रहा है।
दरअसल, शिक्षक की भूमिका को हमने लंबे समय से सेवा का कार्य मान लिया है, लेकिन यह भूल गए कि यह सेवा नहीं, एक निर्माण प्रक्रिया है। शिक्षक केवल पढ़ाता नहीं, एक सोच गढ़ता है, संस्कार देता है, और भविष्य की नींव रखता है। बावजूद इसके उसे नीति-निर्माण में कोई स्थान नहीं, विद्यालय में निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं, और समाज में वही सम्मान जो केवल शब्दों में सीमित है।
शिक्षाशास्त्र कहता है कि शिक्षा का केंद्र शिक्षक होना चाहिए, लेकिन हमारे यहां शिक्षा प्रशासन, आंकड़ों और योजनाओं का पर्याय बन चुकी है। शिक्षक केवल उन आदेशों को लागू करने वाला बनकर रह गया है, जिनमें उसका कोई विचार या अनुभव शामिल नहीं होता। यह स्थिति एक जीवंत व्यवस्था को मृत रूप में ढालने जैसा है।
जब समाज में शिक्षक केवल 'कार्यवाहक' बन जाता है, तो प्रतिभाशाली युवा शिक्षक बनने की आकांक्षा नहीं करता। नतीजतन, शिक्षा में वही लोग आते हैं जिन्हें कहीं और जगह नहीं मिलती। ऐसे में ‘अच्छे शिक्षक’ मिलने की उम्मीद केवल संयोग बनकर रह जाती है।
समाधान तब ही संभव है जब शिक्षक को न केवल ज्ञान का वाहक, बल्कि सामाजिक शक्ति का स्रोत माना जाए। उसे निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी दी जाए, विद्यालय स्तर पर स्वायत्तता मिले, और सबसे अहम — समाज उसे एक नेतृत्वकर्ता की तरह देखे।
अंततः सवाल यही है — क्या शिक्षक बनना आज भी गर्व और गौरव की बात है? अगर नहीं, तो फिर वह ‘अच्छा शिक्षक’ जिसकी हर अभिभावक को तलाश है, वह आएगा कहां से?
शिक्षा को मजबूत बनाना है तो शिक्षक को ताकत देनी होगी — वरना हम बस दूसरों के लिए अच्छे शिक्षक की कामना करते रहेंगे, लेकिन अपने बच्चों को कभी यह रास्ता नहीं अपनाने देंगे। यही समाज का सबसे शिक्षित ढोंग है — और यही हमारी शिक्षा की सबसे बड़ी हार।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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